दिल्ली और सिनेमा का संबंध सन् 1911 में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा जितना ही पुराना है। अंग्रेजों की राजधानी बनने के बाद नई दिल्ली में मूक फिल्मों के दौर (1913-31) में थिएटर बने, जहां पर खासतौर पर अंग्रेज दर्शकों लिए हॉलीवुड फिल्में दिखाई जाने लगी।
सन् 1925 के करीब बॉम्बे टाकीज के संस्थापक हिमांशु रॉय ने पहली बार विदेशी दर्शकों के लिए गौतम बुद्ध के जीवन पर “लाइट ऑफ एशिया” नामक फिल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने दो साल तक फिल्म के लिए जरूरी पैसों को जुटाने के प्रयास में अंग्रेज सरकार, भारतीय राजाओं से लेकर मंदिरों तक संपर्क किया पर नतीजे में कुछ हासिल नहीं हुआ।
आखिरकार दिल्ली के वकील, जज और दूसरे पेशेवरों ने फिल्म निर्माण में मदद के लिए ग्रेट ईस्टर्न फिल्म कार्पोरेशन नामक एक बैकिंग कार्पोरेशन बनाया। इस कार्पोरेशन ने जर्मनी के इमेल्का स्टुडियो के साथ मिलकर फिल्म का सह निर्माण किया। एडविन अर्नोल्ड की कविता “द लाइट ऑफ एशिया” की कविता से प्रेरित और निरंजन पाल की पटकथा वाली इस फिल्म में गौतम बुद्व की भूमिका हिमांशु रॉय ने निभाई।
वर्ष 1931 में हिंदी की पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” प्रदर्शित हुई। दिल्ली में इसका प्रदर्शन एक्सेलसियर थिएटर में हुआ। इसके साथ ही दिल्ली में सिनेमा के दर्शकों की संख्या बढ़ी तो वहीं दिल्ली उत्तर भारत में फिल्मों के एक महत्वपूर्ण वितरण केंद्र के रूप में उभरी।
भारत से मूक फिल्मों की विदाई और गानों और संवादों से युक्त श्वेत-श्याम फिल्मों की दौर के साथ अधिकतर थिएटरों ने नियमित रूप से फिल्में दिखाना शुरू कर दिया। दिल्ली में तेजी से बढ़े हॉलों को टॉकीज कहा जाता था, और कई हॉलों अपने नाम के आगे टॉकीज लगा लिया। जैसे मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज, रॉबिन टॉकीज। तब किसी भी थिएटर के नाम के आगे टाकीज होना फ़ैशनेबल और आधुनिकता की निशानी था।
सन् 1932 में हिंदी की प्रथम साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका “रंगभूमि” का प्रकाशन पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम से हुआ। इसके प्रकाशक, त्रिभुवन नारायण बहल, संपादक नोतन चंद और लेखराम थे। जबकि सन् 1934 में ऋषभचरण जैन ने दिल्ली से “चित्रपट” नामक एक फिल्म पत्र निकला। तब इसका वार्षिक चंदा सात रूपए तथा एक प्रति का मूल्य दो आने था। जैन की प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार तथा चतुरसेन शास्त्री जैसे हिंदी के प्रसिद्व कथा-लेखकों से मैत्री होने के कारण चित्रपट में अनेक प्रसिद्व लेखकों की रचनाएं छपती थीं।
भारत में बोलती फिल्मों के निर्माण में तेजी आने के साथ ही अपनी किस्मत आजमाने के इरादे से युवा कलाकार संगीत के प्रसिद्ध दिल्ली घराने के उस्तादों से सीखने के लिए राजधानी आने लगे। मुगल सल्तनत के पतन के बाद तानरस खां ने दिल्ली घराने को स्थापित किया। ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशे, तानों का निराला ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग इस घराने की विशेषताएं हैं। यह अनायास नहीं है कि मल्लिका पुखराज, फरीदा खानम और इकबाल बानो तीनों पाकिस्तानी गजल गायिकाएं दिल्ली घराने से ही संबंध रखती है।
हिंदी फिल्मों के उस दौर में संवाद उर्दू में ही होते थे तो गाने फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे। उस समय ऐतिहासिक फिल्मों की लोकप्रियता की वजह से निर्माता दिल्ली की मुगलकालीन भवनों और स्मारकों के प्रति खींचे चले आते थे। शायद इसी वजह से ऐतिहासिक दिल्ली से जुड़ी "चांदनी चौक", "नई दिल्ली", "हुमायूं", "शाहजहां", "बाबर", "रजिया सुल्तान", "मिर्जा गालिब" और "1857" के नाम से फिल्मे बनीं।
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