Saturday, August 26, 2017

Yamuna Ghats of Dellhi_दिल्ली के यमुना घाट



वल्लभाचार्य ने यमुना की स्तुति में "यमुनाष्टक" लिखा। इस प्रसिद्ध स्तुति में एक स्थान पर कहा गया है कि "न जातु यमयातना भवति ते पयः पानतः" यानी यमुना के जल को पीने से किसी भी समय यम की यातना नहीं होती। लेकिन आज दिल्ली में इस सूर्यपुत्री की क्या स्थिति है?

एक जमाना था कि यमुना के सभी घाट कच्चे थे। रेती को ही काट-संवार कर सीढ़ियां बना दी जाती थीं और जल को स्पर्श करता हुआ एक चिकना लंबा पटरा सबसे नीचे की सीढ़ी पर बिछा होता था। साफ-स्वच्छ जल में नहाने में भी आनंद आता था। पर आज यह सब कुछ नहीं है। जमाना बदल गया है। उस दौर में दिल्ली के पहले रईस, जो धार्मिक विचार रखते थे, अपने घोड़ों-तांगों या बग्घियों में बैठकर सवेरे नियम से यमुना नहाने आते थे। उन्हीं के प्रोत्साहन और प्रेरणा से घाट धीरे-धीरे पक्के होते गए। नीली छतरी घाट, जो हिंदुओं के लिए पवित्र शमशान घाट है और अभी भी प्रयोग में है। ऐसी मान्यता है कि यमुना तट पर नीली छतरी मंदिर का निर्माण युधिष्ठिर ने कराया था।

तैराकों का स्वर्ग काशीराम का घाट, जो निगम बोध श्मशान के निकट है, काफी मशहूर था। शादीराम का घाट, पंडित तोताराम का घाट, चांदमल का घाट और ऐसे
कितने ही मशहूर घाट थे, जिनके घटवाले स्वयं भी धर्म-परायण माने जाते थे। जैसे पंडित तोताराम ही बारह महीनों सवेरे चार बजे उठते ही शंख बजाते थे। वह कटरा मशरू, दरीबा में रहते थे।

पर आज ये सब घाट वाले नहीं है-इनकी चौथी-पांचवीं पीढ़ी आज घाटों पर है और कई लोगों ने तो अपनी एवज में दूसरे पंडित बैठा दिए हैं, जिनकी स्थिति लगभग गुमाश्तों जैसी है। आधुनिक दौर में जो हाल घाटों का हुआ है कुछ वही हालत नदी की भी है। पुराणों में वर्णित नरक में बहने वाली मल-मूत्र की नदियों से यमराज की बहन यमुना की तुलना नहीं की जा सकती, पर आज यमुना में दिल्ली के नागरिक जो कुछ बहा रहे हैं, उसमें कौन स्नान करेगा?



baradari to barakhamba_delhi_बारादरी से बारहखम्बा रोड








पुराना ऐतिहासिक नगर है, दिल्ली। और 1931 में बसायी गयी नयी दिल्ली भी खासी पुरानी हो चुकी है। लेकिन इसके नीचे भूमिगत क्या-क्या खजाना यानी इतिहास दबा है, कौन जाने? आज बारहखम्बा मेट्रो स्टेशन पर आने-जाने वाले मुसाफिर इस बात से अनजान है कि 100 साल पहले तक यहां बारहखम्बा नामक एक स्मारक होता था। यह यूसुफ जाई बाजार के सामने वाली मस्जिद के करीब था। बारहखम्बा या बारादरी में 12 खम्बे या 12 मेहराबें होती हैं, दिल्ली में आज भी बस्ती निजामुद्दीन और ग्रीन पार्क में आज भी इस तरह के ढांचे देखे जा सकते हैं।


जून 1968 में बाराखम्भा रोड पर नयी दिल्ली नगर पालिका परिषद के मजदूर बाराखम्भा रोड-कनाट प्लेस चौराहे के पास खुदाई का कार्य कर रहे थे। जब खुदाई का काम तेजी पर था, तभी एक मजदूर की गैंती किसी ठोस चीज से ठकराई। इससे सतर्क होकर जब मजदूरों ने और खुदाई की तो जमीन में से एक तांबे का घड़ा मिला। यह कलश उत्तर मुगलकालीन सिक्कों से भरा था, जिसमें कुल 176 सिक्के थे, जिनमें सोने की एक मुहर और बाकी 175 चांदी की मुहरें थी। नयी दिल्ली नगर पालिका परिषद ने यह कीमती मुहरें गुप्त खजाना अधिनियम के अनुसार नेशनल म्यूजियम यानी राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया।

जब राष्ट्रीय संग्रहालय के मुद्रा विशेषज्ञों ने खजाने की खुदाई के स्थान पर ही जाकर निरीक्षण किया तो पाया कि अधिकांश सिक्के औरंगजेब के समय के थे। तो कुछ पर शाहआलम के समय की तारीखें थीं। इन सिक्कों से यह भी पता लगा कि इन्हें सूरत-आगरा की टकसालों में ढाला गया था। राष्ट्रीय संग्रहालय के विशेषज्ञों का मानना था कि यह तांबे का कलश किसी पास की
बस्ती के नागरिक ने ही दबाया होगा। क्रिस्टोफर हस्सी ने एडविन लुटियन की जीवनी में जंतर-मंतर के पास माधोगंज नाम की बस्ती होने का पता चलता है। इस बस्ती की एक तंग सड़क, जिस पर तांगे आ-जा सकते थे, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से जोड़ती थी।

ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि यह छोटी सी बस्ती बशीरूद्दीन अहमद की वर्णित एक बहुत ही सुंदर लाल पत्थर के अष्टभुजी गुम्बज के आसपास बनी होगी। अपनी किताब "वक्त-ए-दारूल-हुकूमत दिल्ली" में उसने लिखा है कि गुम्बज में एक ढलवां आंगन है और बारादरी भी। इसके सब तरफ खेत हैं। उसने लिखा है कि "उसे शेख सराय के एक बुजुर्ग आदमी ने बताया कि यह गुम्बज शेख अलाउद्दीन और शेख सलाउद्दीन के वंशज शेख फारूख ने बनवाया था। उसने तो और ज्यादा कुछ नहीं बताया, लेकिन खेतों में काम करने वाले गांव वालों के मुताबिक यह शेख मुताउल्ला का गुम्बज है। मुझे यह किसी फकीर का गुम्बज मालूम देता है। गुम्बज पर कोई मजमून नहीं खोदा गया है।"

इसी बारादरी के पास का क्षेत्र विकसित हुआ और वही बाद में बारहखम्बा कहलाया। आज वक्त के पैरों तले वह गुम्बज कुचला जा चुका है। लेकिन 49 साल पहले जो खजाना मिला था उससे पता लगता है कि शायद बाराखम्भा की बहुमंजिली इमारतों और पुरानी कोठियों के नीचे कहीं माधोगंज की पुरानी बस्ती और शेख मुताउल्ला के गुम्बज के अवशेष दबे पड़े हैं।

1919 में छपी मौलवी जफर हसन की किताब "दिल्ली के स्मारक" में भी इसकी जानकारी है। किताब के अनुसार, बारहखम्बा शायद एक मकबरा है जिसे 12 खंबों के कारण यह नाम दिया गया है, जो कि उसकी गुंबददार छत को टिकाए हुए है। हसन ने इस अफगान युगीन संरचना के बारे में लिखा है कि वर्तमान में (मई 1914) इस इमारत का उपयोग कार्यकारी इंजीनियर के दफ्तर के रूप में किया जाता है, जिसकी ठीक-मरम्मत होने के बाद सफेदी की जा चुकी है।
 

Tuesday, August 22, 2017

Delhi in Stones_“दिल्ली” नाम का राज बतलाते प्रस्तर अभिलेख



यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्य कालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में ढिल्लिका का नाम सबसे पहले राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहानों द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है।

पालम के संस्कृत अभिलेख में बलबन को नायक श्री हम्मीर गयासदीन नृपति सम्राट कहा गया है और उसकी विजयों का वर्णन अतिश्योक्ति भरी प्रशंसा के साथ किया गया है। उसकी उपाधियों में नए और पुराने का मिश्रण है। नायक तो पहले की एक उपाधि है तथा हम्मीर को अमीर का संस्कृत रूप माना गया है। पहले जैसी प्रशस्ति की परम्परा में बलबन के राज को लगभग उपमहाद्वीपव्यापी कहा गया है जो स्पष्ट रूप से अतिश्योक्ति है।

इस अभिलेख में वंशावली की परम्परागत शैली में उस व्यापारी के परिवार का खासा विस्तृत इतिहास दिया गया है। स्पष्ट है कि वह पर्याप्त धन-दौलत वाला व्यक्ति था। दूसरे स्त्रोत हमें बतलाते हैं कि मुल्तान के हिन्दू व्यापारी बलबन के अमीरों (कुलीनों) को, जब भी उनकी राजस्व वसूली में कोई कमी होती थी, कर्ज देते रहते थे। सुल्तान की पहचान पहले के कालों की निरन्तरता में दिखाया गया है तथा व्यापारी की पहचान उसके अपने इतिहास और व्यवसाय के आधार पर और सम्भवतः सुल्तान के अकथित संरक्षण के आधार पर दिखाई गई है। धर्म का एकमात्र जिक्र भी टेड़े ढंग से किया गया है, यह कहकर कि सम्भवतः बलबन के शासन के कारण, विष्णु भी शान्ति की नींद सोते हैं।

एपिग्राफिया इंडिका 26 (1841-42) के अनुसार, अशोक के स्तम्भ पर अंकित ईस्वी सन् 1163 या 1164 के एक लेख में, जो इस समय कोटला फिरोजशाह में है, विन्ध्य और हिमालय के बीच की भूमि पर विग्रहराज के आधिपत्य का उल्लेख है।
ये तो दिल्ली से बाहर मिलने वाले प्रस्तर लेख प्रमाण हैं जबकि दिल्ली में ही तेरहवीं सदी का पहला एक अभिलेख जो कि पालम गांव के एक सीढ़ीदार कुंए (बावली) से मिला है, जिसमें उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुलतान जिले में उच्छ से आए उद्धार (नामक व्यापारी) द्वारा (देहली से ठीक बाहर) पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। पंडित योगेश्वर द्वारा विक्रमी 1333 में रचित यह अभिलेख शिव और गणपति की वन्दना से आरम्भ होता है।

