न सुबह जंगल में चरने जाती गायों के खुरों की आवाज़ है, न बकरियों के मिमयाने की टेर। न हतई (चौपाल) पर ताश खेलते बूढ़ों के कहकहे हैं, न दूर से मोटर लॉरी की भोंपू की आवाज़। कितना कुछ पीछे छूट गया है स्मृृतियों के गाँव में।ऐसा गाँव बस मस्तिष्क के मानचित्र पर अंकित है, वह न एम एन श्रीनिवासन से लेकर श्यामाचरण दुबे की समाजशास्त्र की दुनिया में मिलेगा और न आज के गूगल सर्च में.………………
Saturday, May 24, 2014
Village in mind (स्मृृतियों का गाँव)
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