मजदूरों की लाशों पर बनी अंग्रेजी राज में रेल पटरियां
वर्ष 1857 में भारत की पहली आजादी की लड़ाई के दो साल बाद बंगाल में भयंकर हैजा फैला था। वर्ष 1859 में इस हैजे की महामारी की मार के शिकार हुए थे, हजारों रेल मजदूर। ये मजदूर देश के सुदूर भागों से दो जून रोटी की तलाश में बंगाल पहुंचे थे। इन गरीब-गुरबा मेहनतकशों को रोटी तो नसीब हुई नहीं, पर वे मौत के सफर पर निकल गए।
इयान जे. कैर की पुस्तक "बिल्डिंग द रेलवेज आफ द राज" के अनुसार, ’’रोजाना, बड़े पैमाने पर मजदूरों का आना जारी रहा। जबकि रेल इंजीनियर इन मजदूरों को एकबारगी में उनके रहने का इंतजाम करने में विफल रहे। मजदूरों की एक बड़ी आबादी वहां आने के कई दिनों बाद तक सिर पर छत का इंतजाम नहीं कर सकीं। जबकि हैजा उनके बीच में फैला हुआ था।‘‘
जाहिर तौर पर उस महामारी के लिए रेल पटरी निर्माण स्थल पर ही करीब 4000 कुलियों का देहांत हो गया। वैसे, अकेला अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के लिए रेलमार्ग बनाने वाले मजदूरों का एकमात्र हत्यारा हैजा ही नहीं था। भारतीय कुली वर्ग मलेरिया, चेचक, टाइफाइड, निमोनिया, पेचिश, दस्त और अल्सर जैसी बीमारियों का भी खूब शिकार हुआ। रेल निर्माण के कुछ बड़े भागों में तो कभी-कभी कुल मजदूरों की 30 प्रतिशत या उससे अधिक आबादी किसी महामारी वाली बीमारी के कारण काल का ग्रास बनी।
उदाहरण के लिए, वर्ष 1888 में, भारत में बंगाल-नागपुर लाइन के बीच रेल पटरी निर्माण के एक ही हिस्से में करीब 3,000 मजदूरों की मौत हुई। हालत इतनी खराब थी कि इन मृत मजदूरों के शवों को रेलवे लाइन के किनारे पर ही फेंक दिया गया। इन बेसहारा लाशों का कोई धनी-वारिस नहीं था। इस कारण यहां पर इस कदर असहनीय बदबू फैली कि शवों का ढेर लगाकार, उनका सामूहिक रूप से अंतिम संस्कार किया गया।
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