Saturday, December 31, 2016
Friday, December 30, 2016
Tuesday, December 27, 2016
Bird Watching in Delhi_दिल्ली में पक्षियों को निहारने (बर्डवाचिंग) की परंपरा
वर्तमान समय में साक्षर भारतीय वन्य जीवन के पेड़ पौधों से लेकर पक्षियों के नाम अंग्रेजी नामों से ही परिचित है जबकि देश में पुराने समय से ही समाज व्यवस्था में वन का कितना महत्व रहा है यह मनुष्य जीवन के अंत में वानप्रस्थ में जाने की बात से सिद्ध होता है। अगर हम अपनी प्राचीन पंरपरा को देखें तो प्राचीन काल से ही भारतीय जन जीवन में पक्षी प्रेम और पंक्षी निहारन की बात दिखती है। वह अलग बात है कि आज न केवल व्यक्ति के रूप में बल्कि समाज के स्तर पर भी यह विरासत मुख्यधारा से छिटक सी गई है।
भारतीय संस्कृति में पक्षियों का अत्याधिक महत्व रहा है। अगर ध्यान करें तो हिंदू देवी-देवताओं के वाहन के रूप में पक्षियों को हमेशा से आदर मिला है। जैसे ब्रह्मा और सरस्वती का हंस, विष्णु का गरुड, कार्तिकेय का मंयूर, कामदेव के तोता, इंद्र और अग्निदेव का अरुण क्रुंच (फलैमिंगो), वरुणदेव का चक्रवाक (शैलडक)। संसार की सबसे पुरानी पुस्तक माने जाने वाले ऋग्वेद में जहां 20 पक्षियों का वर्णन है तो वहीं यजुर्वेद में 60 पक्षियों का उल्लेख है। इतना ही नहीं, मनुस्मृति और पराशरस्मृति में तो पक्षियों के संरक्षण के हिसाब से कुछ विशेष पक्षियों को मारने पर रोक तक लगाने की बात कही गई है। इसी तरह, चाणक्य रचित अर्थशास्त्र में भी राजा को अपने राज्य में पक्षी-संरक्षण करने के स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं।
जहां तक आधुनिक दिल्ली के इतिहास की बात है राजधानी में समृद्ध पक्षी जगत के बारे में जानकारी पहले पक्षी निहारने वाले अंग्रेजों की लिखित टिप्पणियों, बनाए गए नोट और सूचियों से मिलती है। सर बाॅसिल एड्वर्ड ने 1920 के दशक में केवल पांच महीनों के भीतर ही लगकर दिल्ली के पक्षियों की 230 प्रजातियों के नमूनों के बारे में जानकारी जुटाई थी। उसके बाद, सर एन.एफ. फ्रोम ने 1931-1945 की अवधि में अपने और दूसरों की टिप्पणियों के आधार पर जानकारी एकत्र करके सन् 1947 में करीब तीन सौ प्रजातियों की सूची बनाई। हटसन ने 1943-1945 की अवधि में राजधानी में पक्षी विज्ञान से संबंधित किए अपने सर्वेक्षण में ओखला के पक्षियों को दर्ज किया।
वर्ष 1950 में बनी दिल्ली बर्ड वाॅचिंग सोसाइटी, जिसकी स्थापना होरेस अलेक्जेंडर ने की थी, ने मेजर जनरल एच.पी.डब्ल्यू हस्टन की टिप्पणियों को "बर्ड्स अबाउट दिल्ली" के शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। इसी तरह, मैलकम मैकडोनाल्ड ने भी बगीचे वाले पक्षियों पर दो किताबें छापी। 1970 के दशक तक इसके साथ पीटर जैक्सन, विक्टर सी. मार्टिन, कैप्टन आई. न्यूहैम और उषा गांगुली जैसे उत्साही व्यक्ति जुड़ चुके थेे। वर्ष 1970 में सोसाइटी की दिल्ली के पक्षियों की प्रजातियों की सूची 403 की हो गई थी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने वर्ष 1975 में उषा गांगुली की दिल्ली के पक्षी जगत पर किए एक महत्वपूर्ण कार्य को "ए गाइड टू द बर्डस आॅफ द दिल्ली एरिया" नामक शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में गांगुली ने ओखला के जल पक्षियों के बारे में लिखते हुए 403 प्रजातियों को सूचीबद्ध किया। उन्होंने अपने वर्गीकरण में 150 प्रजातियों को प्रवासी, 200 को स्थानीय और 50 की स्थिति अज्ञात के रूप में दर्ज की। अगर गौर करें तो पता चलेगा कि दिल्ली में पाए जाने वाले पक्षियों की यह संख्या देश में पाई जाने वाली पक्षियों की प्रजातियों की कुल संख्या की लगभग एक तिहाई हैं।