जहां तक पालम बावली के शिलालेख का संबंध है कुछ दशक पूर्व यह लालकिला के संग्रहालय में हुआ करता था। इतिहास के अध्ययन के हिसाब से यह शिलालेख कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। पहली बार इसमें "ढिल्ली" शब्द का उल्लेख दिल्ली के लिए हुआ है। इसके अतिरिक्त यह पहला शिलालेख है जिसमें हरियाणा क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। जबकि किसी भी समकालीन विदेशी इतिहासकार ने कभी भी दिल्ली के आपसपास के क्षेत्र का उल्लेख हरियाणा के रूप में नहीं किया है।

बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहान ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। यह अभिलेख देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है।
यह अभिलेख कहता है कि सबसे पहले तोमरों का हरियांका की भूमि पर स्वामित्व था, उसके बाद चौहानों का तथा बाद में शकों का हुआ। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि शक शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। यहां शहर का नाम ढिल्लीपुरा दिया गया है जिसका वैकल्पिक नाम योगिनीपुरा भी कहा गया है। 

योगिनीपुर पालम बावली के अभिलेख में ढिल्ली के वैकल्पिक नाम के रूप में आता है जिसमें पालम्ब गांव का भी उल्लेख है, स्पष्ट है कि यह आधुनिक पालम का नाम है। ढिल्ली और योगिनीपुर, ये दोनों नाम जैन पट्टावलियों में बार-बार आते हैं।

ऐसा लगता है कि इस अभिलेख का रचियता दिल्ली को हरियाणा मानता है। यह इस नाम का क्षेत्र के लिए आरंभिक उपयोग है। इससे पहले शायद इसका उल्लेख मिनहाज सिराज की “तबाकत ए नासिरी”, जो कि 1259-60 में पूरी हुई, में मिलता है। एक अन्य तत्कालीन कवि श्रीधर ने 1132 ईस्वी में “पार्श्वनाथ चरित्र” पुस्तक में भी ढिल्ल्किापुरी का बखान किया है। उन दिनों यह ढिल्लिका हरियाणा का ही हिस्सा था। पालम का यह संस्कृत अभिलेख यही दर्शाता है।

उपर्युक्त वर्णन जैसा वर्णन सरबन शिलालेख में भी मिलता है जिसकी तिथि 1327 ईस्वी (विक्रम संवत् 1384) अंकित है। मुहम्मद बिन तुगलक के काल का यह अभिलेख दिल्ली शहर के पांच मील दक्षिण में अवस्थित सरबन नामक गांव से मिला है। उसमें भी हरियाना देश में ढिल्लिका नगर होने का उल्लेख है। प्रायः सौ वर्ष पूर्व तक रायसीना के इस इलाके को सरबन नाम से ही जाना जाता था। यही इंद्रप्रस्थ तथा ढिल्लिका के अंतर को प्रकट करता है। 

ढिल्लिका को हरियाणा के एक नगर के रूप में वर्णित किया गया है। यह संस्कृत अभिलेख इस समय लाल किले के संग्रहालय में मौजूद है। इस अभिलेख में स्वयं इस गावं का इन्द्रप्रस्थ के जिले (प्रतिगण) में स्थित होने का उल्लेख है। इसी तरह, राजस्थान के डीडवाना के लाडनू में पाए गए 1316 ईस्वी के एक प्रसिद्ध लेख में हरीतान प्रदेश में धिल्ली नगर के होने का उल्लेख है। स्पष्ट है कि दिल्ली एक महत्वपूर्ण नगर था और शायद यह हरियाणा की राजधानी भी था। आधुनिक अंग्रेजी डेल्ही नाम दिहली या दिल्ली से निकला है, जो अभिलेखों के ढिल्ली का साम्य है। 

इस शिलालेख के अध्ययन से बलबन की छवि उसकी प्रचलित छवि से भिन्न उजागर होती है। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार बलबन बहुत ही निर्दयी और कट्टर मुस्लिम शासक था जिसने मेवात क्षेत्र के हिन्दुओं का तलवार के जोर से न केवल धर्मांतरण ही किया बल्कि उनका नरसंहार भी डटकर किया। इस लेख के लेखक ने उसे हिन्दू प्रजा का पालक भी बताया है। शायद इसका यह कारण भी हो सकता है कि जिस बनिया ने पालम गांव में उस समय मंदिर और कुंए का निर्माण किया था वह बलबन पर आश्रित हो। इसलिए शिलालेख के लेखक ने तत्कालीन शासक को प्रसन्न करने के लिए उसकी प्रशंसा की हो। 

इस लेखक से एक बात और सिद्ध होती है कि मुस्लिम शासन को दिल्ली में स्थापित हुए हालांकि दो सौ साल गुजर चुके थे मगर इसके बावजूद जनसाधारण में संस्कृत और नागरी भाषा का प्रचलन था। यह लेख संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में है। सबसे रोचक बात तो यह है कि उस समय तक राजपूतों की राजकीय मुद्रा, जो कि देहलीवाल कहलाती थी, उसका दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में प्रचलन था।

