Saturday, August 12, 2017

Delhi's Rajput currency_Dehliwal_दिल्ली की मुद्रा देहलीवाल




बारहवीं शताब्दी के मध्य में अजमेर के चौहानों से पहले तोमरों राजपूतों ने दिल्ली को अपनी पहली बार अपने राज्य की राजधानी बनाया था। तोमर वंश के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे चौहान शासकों के समय में दिल्ली राजनीतिक स्थान के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गई थी। तत्कालीन दिल्ली में राजपूत शासकों के समय में प्रचलित मुद्रा देहलीवाल कहलाती थी।
चौहानों के समय में दिल्ली राजनीति के अलावा एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र भी थी। 1192 में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहानों के शासन की समाप्ति के बाद भी दिल्ली सल्तनत काल में देहलीवाल मुद्रा का प्रचलन रहा।

ऐसे में, बैल और घुड़सवार के सिक्कों का उत्पादन तो जारी रहा पर उनसे राजपूत वीरों की आकृति को हटाकर उनके स्थान पर संस्कृत में उरी हउमीरा (अमीर या सेनापति) और देवनागरी लिपि में उरी-महामदा के साथ बदल दिया गया।

कुतुब मीनार परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। 


मुहम्मद गौरी की मौत तक आम जनता का लेन-देन देहलीवाल में ही होता थी। इस मुद्रा का भार 32 रत्ती था। गौरी ने हिंदू जनता में स्वीकार्यता के लिए अपने सोने के सिक्के पर लक्ष्मी को अपनाया। जबकि दिल्ली सल्तनत के दूसरे सुल्तानों की ओर से जारी देहलीवाल सिक्कों में एक तरफ घुड़सवार और बैल के साथ नागरी अक्षरों में शाही नाम खुदा था। ये सिक्के चांदी-तांबे की मिश्रित धातु के थे, जिनका वजन 56 सेर था।

इस तरह दिल्ली के अलग अलग शासनों में दिल्ली टकसाल की हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया। गुलाम वंश में भी बैल-और-घुड़सवार वाले देहलीवाल सिक्कों का उत्पादन और सिक्कों के रूप में उनका प्रयोग जारी रहा। इतना ही नहीं, 1192-1216 तक इन सिक्कों का निर्यात पंजाब और अफगानिस्तान तक होता रहा। इन छोटे सिक्कों की एक ओर शिव का बैल (नंदी) और दूसरी ओर राजपूत घुड़सवार होता था और लंबाई में राजा का नाम नागरी लिपि में या अरबी की कुफिक शैली में लिखा होता था।

दिल्ली सल्तनत में चांदी और तांबे के सिक्कों पर आधारित मुद्रा प्रणाली ही बनी रही, जिसमें चांदी के टका और देहलीवाल का प्रभुत्व था। इसके साथ ही, तांबे का जीतल का भी प्रचलन था। जीतल पुरानी हिंदू देहलीवाल मुद्रा का ही एक विस्तार था जो कि देहलीवाल से अधिक लोकप्रिय तो था पर उसका दायरा एक हद तक शहर तक ही सीमित था।



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