इसके बाद, वर्ष 1991 में दिल्ली के पर्यावरण पर काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन "कल्पवृक्ष" ने राजधानी में पक्षियों की सूची को बढ़ाते हुए 444 का दिया। कल्पवृक्ष ने इस पूरी जानकारी को "द दिल्ली रिज फाॅरेस्ट, डिकलाइन एंड कन्जरवेशन" के नाम से प्रकाशित किया। खास बात यह थी कि इन सूचीबद्ध पक्षियों में लगभग 200 प्रजातियां दिल्ली रिज से थी। उल्लेखनीय है कि हजारों की संख्या में प्रवासी और स्थानीय प्रजातियों के पक्षी दिल्ली रिज की ओर आकर्षित होकर आते हैं।
ऐतिहासिक रूप से ओखला के आसपास के इलाके, यमुना नदी और इससे सटे दलदली क्षेत्र पक्षी प्रेमियों के लिए एक पसंदीदा स्थान रहे हैं। मेजर जनरल एच.पी.डब्ल्यू हटसन और श्रीमती उषा गांगुली दोनों ने ही अपनी पुस्तकों में ओखला के पक्षियों की उपस्थिति को प्रमुखता से दर्ज किया है। "दिल्ली गजेटियर (1883-84)" में यमुना नदी के पूर्वी किनारे में भरपूर संख्या में जंगली पशु-पक्षियों के होने का वर्णन है जबकि "दिल्ली गजेटियर (1912)" में यह बात दर्ज है कि सर्दियों में कलहंस और बत्तख को जहां कहीं भी रहगुजर के लिए पर्याप्त पानी मिलता था, वे वहीं डेरा जमा लेते थे।
राजधानी में पक्षियों को देखने के हिसाब से ओखला बैराज एक आदर्श स्थान है। यह बैराज पक्षी अभयारण्य जलचरों जल पक्षियों के लिए स्वर्ग है। इस अभयारण्य की सबसे बड़ी खासियत नदी, जो कि पश्चिम में ओखला गांव और पूर्व की ओर गौतमबुद्ध नगर के बीच में फंसी सी दिखती है, के ठहराव से बनी एक विशाल झील है। यहां एक बांध के निर्माण और उसके परिणामस्वरूप वर्ष 1986 में एक झील के बनने से बाद इस स्थान पर पक्षियों को निहारने (बर्डवाचिंग) की गतिविधि बढ़ी है। यहां आने वाले प्रवासी पक्षियों में कलहंस, पनकुकरी, कूट पक्षी, नुकीले पूंछ वाली बत्तख, हवासील, जंगली बत्तखों की बहुतायत संख्या है।
सैकड़ों स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की रक्षा और उनके प्रजनन के लिए एक सुरक्षित अभयारण्य प्रदान के एक उद्देश्य से इस झील के आसपास के क्षेत्र का चयन करते हुए उसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया।वर्ष 1990 में यह क्षेत्र ओखला पक्षी अभ्यारण्य के नाम की घोषणा के साथ अस्तित्व में आया। ओखला पक्षी अभयारण्य के दक्षिण में कालिंदी कुंज अपने शांत वातावरण और प्राकृतिक हरीतिमा के कारण एक अत्यंत आनंदित और सुखद स्थान है। इस क्षेत्र में देखे गए पक्षियों की करीब 250 प्रजातियों में से 160 प्रजातियां प्रवासी पक्षियों की हैं जो सर्दियों में तिब्बत, यूरोप और साइबेरिया से अपना लंबा सफर तय करके यहां अपना डेरा डालने के लिए आते हैं।
सर्दियों की शुरुआत के साथ ही ये प्रवासी पक्षी नवंबर के महीने से आना शुरू हो जाते हैं। इस तरह ये प्रवासी पक्षी नवंबर से मार्च तक लगभग चार महीने के लिए यहां अपना बसेरा करते हैं। सो, पक्षी प्रेमियों के लिए इन प्रवासी पक्षियों को निहारने का यह सबसे उपयुक्त समय होता है। ओखला पक्षी अभ्यारण्य में पक्षियों के साथ जलीय जानवरों को भी देखा जा सकता है। जबकि गर्मी के मौसम की आहट के साथ ही ये पक्षी अपने घरों की ओर वापसी की उड़ान भरना शुरू कर देते हैं।