इस प्रसिद्व अभिलेख में काले पत्थर पर संस्कृत भाषा की नागरी लिपि में 31 पंक्तियां उत्कीर्ण है। यह पत्थर 19 इंच लंबा और 3‐10 इंच चौड़ा है। अब इस प्रस्तर अभिलेख के दाहिनी तरफ का ऊपरी भाग टूटा हुआ है और स्वस्ति का पहला अक्षर पवित्र उच्चारण ओम के साथ गायब है। पहली और अंतिम दूसरी पंक्तियों में अनेक शब्द अनमेल हैं। इस अभिलेख में वर्ण विन्यास की कुछ विलक्षणताएं दिखती हैं। वर्तमान अभिलेख के अंत में तीन श्लोक हैं पर उनका पाठ काफी क्षतिग्रस्त है और जैसे वे हैं, उस रूप में श्लोकों की भाषा स्पष्ट नहीं है या पहचानी नहीं जा सकती है। हालांकि इतिहासकार आर॰एल॰ मित्रा ने उसे राजपूताना हिंदी के रूप में वर्गीकृत किया है। 

पर एक अन्य इतिहासकार वोजल का मानना है कि मित्रा यह बूझने में विफल रहे हैं कि वह किस लिपि में लिखा गया है। अभिलेख का एक भाग नागरी में नहीं बल्कि शारदा लिपि में लिखा गया है। ऐसा माना जाता है कि यह लिपि (शारदा) कश्मीर और उससे सटे पंजाब के पहाड़ी जिलों में व्यापक रूप से प्रयोग में लाई जाती थी। ऐसा लगता है कि शारदा गुरूमुखी के अक्षर इस क्षेत्र में भी इस्तेमाल किए जाते थे।

“जनरल ऑफ दि एपिग्राफिक सोसाइटी ऑफ बंगाल” भाग 43 (1874) के अनुसार, 1276 ईस्वी के पालम बावली के अभिलेख में, जो गयासुद्दीन बलबन के शासन काल में लिखा गया था, नगर का नाम दिल्ली बताया गया है और जिस प्रदेश में यह स्थित है, उसे हरिनायक कहा गया है।


Saturday, August 19, 2017

Jorge Luis Borges_होर्जे लुई बोर्हेस_मौलिक साहित्य

Jorge-Luis-Borges





जो यूरोपीय साहित्य दृष्टि है, वह ईसाई यहूदी परम्परा की जीवन दृष्टि से आक्रान्त है। जब तक आप काफिर नहीं होंगे। इस दृष्टि से मुक्त नहीं होंगे जब तक आप मौलिक साहित्य नहीं लिख सकते।
-होर्जे लुई बोर्हेस 

(हिंदी वाले गलत पढ़ते हैं-जार्ज लुई बोर्खेज)

Uttarakhand in Delhi_दिल्ली में बसा पहाड़



दिल्ली एक लघु भारत है, जहां पर देश के सभी प्रांतों और जनपदों के व्यक्ति रहते हैं। देश की आजादी के बाद यहां पर पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दक्षिणी राज्यों से निवासी राजधानी में बसे। “उत्तराखंड आन्दोलन, स्मृतियों का हिमालय” पुस्तक में हरीश लखेड़ा ने गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र से निवासियों के दिल्ली आने के ऐतिहासिक कारणों पर प्रकाश डाला है। पुस्तक के अनुसार, आज दिल्ली की लगभग एक चौथाई आबादी उत्तराखंड प्रवासियों की है। वैसे तो दिल्ली के हर इलाके में उत्तराखंड के लोग मिल जाएंगे लेकिन दक्षिण और पूर्वी जिलों में इनका घनत्व कुछ ज्यादा ही है।

पुस्तक के अनुसार, दिल्ली में गढ़वाली लोगों का आना 1940 के आसपास हुआ और कुमाऊं के लोग दूसरे विश्व युद्ध के बाद बड़ी संख्या में दिल्ली आने शुरू हुए। फिर भी दिल्ली में गढ़वाल के लोगों की संख्या पहले से ही कुमाऊं के लोगों से लगभग डेढ़ गुना अधिक रही।

पुस्तक बताती है कि 1940 में गढ़वाल में दो बार जिलाधीश रहे पी मैसन दिल्ली में गृह और रक्षा मंत्रालयों में सचिव नियुक्त हुए। उन्हें गढ़वाली लोग भरोसेमंद और मेहनती लगे इसलिए उन्होंने अपने मंत्रालयों में छोटी-छोटी नौकरियों पर इन्हें लगा दिया। यही नहीं, पंचकुइयां रोड और रानी झांसी रोड के पास कुछ जमीन भी उन्हें दिलवा दी ताकि वहां वे अपने लिए कोई सामुदायिक भवन बना सके। गढ़वालियों को यह जमीन निशुल्क दी गई। बाद में गांधी जी ने एक दलित स्कूल के लिए वह जमीन ले ली और उसके एवज में पंचकुंइया रोड पर ही उन्हें दूसरा प्लाट दिलवा दिया गया, जिस पर आज बद्रीनाथ धाम गढ़वाल भवन बनकर तैयार हुआ है।

