पढ़-लिख कर नारी बेकार भी नहीं बैठ सकती और उसकी आवश्यकताएं भी कुछ बढ़ जाती हैं। दूसरी ओर आर्थिक स्थितियां लगातार परिवार की आय बढ़ाने का तकाजा करती हैं। और जब शिक्षा के कारण नारी के सामने यह संभावना खुलती है कि आय बढ़ाने में उसकी भी योग हो सकता है तो समाज उसका वैसा विरोध नहीं कर सकता जैसा पहले करता रहा। अब इसे आप चाहें नारी की बढ़ती भूमिका नाम दीजिए, चाहे और कुछ।इसी प्रकार सार्थकता के विचार में एक तरफ यह सोचा जा सकता है कि अगर उद्देश्य परिवार की आय बढ़ाना था तो उसमें नौकरी पेशा स्त्री अंशतः तो सफल होती ही है।
उसका दूसरा पक्ष यह है कि पिता के समान माता का भी लगातार घर से अनुपस्थित रहे तो बच्चों की देखभाल का क्या होता है और उस देखभाल में माता-पिता के स्नेह और उनकी निकटता से उत्पन्न परस्पर विश्वास का भाव का क्या होता है। परिवारों की आय तो बढ़ जाती है, लेकिन बच्चों और माता-पिता के बीच का मनोवैज्ञानिक संबंध शिथिल हो जाता है-बच्चे निरंकुश भी होते हैं, परिवार के प्रति उदासीन भी होते हैं, परिवार से मिलने वाली मूल्य दृष्टि भी खो देते हैं और वर्तमान स्थिति में शिक्षा संस्थाएं मूल्य-बोध में कोई योग नहीं देतीं। ये सब बातें सार्थकता पर प्रश्न-चिन्ह लगाने वाली हैं।
(अज्ञेय पत्रावली, संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकादमी)
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