यमुना, नजफगढ़, रामघाट और ओखला जैसे दिल्ली के जलक्षेत्र बड़ी संख्या में पानी के पक्षियों जैसे चैती, जंगली बत्तख, पिनटेल, चौड़ी चोंच वाली बत्तख को आकर्षित करते हैं। सर्दियों के दौरान कलहंस, सारस और क्रौंच की अनेक प्रजातियां दिल्ली के दलदलों और झीलों में उतरते हैं। दिल्ली में पक्षियों को देखने के हिसाब से प्रमुख स्थानों में ओखला में यमुना और आसपास के खादर का ग्रामीण अंचल, उत्तरी रिज, विश्वविद्यालय गार्डन, और कुदसिया बाग, बुद्ध जयंती पार्क, लोधी गार्डन और हुमायूं का मकबरा और पुराना किला के पास राष्ट्रीय प्राणी उद्यान (दिल्ली का जू) है।
इस विषय में अंग्रेजी में उल्लेखनीय पुस्तकों में खुशवंत सिंह की ‘दिल्ली थ्रू द सीजन्स’, रणजीत लाल की ‘बर्डस आॅफ दिल्ली’, समर सिंह की ‘गार्डन बर्डस आॅफ दिल्ली, आगरा एंड जयपुर’, मेहरान जैदी की ‘बर्डस एंड बटरफ्लाइज आॅफ दिल्ली’ तो हिंदी में सालिम अली की ‘भारत के पक्षी’ (हिंदी अनुवाद), ‘पक्षी निरीक्षण’ (पर्यावरण शिक्षक केंद्र), विश्वमोहन तिवारी की ‘आनंद पंछी निहारन’ हैं।
Bangladesh War_Indira Gandhi_Use of war for winning election
वैसे याद करने वाली बात है कि पाकिस्तान के साथ १९७१ की लडाई की जीत का सेहरा न तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम के सिर न सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल सैम बहादुर मानेक शाह के सिर बंधा.
उसे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने चुनाव में जीत के लिए इस्तेमाल करके सत्ता का वरण किया. सो, देश की सरहद के सवाल पर देश में चुनाव जीतने की रवायत कांग्रेस (इंदिरा) जितनी पुरानी है.
Saturday, December 24, 2016
Obituary_Anupam Mishra_Aaj bhi khare hai talab
अनुपम आखर वाले आख्यान की इति! |
"कठोपनिषद् मेरे लिए तो बहुत ही कठोर निकला। मैं इससे मृत्यु को जान नहीं पाया। मृतकों को तब भी जाना था और आज तो उस सूची में, उस ज्ञान में वृद्धि भी होती जा रही है। फिर इतना तो पता है किसी एक छिन या दिन इस सुंदर सूची में मुझे भी शामिल हो जाना है। उस सुंदर सूची को पढ़ने के लिए तब मैं नहीं रहूंगा।"
देश के हिंदी समाज के पानी ही नहीं बल्कि भाषा की भी उतनी ही चिंता करने वाले अनुपम मिश्र के "पुरखों से संवाद" लेख की यह पंक्तियां उनके आंखों के पानी यानी जीवन दृष्टि को रेखांकित करती है। यह अनायास नहीं है कि जल जैसे नीरस विषय पर सरस भाषा में "आज भी खरे हैं तालाब" सरीखी पुस्तक लिखने वाले अनुपम का जन्म "जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख" पंक्ति लिखने वाले कवि और गांधी वांड्मय के हिंदी संस्करण के संपादक भवानी प्रसाद मिश्र के घर आंगन (वर्धा- १९४८) में हुआ।
१९६८ में दिल्ली विश्वविद्यालय से संस्कृत पढ़ने के बाद नई दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखने के साथ अपनी मृत्यु तक "गाँधी मार्ग" पत्रिका का संपादन किया। इस अनुपम जीवन यात्रा में उनका ताना-बाना और ठिकाना अपरिवर्तित रहा।
