यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्य कालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में ढिल्लिका का नाम सबसे पहले राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहानों द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है।
पालम के संस्कृत अभिलेख में बलबन को नायक श्री हम्मीर गयासदीन नृपति सम्राट कहा गया है और उसकी विजयों का वर्णन अतिश्योक्ति भरी प्रशंसा के साथ किया गया है। उसकी उपाधियों में नए और पुराने का मिश्रण है। नायक तो पहले की एक उपाधि है तथा हम्मीर को अमीर का संस्कृत रूप माना गया है। पहले जैसी प्रशस्ति की परम्परा में बलबन के राज को लगभग उपमहाद्वीपव्यापी कहा गया है जो स्पष्ट रूप से अतिश्योक्ति है।
इस अभिलेख में वंशावली की परम्परागत शैली में उस व्यापारी के परिवार का खासा विस्तृत इतिहास दिया गया है। स्पष्ट है कि वह पर्याप्त धन-दौलत वाला व्यक्ति था। दूसरे स्त्रोत हमें बतलाते हैं कि मुल्तान के हिन्दू व्यापारी बलबन के अमीरों (कुलीनों) को, जब भी उनकी राजस्व वसूली में कोई कमी होती थी, कर्ज देते रहते थे। सुल्तान की पहचान पहले के कालों की निरन्तरता में दिखाया गया है तथा व्यापारी की पहचान उसके अपने इतिहास और व्यवसाय के आधार पर और सम्भवतः सुल्तान के अकथित संरक्षण के आधार पर दिखाई गई है। धर्म का एकमात्र जिक्र भी टेड़े ढंग से किया गया है, यह कहकर कि सम्भवतः बलबन के शासन के कारण, विष्णु भी शान्ति की नींद सोते हैं।
एपिग्राफिया इंडिका 26 (1841-42) के अनुसार, अशोक के स्तम्भ पर अंकित ईस्वी सन् 1163 या 1164 के एक लेख में, जो इस समय कोटला फिरोजशाह में है, विन्ध्य और हिमालय के बीच की भूमि पर विग्रहराज के आधिपत्य का उल्लेख है।
ये तो दिल्ली से बाहर मिलने वाले प्रस्तर लेख प्रमाण हैं जबकि दिल्ली में ही तेरहवीं सदी का पहला एक अभिलेख जो कि पालम गांव के एक सीढ़ीदार कुंए (बावली) से मिला है, जिसमें उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुलतान जिले में उच्छ से आए उद्धार (नामक व्यापारी) द्वारा (देहली से ठीक बाहर) पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। पंडित योगेश्वर द्वारा विक्रमी 1333 में रचित यह अभिलेख शिव और गणपति की वन्दना से आरम्भ होता है।
जहां तक पालम बावली के शिलालेख का संबंध है कुछ दशक पूर्व यह लालकिला के संग्रहालय में हुआ करता था। इतिहास के अध्ययन के हिसाब से यह शिलालेख कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। पहली बार इसमें "ढिल्ली" शब्द का उल्लेख दिल्ली के लिए हुआ है। इसके अतिरिक्त यह पहला शिलालेख है जिसमें हरियाणा क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। जबकि किसी भी समकालीन विदेशी इतिहासकार ने कभी भी दिल्ली के आपसपास के क्षेत्र का उल्लेख हरियाणा के रूप में नहीं किया है।
बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहान ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। यह अभिलेख देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है।
यह अभिलेख कहता है कि सबसे पहले तोमरों का हरियांका की भूमि पर स्वामित्व था, उसके बाद चौहानों का तथा बाद में शकों का हुआ। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि शक शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। यहां शहर का नाम ढिल्लीपुरा दिया गया है जिसका वैकल्पिक नाम योगिनीपुरा भी कहा गया है।
योगिनीपुर पालम बावली के अभिलेख में ढिल्ली के वैकल्पिक नाम के रूप में आता है जिसमें पालम्ब गांव का भी उल्लेख है, स्पष्ट है कि यह आधुनिक पालम का नाम है। ढिल्ली और योगिनीपुर, ये दोनों नाम जैन पट्टावलियों में बार-बार आते हैं।
ऐसा लगता है कि इस अभिलेख का रचियता दिल्ली को हरियाणा मानता है। यह इस नाम का क्षेत्र के लिए आरंभिक उपयोग है। इससे पहले शायद इसका उल्लेख मिनहाज सिराज की “तबाकत ए नासिरी”, जो कि 1259-60 में पूरी हुई, में मिलता है। एक अन्य तत्कालीन कवि श्रीधर ने 1132 ईस्वी में “पार्श्वनाथ चरित्र” पुस्तक में भी ढिल्ल्किापुरी का बखान किया है। उन दिनों यह ढिल्लिका हरियाणा का ही हिस्सा था। पालम का यह संस्कृत अभिलेख यही दर्शाता है।
