Saturday, August 26, 2017

baradari to barakhamba_delhi_बारादरी से बारहखम्बा रोड








पुराना ऐतिहासिक नगर है, दिल्ली। और 1931 में बसायी गयी नयी दिल्ली भी खासी पुरानी हो चुकी है। लेकिन इसके नीचे भूमिगत क्या-क्या खजाना यानी इतिहास दबा है, कौन जाने? आज बारहखम्बा मेट्रो स्टेशन पर आने-जाने वाले मुसाफिर इस बात से अनजान है कि 100 साल पहले तक यहां बारहखम्बा नामक एक स्मारक होता था। यह यूसुफ जाई बाजार के सामने वाली मस्जिद के करीब था। बारहखम्बा या बारादरी में 12 खम्बे या 12 मेहराबें होती हैं, दिल्ली में आज भी बस्ती निजामुद्दीन और ग्रीन पार्क में आज भी इस तरह के ढांचे देखे जा सकते हैं।


जून 1968 में बाराखम्भा रोड पर नयी दिल्ली नगर पालिका परिषद के मजदूर बाराखम्भा रोड-कनाट प्लेस चौराहे के पास खुदाई का कार्य कर रहे थे। जब खुदाई का काम तेजी पर था, तभी एक मजदूर की गैंती किसी ठोस चीज से ठकराई। इससे सतर्क होकर जब मजदूरों ने और खुदाई की तो जमीन में से एक तांबे का घड़ा मिला। यह कलश उत्तर मुगलकालीन सिक्कों से भरा था, जिसमें कुल 176 सिक्के थे, जिनमें सोने की एक मुहर और बाकी 175 चांदी की मुहरें थी। नयी दिल्ली नगर पालिका परिषद ने यह कीमती मुहरें गुप्त खजाना अधिनियम के अनुसार नेशनल म्यूजियम यानी राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया।

जब राष्ट्रीय संग्रहालय के मुद्रा विशेषज्ञों ने खजाने की खुदाई के स्थान पर ही जाकर निरीक्षण किया तो पाया कि अधिकांश सिक्के औरंगजेब के समय के थे। तो कुछ पर शाहआलम के समय की तारीखें थीं। इन सिक्कों से यह भी पता लगा कि इन्हें सूरत-आगरा की टकसालों में ढाला गया था। राष्ट्रीय संग्रहालय के विशेषज्ञों का मानना था कि यह तांबे का कलश किसी पास की
बस्ती के नागरिक ने ही दबाया होगा। क्रिस्टोफर हस्सी ने एडविन लुटियन की जीवनी में जंतर-मंतर के पास माधोगंज नाम की बस्ती होने का पता चलता है। इस बस्ती की एक तंग सड़क, जिस पर तांगे आ-जा सकते थे, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह से जोड़ती थी।

ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि यह छोटी सी बस्ती बशीरूद्दीन अहमद की वर्णित एक बहुत ही सुंदर लाल पत्थर के अष्टभुजी गुम्बज के आसपास बनी होगी। अपनी किताब "वक्त-ए-दारूल-हुकूमत दिल्ली" में उसने लिखा है कि गुम्बज में एक ढलवां आंगन है और बारादरी भी। इसके सब तरफ खेत हैं। उसने लिखा है कि "उसे शेख सराय के एक बुजुर्ग आदमी ने बताया कि यह गुम्बज शेख अलाउद्दीन और शेख सलाउद्दीन के वंशज शेख फारूख ने बनवाया था। उसने तो और ज्यादा कुछ नहीं बताया, लेकिन खेतों में काम करने वाले गांव वालों के मुताबिक यह शेख मुताउल्ला का गुम्बज है। मुझे यह किसी फकीर का गुम्बज मालूम देता है। गुम्बज पर कोई मजमून नहीं खोदा गया है।"

इसी बारादरी के पास का क्षेत्र विकसित हुआ और वही बाद में बारहखम्बा कहलाया। आज वक्त के पैरों तले वह गुम्बज कुचला जा चुका है। लेकिन 49 साल पहले जो खजाना मिला था उससे पता लगता है कि शायद बाराखम्भा की बहुमंजिली इमारतों और पुरानी कोठियों के नीचे कहीं माधोगंज की पुरानी बस्ती और शेख मुताउल्ला के गुम्बज के अवशेष दबे पड़े हैं।

1919 में छपी मौलवी जफर हसन की किताब "दिल्ली के स्मारक" में भी इसकी जानकारी है। किताब के अनुसार, बारहखम्बा शायद एक मकबरा है जिसे 12 खंबों के कारण यह नाम दिया गया है, जो कि उसकी गुंबददार छत को टिकाए हुए है। हसन ने इस अफगान युगीन संरचना के बारे में लिखा है कि वर्तमान में (मई 1914) इस इमारत का उपयोग कार्यकारी इंजीनियर के दफ्तर के रूप में किया जाता है, जिसकी ठीक-मरम्मत होने के बाद सफेदी की जा चुकी है।
 

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