दिल्ली एक लघु भारत है, जहां पर देश के सभी प्रांतों और जनपदों के व्यक्ति रहते हैं। देश की आजादी के बाद यहां पर पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दक्षिणी राज्यों से निवासी राजधानी में बसे। “उत्तराखंड आन्दोलन, स्मृतियों का हिमालय” पुस्तक में हरीश लखेड़ा ने गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र से निवासियों के दिल्ली आने के ऐतिहासिक कारणों पर प्रकाश डाला है। पुस्तक के अनुसार, आज दिल्ली की लगभग एक चौथाई आबादी उत्तराखंड प्रवासियों की है। वैसे तो दिल्ली के हर इलाके में उत्तराखंड के लोग मिल जाएंगे लेकिन दक्षिण और पूर्वी जिलों में इनका घनत्व कुछ ज्यादा ही है।
पुस्तक के अनुसार, दिल्ली में गढ़वाली लोगों का आना 1940 के आसपास हुआ और कुमाऊं के लोग दूसरे विश्व युद्ध के बाद बड़ी संख्या में दिल्ली आने शुरू हुए। फिर भी दिल्ली में गढ़वाल के लोगों की संख्या पहले से ही कुमाऊं के लोगों से लगभग डेढ़ गुना अधिक रही।
पुस्तक बताती है कि 1940 में गढ़वाल में दो बार जिलाधीश रहे पी मैसन दिल्ली में गृह और रक्षा मंत्रालयों में सचिव नियुक्त हुए। उन्हें गढ़वाली लोग भरोसेमंद और मेहनती लगे इसलिए उन्होंने अपने मंत्रालयों में छोटी-छोटी नौकरियों पर इन्हें लगा दिया। यही नहीं, पंचकुइयां रोड और रानी झांसी रोड के पास कुछ जमीन भी उन्हें दिलवा दी ताकि वहां वे अपने लिए कोई सामुदायिक भवन बना सके। गढ़वालियों को यह जमीन निशुल्क दी गई। बाद में गांधी जी ने एक दलित स्कूल के लिए वह जमीन ले ली और उसके एवज में पंचकुंइया रोड पर ही उन्हें दूसरा प्लाट दिलवा दिया गया, जिस पर आज बद्रीनाथ धाम गढ़वाल भवन बनकर तैयार हुआ है।
उल्लेखनीय है कि 50 के दशक के मध्य में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत ने लाल किले के पीछे के मैदान में उत्तराखण्ड के रहने वाले लोगों के लिए होली मिलन का कार्यक्रम आरंभ किया था। जिसमें भारी संख्या में पहाड़ के व्यक्ति शामिल होते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने उत्तराखंड के रहने वालों के लिए यमुना किनारे निगम बोध घाट पर पहाड़ी परंपरा के हिसाब से अंतिम संस्कार करने की व्यवस्था करवाई। आज भी पहाड़ के लोग अन्य समाजों से हटकर यमुना के किनारे अपने शवों का अंतिम संस्कार करते हैं।
वहीं प्रख्यात लेखक मनोहर श्याम जोशी “आज का समाज पुस्तक” में राजधानी में पहाड़ के लोगों में हुए सांस्कृतिक अवमूल्यन और अलगाव पर लिखते है कि जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं। तो लोगों के अपने क्षेत्र और अपनी बिरादी से कट जाने तथा हर नगर, हर मोहल्ले में अनेक क्षेत्रों और बिरादरियों के लोगों के बस जाने के बाद हम अपने त्योहार, परंपरागत ढंग से मनाने की और उनका अर्थ और संदर्भ बनाए रखने की स्थिति में रह नहीं गए हैं। फिर हमारी तथाकथित आधुनिकता ने हमारे लिए त्योहारों समेत हर परंपरागत चीज को पूरी तरह से पिछड़ेपन से जोड़ दिया है।
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