उस दौर में (हिंदी पत्रकारिता बैच, आईआईएमसी, 1995) सही में कितना कुछ बिना कहे-सुने सीखा चुपचाप, अब उसकी अहमियत पता का ज्ञान होता है (मेरे जैसे गिस्सामार को) ।
शायद अगर आईआईएमसी में दाखिला नहीं मिलता तो जीवन का क्या ठौर होता पता नहीं।
उस सुनहरे दौर और मुझे झेलने वाले साथियों का आभार। मैं भी इन साथियों की संगत में पत्रकारिता का ककहरा सीख गया नहीं तो राम जाने जीवन की गाड़ी किस प्लेटफार्म पर रूकती!
मेरी माँ कहती थी कि साथ अच्छा हो तो कठिन समय भी अच्छे से बीत जाता है वर्ना खराब संगत में अच्छा समय भी नष्ट हो जाता है।
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