उत्तराखंड के चिपको आंदोलन पर पहली रपट लिखने वाले अनुपम की "हमारा पर्यावरण" और "राजस्थान की रजत कण बूंदे" शीर्षक वाली पुस्तकें उनके प्रकृति के प्रति ममत्व और अक्षर के प्रति प्रेम के तादात्मय का प्रतीक है। आज अनुपम की पुस्तकें जल संरक्षण के देशज ज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर हैं।
पिछले दो दशक में देश की सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से एक आज भी खरे हैं तालाब बिना कॉपीराइट वाली अकेली ऐसी पुस्तक है, जिसे इसके मूल प्रकाशक से अधिक अन्य प्रकाशकों ने अलग-अलग भारतीय भाषाओं और फ्रांसीसी में दो लाख से अधिक प्रतियों को छापा है। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक और उन्हें पत्रकारिता में लाने वाले प्रभाष जोशी के शब्दों में, अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है। सम्मान से समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्टी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है। कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है।
यह पुस्तक अनुपम के दिल्ली के महानगरीय समाज के चुकते पानी और राजधानी की समृद्व जल पंरपरा वाली विरासत के छीजने की चिंता की साक्षी भी है। अंग्रेजी राज में अनमोल पानी का मोल लगने की बात पर पुस्तक बताती है कि इधर दिल्ली के तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।
दिल्ली के समाज की यमुना नदी की साझ-संभाल और चिंता करने की बात को उजागर करती हुई पुस्तक बताती है कि घाटों पर अखाड़ों का चलन भी इसी कारण रहा होगा। सन् 1900 तक दिल्ली में यमुना के घाटों पर अखाड़े के स्वयंसेवकों का पहरा रहा करता था। इसी तरह यहां के तालाब और बावड़ियां अखाड़ों की देखरेख में साफ रखी जाती थीं। आज जहां दिल्ली विश्वविद्यालय है, वहां मलकागंज के पास कभी दीना का तालाब था। इसके अखाड़े में देश-विदेश के पहलवानों के दंगल आयोजित होते थे।
राजधानी के समाज-राज-स्त्री के अंर्तसंबंध की सामाजिक-सांस्कृतिक परिघटना भी उनकी अंतदृष्टि से ओझल नहीं होती है। वे बताते हैं कि उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सी सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली गारियों, विवाह गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां "फिरंगी नल मत लगवाय दियो" गीत गातीं। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुंए और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित वाटर वर्क्स से पानी आने लगा।
इतना ही नहीं, किताब के अनुसार, लालकिले के लाहौरी गेट के सामने बनी लाल डिग्गी की सूचना उर्दू में लिखी सर सैयद अहमद खां की पुस्तक "आसारूस सनादीद" (सन् 1864) में है। पाठकों को यह जानकर अचरज होगा कि लाल डिग्गी तालाब एक अंग्रेज लार्ड एडिनवरो ने बनवाया था और राज करने वालों के बीच यह उन्हीं के नाम पर जाना जाता था। लेकिन दिल्ली वाले इसे लाल डिग्गी ही कहते रहे, क्योंकि 500 फीट लंबा और 150 फीट चौड़ा यह तालाब लाल पत्थरों से बना था। हर्न की सन् 1906 में प्रकाशित पुस्तक "सेवन सिटीज ऑफ़ डेली" में लाल डिग्गी का सुंदर विवरण मिलता है। दिल्ली के अन्य तालाबों, नहरों, बावड़ियों के बारे में काॅर स्टीफन की "आर्कियोलाॅजी एंड मान्यूमेंटल रीमेंस ऑफ़ डेली" (सन् 1876) और जी पेज द्वारा चार खंडों में संपादित "लिस्ट ऑफ़ मोहम्मडन एंड हिंदू मान्यूमेंट्स, डेली प्राॅविन्स " (सन् 1933) से भी बहुत मदद मिलती है।