उपर्युक्त वर्णन जैसा वर्णन सरबन शिलालेख में भी मिलता है जिसकी तिथि 1327 ईस्वी (विक्रम संवत् 1384) अंकित है। मुहम्मद बिन तुगलक के काल का यह अभिलेख दिल्ली शहर के पांच मील दक्षिण में अवस्थित सरबन नामक गांव से मिला है। उसमें भी हरियाना देश में ढिल्लिका नगर होने का उल्लेख है। प्रायः सौ वर्ष पूर्व तक रायसीना के इस इलाके को सरबन नाम से ही जाना जाता था। यही इंद्रप्रस्थ तथा ढिल्लिका के अंतर को प्रकट करता है।
ढिल्लिका को हरियाणा के एक नगर के रूप में वर्णित किया गया है। यह संस्कृत अभिलेख इस समय लाल किले के संग्रहालय में मौजूद है। इस अभिलेख में स्वयं इस गावं का इन्द्रप्रस्थ के जिले (प्रतिगण) में स्थित होने का उल्लेख है। इसी तरह, राजस्थान के डीडवाना के लाडनू में पाए गए 1316 ईस्वी के एक प्रसिद्ध लेख में हरीतान प्रदेश में धिल्ली नगर के होने का उल्लेख है। स्पष्ट है कि दिल्ली एक महत्वपूर्ण नगर था और शायद यह हरियाणा की राजधानी भी था। आधुनिक अंग्रेजी डेल्ही नाम दिहली या दिल्ली से निकला है, जो अभिलेखों के ढिल्ली का साम्य है।
इस शिलालेख के अध्ययन से बलबन की छवि उसकी प्रचलित छवि से भिन्न उजागर होती है। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार बलबन बहुत ही निर्दयी और कट्टर मुस्लिम शासक था जिसने मेवात क्षेत्र के हिन्दुओं का तलवार के जोर से न केवल धर्मांतरण ही किया बल्कि उनका नरसंहार भी डटकर किया। इस लेख के लेखक ने उसे हिन्दू प्रजा का पालक भी बताया है। शायद इसका यह कारण भी हो सकता है कि जिस बनिया ने पालम गांव में उस समय मंदिर और कुंए का निर्माण किया था वह बलबन पर आश्रित हो। इसलिए शिलालेख के लेखक ने तत्कालीन शासक को प्रसन्न करने के लिए उसकी प्रशंसा की हो।
इस लेखक से एक बात और सिद्ध होती है कि मुस्लिम शासन को दिल्ली में स्थापित हुए हालांकि दो सौ साल गुजर चुके थे मगर इसके बावजूद जनसाधारण में संस्कृत और नागरी भाषा का प्रचलन था। यह लेख संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में है। सबसे रोचक बात तो यह है कि उस समय तक राजपूतों की राजकीय मुद्रा, जो कि देहलीवाल कहलाती थी, उसका दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में प्रचलन था।
इस प्रसिद्व अभिलेख में काले पत्थर पर संस्कृत भाषा की नागरी लिपि में 31 पंक्तियां उत्कीर्ण है। यह पत्थर 19 इंच लंबा और 3‐10 इंच चौड़ा है। अब इस प्रस्तर अभिलेख के दाहिनी तरफ का ऊपरी भाग टूटा हुआ है और स्वस्ति का पहला अक्षर पवित्र उच्चारण ओम के साथ गायब है। पहली और अंतिम दूसरी पंक्तियों में अनेक शब्द अनमेल हैं। इस अभिलेख में वर्ण विन्यास की कुछ विलक्षणताएं दिखती हैं। वर्तमान अभिलेख के अंत में तीन श्लोक हैं पर उनका पाठ काफी क्षतिग्रस्त है और जैसे वे हैं, उस रूप में श्लोकों की भाषा स्पष्ट नहीं है या पहचानी नहीं जा सकती है। हालांकि इतिहासकार आर॰एल॰ मित्रा ने उसे राजपूताना हिंदी के रूप में वर्गीकृत किया है।
पर एक अन्य इतिहासकार वोजल का मानना है कि मित्रा यह बूझने में विफल रहे हैं कि वह किस लिपि में लिखा गया है। अभिलेख का एक भाग नागरी में नहीं बल्कि शारदा लिपि में लिखा गया है। ऐसा माना जाता है कि यह लिपि (शारदा) कश्मीर और उससे सटे पंजाब के पहाड़ी जिलों में व्यापक रूप से प्रयोग में लाई जाती थी। ऐसा लगता है कि शारदा गुरूमुखी के अक्षर इस क्षेत्र में भी इस्तेमाल किए जाते थे।
“जनरल ऑफ दि एपिग्राफिक सोसाइटी ऑफ बंगाल” भाग 43 (1874) के अनुसार, 1276 ईस्वी के पालम बावली के अभिलेख में, जो गयासुद्दीन बलबन के शासन काल में लिखा गया था, नगर का नाम दिल्ली बताया गया है और जिस प्रदेश में यह स्थित है, उसे हरिनायक कहा गया है।
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