उल्लेखनीय है कि 50 के दशक के मध्य में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत ने लाल किले के पीछे के मैदान में उत्तराखण्ड के रहने वाले लोगों के लिए होली मिलन का कार्यक्रम आरंभ किया था। जिसमें भारी संख्या में पहाड़ के व्यक्ति शामिल होते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने उत्तराखंड के रहने वालों के लिए यमुना किनारे निगम बोध घाट पर पहाड़ी परंपरा के हिसाब से अंतिम संस्कार करने की व्यवस्था करवाई। आज भी पहाड़ के लोग अन्य समाजों से हटकर यमुना के किनारे अपने शवों का अंतिम संस्कार करते हैं।

वहीं प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी “आज का समाज पुस्तक” में राजधानी में पहाड़ के लोगों में हुए सांस्कृतिक अवमूल्यन और अलगाव पर लिखते है कि जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं। तो लोगों के अपने क्षेत्र और अपनी बिरादी से कट जाने तथा हर नगर, हर मोहल्ले में अनेक क्षेत्रों और बिरादरियों के लोगों के बस जाने के बाद हम अपने त्योहार, परंपरागत ढंग से मनाने की और उनका अर्थ और संदर्भ बनाए रखने की स्थिति में रह नहीं गए हैं। फिर हमारी तथाकथित आधुनिकता ने हमारे लिए त्योहारों समेत हर परंपरागत चीज को पूरी तरह से पिछड़ेपन से जोड़ दिया है।

Tuesday, August 15, 2017

Cloth of Tricolour in 1947_तिरंगे का कपड़ा



कम_जाना_तथ्य 

राजस्थान के दौसा जिले के आलूदा गाँव के भौंरीलाल महावर, चौथमल और नानगराम नाम के कारीगरों ने देश की आजादी के समय वर्ष 1947 में दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर लहराए तिरंगे का कपड़ा बुना था। 

Saturday, August 12, 2017

Delhi's Rajput currency_Dehliwal_दिल्ली की मुद्रा देहलीवाल




बारहवीं शताब्दी के मध्य में अजमेर के चौहानों से पहले तोमरों राजपूतों ने दिल्ली को अपनी पहली बार अपने राज्य की राजधानी बनाया था। तोमर वंश के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे चौहान शासकों के समय में दिल्ली राजनीतिक स्थान के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गई थी। तत्कालीन दिल्ली में राजपूत शासकों के समय में प्रचलित मुद्रा देहलीवाल कहलाती थी।
चौहानों के समय में दिल्ली राजनीति के अलावा एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र भी थी। 1192 में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहानों के शासन की समाप्ति के बाद भी दिल्ली सल्तनत काल में देहलीवाल मुद्रा का प्रचलन रहा।

ऐसे में, बैल और घुड़सवार के सिक्कों का उत्पादन तो जारी रहा पर उनसे राजपूत वीरों की आकृति को हटाकर उनके स्थान पर संस्कृत में उरी हउमीरा (अमीर या सेनापति) और देवनागरी लिपि में उरी-महामदा के साथ बदल दिया गया।

कुतुब मीनार परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। 


मुहम्मद गौरी की मौत तक आम जनता का लेन-देन देहलीवाल में ही होता थी। इस मुद्रा का भार 32 रत्ती था। गौरी ने हिंदू जनता में स्वीकार्यता के लिए अपने सोने के सिक्के पर लक्ष्मी को अपनाया। जबकि दिल्ली सल्तनत के दूसरे सुल्तानों की ओर से जारी देहलीवाल सिक्कों में एक तरफ घुड़सवार और बैल के साथ नागरी अक्षरों में शाही नाम खुदा था। ये सिक्के चांदी-तांबे की मिश्रित धातु के थे, जिनका वजन 56 सेर था।

इस तरह दिल्ली के अलग अलग शासनों में दिल्ली टकसाल की हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया। गुलाम वंश में भी बैल-और-घुड़सवार वाले देहलीवाल सिक्कों का उत्पादन और सिक्कों के रूप में उनका प्रयोग जारी रहा। इतना ही नहीं, 1192-1216 तक इन सिक्कों का निर्यात पंजाब और अफगानिस्तान तक होता रहा। इन छोटे सिक्कों की एक ओर शिव का बैल (नंदी) और दूसरी ओर राजपूत घुड़सवार होता था और लंबाई में राजा का नाम नागरी लिपि में या अरबी की कुफिक शैली में लिखा होता था।

दिल्ली सल्तनत में चांदी और तांबे के सिक्कों पर आधारित मुद्रा प्रणाली ही बनी रही, जिसमें चांदी के टका और देहलीवाल का प्रभुत्व था। इसके साथ ही, तांबे का जीतल का भी प्रचलन था। जीतल पुरानी हिंदू देहलीवाल मुद्रा का ही एक विस्तार था जो कि देहलीवाल से अधिक लोकप्रिय तो था पर उसका दायरा एक हद तक शहर तक ही सीमित था।



Delhi Villages and Independence Movement_अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़ा था दिल्ली देहात