पेड़ों को कटने से रोकने के लिए शुरू हुए "चिपको आंदोलन" से लेकर हिंदी क्षेत्र के पानी की विरासत का पुर्नपाठ और समाज को मरते तालाबों को जिलाने की संजीवनी देने का काम कोई कर सकता था तो अनुपम मिश्र। लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं तो सात आसमानों से परे गांधी मुद्रा में दो हाथ विनम्रता से जुड़े दिखेंगे।
Tuesday, December 20, 2016
Monday, December 19, 2016
Sangeet Natak Academy_Seminar on Cinema_संगीत नाटक अकादेमी और सिनेमा पर सेमीनार
दैनिक जागरण, १७ दिसंबर २०१६ |
आज यह बात जानकर किसी को भी अचरज होगा कि संगीत नाटक अकादेमी ने सन् 1955 में दिल्ली में पहली बार फिल्म पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। यह एक कम-जाना तथ्य है कि अकादेमी की स्थापना के समय यह कल्पना की गई थी कि वह सिनेमा की विधा को भी आगे बढ़ाने का काम करेगी। फिल्म के भी नाटक का ही एक विस्तार होने की लोकप्रिय अवधारणा और परम्परागत भारतीय रंगमंच तथा लोकप्रिय सिनेमा का विश्लेषण भी इसी बात की पुष्टि करता है।
इस तरह, अकादेमी ने वर्ष 1955 में इसी विचार को लेकर सिनेमा-संगोष्ठी आयोजित की। यही नहीं वर्ष 1961 तक अकादेमी ने फिल्मों में निर्देशन, अभिनय, पटकथा, संगीत और गीत के लिए पुरस्कार भी दिए।
जब इस फिल्म संगोष्ठी का आयोजन किया तो अकादेमी के पहले अध्यक्ष पी. वी. राजामन्नार ने फिल्म को एक भिन्न रूप और स्वतंत्र कला व्यक्तित्व वाली विधा बताया। इस संगोष्ठी की योजना और संचालन पूरी तरह फिल्म जगत के प्रसिद्ध कलाकारों और दूसरे पेशेवरों के हाथ में था। भारतीय सिनेमा की पहली अभिनेत्री देविका रानी रोरिक इस संगोष्ठी की संयुक्त-कार्यकारी निदेशक थी तो वरिष्ठ रंगमंचीय कलाकार-फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर उनके सह-संयुक्त निदेशक, संगोष्ठी के निदेशक बी.एन. सरकार और प्रवर समिति के अध्यक्ष नित्यानंद कानूनगो थे।
इस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी में दिए अपने भाषण में कहा कि "कुछ दिनों से मैं देख रहा हूँ कि दिल्ली में चारों तरफ इस बात की चर्चा है कि यहां एक फिल्म सेमिनार होने वाला है। उसके इन्तजाम करने वालों की अपनी शख्सियत से और इसके मजमून से इसकी दिल्ली में काफी चर्चा होती रही है। हर एक आदमी जानता है कि सिनेमा आजकल की दुनिया में एक खास चीज है जिसका असर उसपर काफी है। इसलिए हमें इसमें दिलचस्पी लेनी है और इस सेमीनार का यहां होना एक माकूल बात है। अच्छी बात है कि लोग इस काम से खास तौर से ताल्लुक रखत हैं वे आपस में मिलें, सलाह और मशवरा करें। क्योंकि इसी तरह पेचीदा सवालों पर रोशनी पड़ती है। जाहिर है कि जैसे फिल्म इन्डस्ट्री को इसमें दिलचस्पी है उसी तरह यहां की हुकूमत को भी काफी दिलचस्पी है और जिस चीज में करोड़ों आदमियों को दिलचस्पी हो उसमें यकीनन गवर्मेन्ट को दिलचस्पी होनी चाहिए।"
इस जमावड़े में अनेक साहित्यकारों, फिल्म संगीतकारों और सिनेमा के फोटोग्राफरों ने भी हिस्सा लिया। इस संगोष्ठी की शुरुआत पंकज मल्लिक ने अपनी सुरमई आवाज में वेदों के एक गीत से की। नेहरू ने इस संगोष्ठी में शामिल कलाकारों के सम्मान में अपने सरकारी निवास पर एक रात्रि भोज दिया। इस संगोष्ठी के आयोजन से पूर्व भारत सरकार ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय सम्मान की स्थापना कर दी थी। इस अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतियोगिता में सभी भारतीय भाषाओं की फिल्मों ने हिस्सा लिया।
