मुझे तो लगता है मैं आज जो भी हू, उसमे मेरे बिहारी दोस्तों और सखियों का अमूल्य योगदान है।प्रत्यक्ष, परोक्ष, जाने, अनजाने। एक गांठ थी जो बनते बनते रह गयी तो एक सदा के लिए गांठ हो गयी। ईश्वर की माया स्वयं वह ही जाने, नहीं तो आईआईएमसी में एक बिहारन के ठाकुर-भूमिहार होने के सवाल का जवाब मुझे नहीं मालूम था, अब है तो फिर उसका श्रेय बिहार को ही है। अब तो मेरे ऑफिस में मुझे बिहारी ही माना जाता है, लगता है कोई पुराना कर्ज था, जो इस जन्म में उतारने का ईश्वर ने अवसर दिया है।
मन में आया सो लिख दिया, सोच कर कहा लिखा जाता है! कम से कम मुझसे तो नहीं क्योंकि न तो मैं बुद्धिजीवी की जमात में शामिल हूं और न ही लिखने की पात्रता पा सका हूं, ऐसा मेरे अपनो का ही मानना है, सो दिल्ली दूर-अस्त !
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