दिल्ली देहात ने अंग्रेजी राज के खिलाफ अपना बिगुल तो आजादी की पहली लड़ाई (1857) में ही फूंक दिया था पर राजधानी पर अंग्रेजों के दोबारा कब्जे के कारण वह प्रयास आधा अधूरा दब गया तिस पर भी भीतर आजादी की चिंगारी सुलगती रही। पहले विश्व युद्व के बाद देश में आई राजनीतिक जागरूकता से दिल्ली भी अछूती नहीं रही। दिसम्बर 1918 में राजधानी में पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में देहात से 800 व्यक्तियों ने हिस्सा लिया और दिल्ली के प्रत्येक गांव में कांग्रेस की एक समिति बनाने की बात तय हुई।


दिल्ली देहात ने केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि क्रांतिकारियों का भी पूरा साथ दिया। तब यह ग्रामीण इलाका हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (सेना) के क्रांतिकारियों के छिपने की एक प्रमुख आश्रय स्थली था और कुछ क्रांतिकारियों के गुप्त अड्डे हिंडन नदी तक थे। अंग्रेज सरकार से यह बात छिपी नहीं थी और इसी कारण 1915 में दिल्ली के यमुना पार के शाहदरा परगना और गाजियाबाद तहसील के कुछ गांव दिल्ली में मिला दिए।


1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन पर एक प्रस्ताव पारित होने के बाद दिल्ली देहात में "कर नहीं देने" (नो टैक्स) के अभियान ने जोर पकड़ा । दिल्ली देहात में कांग्रेस ने निवासियों को "कर नहीं देने" और अंग्रेजों से असहयोग करने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए 20 स्वयंसेवकों के समूह ने महरौली से अपना अभियान शुरू करते हुए सुल्तानपुर, छतरपुर, नायडू, गढ़ी, देवली, खानपुर, मदनगीर और सैदुल अजाब गांवों का दौरा किया। इस समूह ने लाडो सराय गांव सहित हौजखास, अधचीनी और बेगमपुर गांवों
में सफल सभाएं की, जिसमें बड़े स्तर पर ग्रामीण जनभागीदारी थी। 1930 में कांग्रेसी गतिविधियों के केंद्र बने पश्चिमी दिल्ली के कराला गांव में शीशराम राम के घर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति की शाखा खोली गई।


16 जुलाई 1930 को नायर सहित छह कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके ग्यारह महीने की कैद की सजा सुनाई गई। जब देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन छिड़ा तो दिल्ली देहात में उसकी कमान कृष्णा नायर के हाथ में थी। वे नरेला सहित करीबी गांवों में कर नहीं देने का सफल अभियान चला चुके थे। अंग्रेज सरकार ने दिल्ली देहात में कर नहीं देने के अभियान पर रोक लगाने के लिए एक विशेष अध्यादेश पारित किया तो पुलिस ने इन सभाओं में भाग लेने वालोें को गिरफ्तार करने लगी।


जून 1931 में नरेला में हुई बैठक में 750 ग्रामीण शामिल हुए जिसमें सरकारी लगान के अधिक होने और उसमें छूट देने की मांग रखी गई। इसी का नतीजा था कि 1931 में केवल 20 प्रतिशत राजस्व ही जुटा। दिल्ली में महात्मा गांधी की अनुमति लेने के बाद 1931 में नरेला श्री गांधी सेवा आश्रम बना, जिसके लिए गांव वालों ने 17 बीघा जमीन दान दी। इसके प्रभारी कृष्णा नायर थे जबकि बृजकृष्ण चांदीवाला ने भी आश्रम के लिए मदद की । 1931 में महरौली में रामतल में एक और आश्रम बना। इस तरह आजादी की लड़ाई में दिल्ली के गांवों का योगदान अतुलनीय रहा ।


Saturday, August 5, 2017

Delhi_a british cantonment_1857_जब अंग्रेज सेना छावनी बनी दिल्ली



1857 की देश की पहली आजादी की लड़ाई में भारतीयों को हराने के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया। 

अंग्रेजों ने उसके तीन साल बाद तक राजधानी की ईंट से ईंट बजा दी और समूची दिल्ली ही मानो एक छावनी में बदल गई। तब दिल्ली पर अपने कब्जे को बनाए रखने के हिसाब से अंग्रेज सेना ने दिल्ली में नई सैनिक छावनियां बनाने के लिए पांच गांवों तिमारपुर (वजीराबाद), राजपुर, धुक्का, मुलकपुर और चंद्रावल की जमीनों को अपने दखल में ले लिया। 

नए छावनी क्षेत्र में 2571 बीघा और 10 बिस्वा जमीन का अधिग्रहण किया गया। इन दखल की जमीनों का गांववालों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया और भूमि से उनका स्वामित्व समाप्त हो गया। जबकि पुरानी छावनी को राइफल रेंज और सैनिकों के लिए डेरा डालने के हिसाब से मैदान के लिए चिन्हित करके छोड़ दी गई। 

अंग्रेज सेना के लिए नया छावनी क्षेत्र अधिक उपयुक्त था क्योंकि यह पानी के स्त्रोत यानी नजफगढ़ से आने वाले एक गहरे नाले से कुछ मील की दूरी पर ही था। इस नाले से छावनी को एक ओट मिली हुई थी जबकि इस छावनी की भौगोलिक और सामरिक स्थिति ऐसी थी कि यहां से शहर पर आसानी से नियंत्रण रखा जा सकता था। 

