लखटकिया की नौकरी में अपने लोक को बचाए रखने के जद्दोजहद से पार हो तो 'लोक' को याद करें। वैसे भी छोटे परदे पर रोशनी बिखरने वालों के अपने गांव और कस्बे स्याह अँधेरे के दूर होने के लिए 'तारणहारों' के इंतज़ार में थक गए है, शायद वहाँ से अब सारे रास्ते, महानगरों की तरफ ही जा रहे हैं, वापसी की कोई राह नहीं है।
यह विडम्बना अगर मिट जाएंगी तो गरीबी बिकेगी कैसे और टीआरपी बढ़ेगी कैसे ?दुष्चक्र है, कोई महानगर के सहूलियत छोड़ कर 'घर वापसी' का तलबगार नहीं है बस उसकी याद और यादों को बतौर कच्चा माल इस्तेमाल कर रहा है, अपने लिए हर कोई।
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