Saturday, December 24, 2016

Obituary_Anupam Mishra_Aaj bhi khare hai talab

अनुपम आखर वाले आख्यान की इति!



"कठोपनिषद् मेरे लिए तो बहुत ही कठोर निकला। मैं इससे मृत्यु को जान नहीं पाया। मृतकों को तब भी जाना था और आज तो उस सूची में, उस ज्ञान में वृद्धि भी होती जा रही है। फिर इतना तो पता है किसी एक छिन या दिन इस सुंदर सूची में मुझे भी शामिल हो जाना है। उस सुंदर सूची को पढ़ने के लिए तब मैं नहीं रहूंगा।"


देश के हिंदी समाज के पानी ही नहीं बल्कि भाषा की भी उतनी ही चिंता करने वाले अनुपम मिश्र के "पुरखों से संवाद" लेख की यह पंक्तियां उनके आंखों के पानी यानी जीवन दृष्टि को रेखांकित करती है। यह अनायास नहीं है कि जल जैसे नीरस विषय पर सरस भाषा में "आज भी खरे हैं तालाब" सरीखी पुस्तक लिखने वाले अनुपम का जन्म "जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख" पंक्ति लिखने वाले कवि और गांधी वांड्मय के हिंदी संस्करण के संपादक भवानी प्रसाद मिश्र के घर आंगन (वर्धा- १९४८) में हुआ।


१९६८ में दिल्ली विश्वविद्यालय से संस्कृत पढ़ने के बाद नई दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखने के साथ अपनी मृत्यु तक "गाँधी मार्ग" पत्रिका का संपादन किया। इस अनुपम जीवन यात्रा में उनका ताना-बाना और ठिकाना अपरिवर्तित रहा।
उत्तराखंड के चिपको आंदोलन पर पहली रपट लिखने वाले अनुपम की "हमारा पर्यावरण" और "राजस्थान की रजत कण बूंदे" शीर्षक वाली पुस्तकें उनके प्रकृति के प्रति ममत्व और अक्षर के प्रति प्रेम के तादात्मय का प्रतीक है। आज अनुपम की पुस्तकें जल संरक्षण के देशज ज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर हैं।


पिछले दो दशक में देश की सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से एक आज भी खरे हैं तालाब बिना कॉपीराइट वाली अकेली ऐसी पुस्तक है, जिसे इसके मूल प्रकाशक से अधिक अन्य प्रकाशकों ने अलग-अलग भारतीय भाषाओं और फ्रांसीसी में दो लाख से अधिक प्रतियों को छापा है। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक और उन्हें पत्रकारिता में लाने वाले प्रभाष जोशी के शब्दों में, अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है। सम्मान से समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्टी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है। कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है।


यह पुस्तक अनुपम के दिल्ली के महानगरीय समाज के चुकते पानी और राजधानी की समृद्व जल पंरपरा वाली विरासत के छीजने की चिंता की साक्षी भी है। अंग्रेजी राज में अनमोल पानी का मोल लगने की बात पर पुस्तक बताती है कि इधर दिल्ली के तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।


दिल्ली के समाज की यमुना नदी की साझ-संभाल और चिंता करने की बात को उजागर करती हुई पुस्तक बताती है कि घाटों पर अखाड़ों का चलन भी इसी कारण रहा होगा। सन् 1900 तक दिल्ली में यमुना के घाटों पर अखाड़े के स्वयंसेवकों का पहरा रहा करता था। इसी तरह यहां के तालाब और बावड़ियां अखाड़ों की देखरेख में साफ रखी जाती थीं। आज जहां दिल्ली विश्वविद्यालय है, वहां मलकागंज के पास कभी दीना का तालाब था। इसके अखाड़े में देश-विदेश के पहलवानों के दंगल आयोजित होते थे।


राजधानी के समाज-राज-स्त्री के अंर्तसंबंध की सामाजिक-सांस्कृतिक परिघटना भी उनकी अंतदृष्टि से ओझल नहीं होती है। वे बताते हैं कि उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सी सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली गारियों, विवाह गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां "फिरंगी नल मत लगवाय दियो" गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुंए और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित वाटर वर्क्स से पानी आने लगा।


इतना ही नहीं, किताब के अनुसार, लालकिले के लाहौरी गेट के सामने बनी लाल डिग्गी की सूचना उर्दू में लिखी सर सैयद अहमद खां की पुस्तक "आसारूस सनादीद" (सन् 1864) में है। पाठकों को यह जानकर अचरज होगा कि लाल डिग्गी तालाब एक अंग्रेज लार्ड एडिनवरो ने बनवाया था और राज करने वालों के बीच यह उन्हीं के नाम पर जाना जाता था। लेकिन दिल्ली वाले इसे लाल डिग्गी ही कहते रहे, क्योंकि 500 फीट लंबा और 150 फीट चौड़ा यह तालाब लाल पत्थरों से बना था। हर्न की सन् 1906 में प्रकाशित पुस्तक "सेवन सिटीज ऑफ़ डेली" में लाल डिग्गी का सुंदर विवरण मिलता है। दिल्ली के अन्य तालाबों, नहरों, बावड़ियों के बारे में काॅर स्टीफन की "आर्कियोलाॅजी एंड मान्यूमेंटल रीमेंस ऑफ़ डेली" (सन् 1876) और जी पेज द्वारा चार खंडों में संपादित "लिस्ट ऑफ़ मोहम्मडन एंड हिंदू मान्यूमेंट्स, डेली प्राॅविन्स " (सन् 1933) से भी बहुत मदद मिलती है।

पेड़ों को कटने से रोकने के लिए शुरू हुए "चिपको आंदोलन" से लेकर हिंदी क्षेत्र के पानी की विरासत का पुर्नपाठ और समाज को मरते तालाबों को जिलाने की संजीवनी देने का काम कोई कर सकता था तो अनुपम मिश्र। लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं तो सात आसमानों से परे गांधी मुद्रा में दो हाथ विनम्रता से जुड़े दिखेंगे।



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