इस छावनी की बाईं तरफ खैबर पास के पास अंग्रेज सेना और उसके सैनिकों की रोजमर्रा की जरूरत के सामान की खरीद फरोख्त के हिसाब से सदर बाजार स्थापित किया गया। अब तक अंग्रेज भारत की एक प्रमुख शक्ति बन चुके थे और समूचे उत्तरी भारत कोई भी भारतीय ताकत उन्हें में चुनौती देने की स्थिति में नहीं रह गई थी। 

दिल्ली के पुराने शहर शाहजहांनाबाद में भारतीय ही रहते थे जबकि शुरू में भी अंग्रेजों की काॅलोनी भारतीय बसावट से बिलकुल अलग थी। वैसे बाद में कुछ भारतीय भी, जो कि ब्रिटिश राज के वफादार थे, सिविल लाइन के पास रहने लगे। अंग्रेजों को इससे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि पुराने बाजार और महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र शाहजहांनाबाद में ही स्थित थे।


Palam Bawali inscription_पालम बावली अभिलेख




पालम बावली अभिलेख दिल्ली के नाम से संबंधित सबसे प्राचीन अभिलेख है जो कि न केवल यहां के इतिहास बल्कि भूगोल पर भी प्रकाश डालता है। यह अभिलेख दक्षिण पश्चिमी दिल्ली में स्थित पालम गांव (जो कि अब इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के कारण प्रसिद्ध है) के एक कुंए में लगा मिला था। जिसे की अब दिल्ली के पुराना किले में पुरातत्व संग्रहालय में संरक्षित करके रखा गया है।


अगर इस अभिलेख की भाषा की बात कहे तो इसमें काले पत्थर पर संस्कृत भाषा की नागरी लिपि में 31 पंक्तियां उत्कीर्ण है। यह पत्थर 19 इंच लंबा और 3‐10 इंच चौड़ा है। अब इस प्रस्तर अभिलेख के दाहिनी तरफ का ऊपरी भाग टूटा हुआ है और स्वस्ति का पहला अक्षर पवित्र उच्चारण ओम के साथ गायब है। पहली और अंतिम दूसरी पंक्तियों में अनेक शब्द अनमेल हैं। हां! अंतिम भाग में एक स्थानीय भाषा है जो हरियाणा में बोली जाती थी।

संस्कृत में और स्थानीय भाषा में भी दिल्ली को "ढिल्ली" लिखा गया है। इससे शहर दिल्ली के आरम्भिक नाम पर कुछ प्रकाश पड़ता है। ऐसा लगता है कि इस अभिलेख का रचियता दिल्ली को हरियाणा मानता है। यह इस नाम का क्षेत्र के लिए आरंभिक उपयोग है। उन दिनों यह ढिल्लिका हरियाणा का ही हिस्सा था। इस अभिलेख का आरंभ गणपति और शिव की वंदना से होता है जो कि पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है।

इस पर सवंत् 1337 विक्रमी (तद्नुसार सन् 1280-81 ईस्वी) खुदा हुआ है, जबकि दिल्ली के सिंहासन पर सुलतान गयासुद्दीन बलबन बैठा शासन कर रहा था। फिर वह देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है। इस शिलालेख की भाषा में तोमर तथा बाद के शाक्य राजाओं "साहावादीना" (शाहबुद्दीन) "खुदुवादीना" (कुतुबुद्दीन) और "असामासादीना" (शम्सुद्दीन) का वर्णन है। 


बलबन को नायक श्री हम्मीर गयासुद्दीन नृपति सम्राट कहा गया है और उसकी विजयों का वर्णन अतिश्योक्ति भरी प्रशंसा के साथ किया गया है। उसकी उपाधियों में नए और पुराने का मिश्रण है। नायक तो पहले की एक उपाधि है तथा हम्मीर को "अमीर: का संस्कृत रूप माना गया है।

फिर उसके बाद वंशावली की परम्परागत शैली में उस व्यापारी के परिवार का खासा विस्तृत इतिहास दिया गया है। स्पष्ट है कि वह पर्याप्त धन-दौलत वाला व्यक्ति था। दूसरे स्त्रोत हमें बतलाते हैं कि मुल्तान के हिन्दू सौदागर बलबन के अमीरों (कुलीनों) को, जब भी उनकी राजस्व वसूली में कोई कमी होती थी, कर्ज देते रहते थे। सुल्तान की पहचान पहले के कालों की निरन्तरता में दिखाया गया है तथा व्यापारी की पहचान उसके अपने इतिहास और व्यवसाय के आधार पर और सम्भवतः सुल्तान के अकथित संरक्षण के आधार पर दिखाई गई है। धर्म का एकमात्र जिक्र भी टेड़े ढंग से किया गया है-यह कहकर कि सम्भवतः बलबन के शासन के कारण, विष्णु भी शान्ति की नींद सोते हैं।


Tuesday, August 1, 2017

कलकत्ता से नयी दिल्ली "राजधानी" का सफर_Transfer of British Capital from Calcutta to Delhi


इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि ब्रिटिश शासन की एक बड़ी अवधि तक दिल्ली नहीं बल्कि कलकत्ता भारत की राजधानी थी। तीसरा दिल्ली दरबार दिसंबर 1911 में सम्राट जॉर्ज पंचम के संरक्षण में दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट किंग्सवे कैंप में आयोजित किया गया। इसी दरबार में सम्राट ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के अपने निर्णय की घोषणा की।

