इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि ब्रिटिश शासन की एक बड़ी अवधि तक दिल्ली नहीं बल्कि कलकत्ता भारत की राजधानी थी। तीसरा दिल्ली दरबार दिसंबर 1911 में सम्राट जॉर्ज पंचम के संरक्षण में दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट किंग्सवे कैंप में आयोजित किया गया। इसी दरबार में सम्राट ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के अपने निर्णय की घोषणा की।
प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक “दिल्ली सरकार की शक्तियां और सीमाएं (तथ्य और भ्रम)” में एस के शर्मा लिखते हैं कि राजधानी के स्थानांतरण की अचानक घोषणा को अनेक लोगों ने “भारत के इतिहास की सबसे गुप्त घटना” कहा। घोषणा की विषयवस्तु के बारे में इंग्लैंड और भारत में केवल कुछ ही लोगों को पहले से मालूम था। भारत में शाही परिवार के आगमन से पूर्व इंग्लैंड की महारानी से भी इस परियोजना का खुलासा नहीं किया गया था।
राबर्ट ग्रांट इर्विंग अपनी पुस्तक “इंडियन समर” में लिखते हैं, "सम्राट के शब्द उष्णकटिबंधीय सूर्य की भांति मानसून के वर्षा बादलों के बीच से दिल्ली के ऊपर गर्जना किए। आधी सदी से भी अधिक तक प्रांतीय दर्जा प्राप्त यह नगर एक ही झटके में उपमहाद्वीप की राजधानी बन गया।"
15 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में किंग्सवे कैंप के समीप कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के द्वारा नई दिल्ली का शिलान्यास किया गया। राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा के एक महीने के अंदर ही नयी राजधानी के निर्माण हेतु आर्किटैक्ट्स की एक कमेटी नियुक्त कर दी गई, जिसके सभापति जी एस सी स्बिंटन और सदस्य जॉन ब्रांडी तथा एडवर्ड लुटियंस थे। बाद में सर हर्बर्ट बेकर भी 1913 में लुटियंस से जुड़ गए।
दिसंबर, 1911 में दिल्ली में राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा करते हुए अंग्रेज सम्राट ने कहा कि हम अपनी जनता को सहर्ष घोषणा करते हैं कि कौंसिल में हमारे गर्वनर जनरल से विचार विमर्श के बाद की गयी हमारे मंत्रियों की सलाह से हमने भारत की राजधानी को कलकत्ता से प्राचीन राजधानी दिल्ली ले जाने का फैसला किया है।
12 दिसम्बर, 1911 के भव्य दरबार के लिए क्वीन मेरी के साथ जार्ज पंचम भारत आये तो उन्होंने तमाम बातों के साथ देश की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली लाने की घोषणा की और यहीं दरबार स्थल के पास ही पत्थर रखकर जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने नये शहर का श्रीगणेश भी कर दिया। उस वक़्त के वायसराय लार्ड हार्डिंग की पूरी कोशिश थी कि यह योजना उनके कार्यकाल में ही पूरी हो जाए। सबसे पहले जरूरत माकूल जगह का चुनाव था। उन दिनों यह व्यापक विश्वास था कि यमुना का किनारा मच्छरों से भरा हुआ था और यह अंग्रेजों के स्वास्थ्य के लिहाज से स्वास्थ्यप्रद न होगा।
समुचित स्थान की खोज में दिल्ली के विभिन्न भागों के चप्पे-चप्पे की यात्रा के पश्चात समिति के सदस्यों में सरकार के आसन के लिए चुने जाने हेतु सदस्यों के बीच लंबी चर्चा और परामर्श भी हुआ। समिति अंततः शाहजहां के नगर के दक्षिण में एक स्थल पर सहमत हुई। 9 जून को लुटियंस ने घोषणा की कि स्थान का अंतिम रूप से चयन हो चुका है-दिल्ली के दक्षिण में, मालचा के समीप। यह प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त था-पहलू, ऊंचाई, पानी, स्वास्थ्य, मूलावस्था में जमीन और यह उल्लेख करने की जरूरत नहीं पूरी पुरानी दिल्ली का अद्भुत दृश्य, नष्ट मकबरों का उजाड़ क्षेत्र जो सात पुरानी दिल्लियों का अवशेष हैं। इसी तरह, किंग्सवे कैंप वाले स्थल के छोटा होने तथा गंदगी भरे पुराने शहर के ज्यादा करीब होने की वजह से नामंजूर कर दिया गया।
इस सिलसिले में समतल और चौरस जमीन से घिरी गयी रायसीना पहाड़ी इसके लिए आदर्श साबित हुई। पुराने किले के निकट होने के कारण उसने ब्रिटिश के पूर्ववर्ती साम्राज्य के बीच एक प्रतीकात्मक सम्बन्ध भी मुहैया करा दिया, जिसकी निर्माताओं को गहरी अपेक्षा थी।
इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक तो पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी का निर्माण किया जाना था। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया। मुख्य भवन पुराना सचिवालय पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। इसी में 1914 से 1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें कीं और काम किया।
सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। राजधानी के निर्माण का कार्य पूरा होने के साथ, नई दिल्ली का औपचारिक रूप से उद्घाटन 1931 को हुआ। 1927 में संसद भवन का निर्माण के पूरा होने पर सेंट्रल असेंबली की बैठकें पुराना सचिवालय के स्थान पर संसद भवन में होनी प्रारंभ हो गई थीं।
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