आज पश्चिमी दुनिया के भौतिक साधनों के विकास की दिशाहीन होड़ में भारतीय समाज अपनी सदियों पुरानी स्वयंसिद्ध परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को तजता जा रहा है । यह कथित विकास पारम्परिक जल स्रोतों, विशेषरूप से नदियों को लील रहा है, जिसके कारण देश के पारिस्थितिकी तंत्र का स्वाभाविक संतुलन बिगड़ रहा है। 'दर-दर गंगे' पुस्तक में लेखकद्वय-अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु ने भारत में जल और जीवन तथा उससे जुड़ी मानवीय सभ्यता के समक्ष पैदा हो रही चुनौतियों और खतरों को रेखांकित किया है । गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक लम्बी यात्रा करने वाली गंगा, जो उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू- भाग को न केवल सींचती है, बल्कि यहां के राष्ट्रीय समाज की भावनात्मक और धार्मिक आस्था के कारण इसकी पूजा मातृस्वरूपा देवी के रूप में की जाती है, को नए सिरे से खोजा गया है । यह खोज आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपना जीवनदायी स्वरूप खोने और स्वच्छ, निर्मल जल के स्थान पर दूषित और जहरीले पानी का प्रतीक बनने वाली नदी की कहानी है ।
इस पुस्तक ने अपनी शैली, विशेष-व्यक्तिगत संस्मरणों और यात्रा वृत्तांतों में गंगा की 2,071 किलोमीटर तक की अविरल यात्रा को समेटा है । यह शैली ही इस पुस्तक को रोजमर्रा की पत्रकारिता में गंगा के प्रदूषण पर आए दिन लिखे जाने वाले लेखों और खबरों की भीड़ से अलग करती है ।
इस पुस्तक के लेखकों ने गंगा पथ पर पड़ने वाले मानवीय बसावट वाले ठिकानों-गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, कानपुर, इलाहाबाद, विंध्याचल, बक्सर, पटना और कोलकाता से लेकर गंगासागर-में से तीस शहरों का चयन किया है । ये नगर, नदी के मूल स्वरूप के विलुप्त होने और आधुनिक सभ्यता के औद्योगिक कचरे और निकृष्ट जल-मल प्रबंधन के कोढ़ से उसके ग्रसित होने के गवाह हैं, और इसका जिम्मेदार इन्हीं नगरों का नागरी समाज है । सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी तो घोषित कर दिया पर लोक के व्यवहार में राष्ट्रीय सम्मान कहीं परिलक्षित नहीं हुआ । राष्ट्रध्वज के अपमान, राष्ट्रीय गीत या राष्ट्रगान के मजाक उड़ाने पर दंड की व्यवस्था है लेकिन गंगा के विषय पर अब तक ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखता ।
इस पुस्तक में नदी तट पर मौजूद मानवीय बसावट के संबंध, संबोधन और संवेदना को समेटते हुए इनके सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश और यात्रा में अनुभव में आई घटनाओं को रोचक ढंग से कहानी के रूप में बयान किया गया है । इतना ही नहीं, गंगा के तट पर बसी मानवीय सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उनके नित्यप्रति के जीवन, जीवनशैली, पूजा-पद्धति की भिन्नताओं के एकत्व को रेखांकित किया है । तिस पर भी गंगा की इस दुर्दशा के बावजूद भारतीय जनमानस के अवचेतन में सदियों से यह विश्वास भरा है कि हिमालय में गंगोत्री से जो अमृत जल आता है, वह उनके सारे पापों को धोकर उनके चित्त को निर्मल कर देगा और पुनर्जन्म के बंधन से मोक्ष भी देगा । इसलिए देश-विदेश से करोड़ों लोग प्रदूषित पानी में भी गंगोत्री से आए एक बूंद अमृत जल की तलाश में गंगा में डुबकी लगाते रहते हैं ।
सीधी सरल भाषा में लिखी गई यह पुस्तक गंगा की लाइलाज बीमारी की ओर संकेत करते हुए कहती है कि उस जीवनदायिनी के स्वस्थ जीवन के लिए जो सदियों से बगैर कुछ कहे हमें दे रही है और हम ले रहे हैं । इतना ले रहे हैं कि जोंक की भांति हमने उसके शरीर से उसका पानी भी ले लिया है ।
लेखक : - अभय मिश्र-पंकज रामेन्दु
प्रकाशक - पेंगुइन बुक्स लि. 11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली-17
पृष्ठ - 221
मूल्य - 199 रुपए