प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक “दिल्ली सरकार की शक्तियां और सीमाएं (तथ्य और भ्रम)” में एस के शर्मा लिखते हैं कि राजधानी के स्थानांतरण की अचानक घोषणा को अनेक लोगों ने “भारत के इतिहास की सबसे गुप्त घटना” कहा। घोषणा की विषयवस्तु के बारे में इंग्लैंड और भारत में केवल कुछ ही लोगों को पहले से मालूम था। भारत में शाही परिवार के आगमन से पूर्व इंग्लैंड की महारानी से भी इस परियोजना का खुलासा नहीं किया गया था।

राबर्ट ग्रांट इर्विंग अपनी पुस्तक “इंडियन समर” में लिखते हैं, "सम्राट के शब्द उष्णकटिबंधीय सूर्य की भांति मानसून के वर्षा बादलों के बीच से दिल्ली के ऊपर गर्जना किए। आधी सदी से भी अधिक तक प्रांतीय दर्जा प्राप्त यह नगर एक ही झटके में उपमहाद्वीप की राजधानी बन गया।"

15 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में किंग्सवे कैंप के समीप कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के द्वारा नई दिल्ली का शिलान्यास किया गया। राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा के एक महीने के अंदर ही नयी राजधानी के निर्माण हेतु आर्किटैक्ट्स की एक कमेटी नियुक्त कर दी गई, जिसके सभापति जी एस सी स्बिंटन और सदस्य जॉन ब्रांडी तथा एडवर्ड लुटियंस थे। बाद में सर हर्बर्ट बेकर भी 1913 में लुटियंस से जुड़ गए।

दिसंबर, 1911 में दिल्ली में राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा करते हुए अंग्रेज सम्राट ने कहा कि हम अपनी जनता को सहर्ष घोषणा करते हैं कि कौंसिल में हमारे गर्वनर जनरल से विचार विमर्श के बाद की गयी हमारे मंत्रियों की सलाह से हमने भारत की राजधानी को कलकत्ता से प्राचीन राजधानी दिल्ली ले जाने का फैसला किया है।

12 दिसम्बर, 1911 के भव्य दरबार के लिए क्वीन मेरी के साथ जार्ज पंचम भारत आये तो उन्होंने तमाम बातों के साथ देश की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली लाने की घोषणा की और यहीं दरबार स्थल के पास ही पत्थर रखकर जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने नये शहर का श्रीगणेश भी कर दिया। उस वक़्त के वायसराय लार्ड हार्डिंग की पूरी कोशिश थी कि यह योजना उनके कार्यकाल में ही पूरी हो जाए। सबसे पहले जरूरत माकूल जगह का चुनाव था। उन दिनों यह व्यापक विश्वास था कि यमुना का किनारा मच्छरों से भरा हुआ था और यह अंग्रेजों के स्वास्थ्य के लिहाज से स्वास्थ्यप्रद न होगा।

समुचित स्थान की खोज में दिल्ली के विभिन्न भागों के चप्पे-चप्पे की यात्रा के पश्चात समिति के सदस्यों में सरकार के आसन के लिए चुने जाने हेतु सदस्यों के बीच लंबी चर्चा और परामर्श भी हुआ। समिति अंततः शाहजहां के नगर के दक्षिण में एक स्थल पर सहमत हुई। 9 जून को लुटियंस ने घोषणा की कि स्थान का अंतिम रूप से चयन हो चुका है-दिल्ली के दक्षिण में, मालचा के समीप। यह प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त था-पहलू, ऊंचाई, पानी, स्वास्थ्य, मूलावस्था में जमीन और यह उल्लेख करने की जरूरत नहीं पूरी पुरानी दिल्ली का अद्भुत दृश्य, नष्ट मकबरों का उजाड़ क्षेत्र जो सात पुरानी दिल्लियों का अवशेष हैं। इसी तरह, किंग्सवे कैंप वाले स्थल के छोटा होने तथा गंदगी भरे पुराने शहर के ज्यादा करीब होने की वजह से नामंजूर कर दिया गया।

इस सिलसिले में समतल और चौरस जमीन से घिरी गयी रायसीना पहाड़ी इसके लिए आदर्श साबित हुई। पुराने किले के निकट होने के कारण उसने ब्रिटिश के पूर्ववर्ती साम्राज्य के बीच एक प्रतीकात्मक सम्बन्ध भी मुहैया करा दिया, जिसकी निर्माताओं को गहरी अपेक्षा थी। 

इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक तो पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी का निर्माण किया जाना था। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया। मुख्य भवन पुराना सचिवालय पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। इसी में 1914 से 1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें कीं और काम किया।

सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। राजधानी के निर्माण का कार्य पूरा होने के साथ, नई दिल्ली का औपचारिक रूप से उद्घाटन 1931 को हुआ। 1927 में संसद भवन का निर्माण के पूरा होने पर सेंट्रल असेंबली की बैठकें पुराना सचिवालय के स्थान पर संसद भवन में होनी प्रारंभ हो गई थीं।

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

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