देश के प्रधानमंत्री ने 27 फरवरी 1955 को दिल्ली में नेशनल फिजिकल लेबोट्ररी के सभागार में इस संगोष्ठी का उद्घाटन किया था। इस अवसर पर उपराष्ट्रपति सर्वापल्ली राधाकृष्णन, उनकी बेटी इंदिरा गांधी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय भी उपस्थित थे।
इसमें संगोष्ठी में बंबई, कलकत्ता और मद्रास की फिल्मी दुनिया की तत्कालीन सभी नामचीन हस्तियां शामिल हुई। जिसमें अनिंद्रा चौधरी, बी. सान्याल, पंकज मल्लिक, वी. शांताराम, नरगिस, दुर्गा खोटे, राज कपूर, किशोर साहू, विमल राय, अनिल बिस्बास, ख्वाजा अहमद अब्बास, दिलीप कुमार, वासन जैमिनी प्रमुख थे। दिल्ली के प्रतिनिधिमंडल में उदयशंकर, आर रंजन, कवि नरेंद्र शर्मा, जगत नारायण, एम भवनानी और जगत प्रसाद झालानी थे।
पहला पुरस्कार, विमल राॅय को उनकी फिल्म "दो बीघा जमीन" के लिए प्राप्त हुआ। संगीत नाटक अकादेमी ने इस फिल्म संगोष्ठी की रपट को फिल्म सेमीनार रिपोर्ट, 1955 के नाम से प्रकाशित किया था।
Sunday, December 11, 2016
Cinematic History of Delhi
10/12/2016, दैनिक जागरण |
दिल्ली में सिनेमा का इतिहास
दिल्ली और सिनेमा का संबंध सन् 1911 में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा जितना ही पुराना है। अंग्रेजों की राजधानी बनने के बाद नई दिल्ली में मूक फिल्मों के दौर (1913-31) में थिएटर बने, जहां पर खासतौर पर अंग्रेज दर्शकों लिए हॉलीवुड फिल्में दिखाई जाने लगी।
सन् 1925 के करीब बॉम्बे टाकीज के संस्थापक हिमांशु रॉय ने पहली बार विदेशी दर्शकों के लिए गौतम बुद्ध के जीवन पर “लाइट ऑफ एशिया” नामक फिल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने दो साल तक फिल्म के लिए जरूरी पैसों को जुटाने के प्रयास में अंग्रेज सरकार, भारतीय राजाओं से लेकर मंदिरों तक संपर्क किया पर नतीजे में कुछ हासिल नहीं हुआ।
आखिरकार दिल्ली के वकील, जज और दूसरे पेशेवरों ने फिल्म निर्माण में मदद के लिए ग्रेट ईस्टर्न फिल्म कार्पोरेशन नामक एक बैकिंग कार्पोरेशन बनाया। इस कार्पोरेशन ने जर्मनी के इमेल्का स्टुडियो के साथ मिलकर फिल्म का सह निर्माण किया। एडविन अर्नोल्ड की कविता “द लाइट ऑफ एशिया” की कविता से प्रेरित और निरंजन पाल की पटकथा वाली इस फिल्म में गौतम बुद्व की भूमिका हिमांशु रॉय ने निभाई।
वर्ष 1931 में हिंदी की पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” प्रदर्शित हुई। दिल्ली में इसका प्रदर्शन एक्सेलसियर थिएटर में हुआ। इसके साथ ही दिल्ली में सिनेमा के दर्शकों की संख्या बढ़ी तो वहीं दिल्ली उत्तर भारत में फिल्मों के एक महत्वपूर्ण वितरण केंद्र के रूप में उभरी।
भारत से मूक फिल्मों की विदाई और गानों और संवादों से युक्त श्वेत-श्याम फिल्मों की दौर के साथ अधिकतर थिएटरों ने नियमित रूप से फिल्में दिखाना शुरू कर दिया। दिल्ली में तेजी से बढ़े हॉलों को टॉकीज कहा जाता था, और कई हॉलों अपने नाम के आगे टॉकीज लगा लिया। जैसे मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज, रॉबिन टॉकीज। तब किसी भी थिएटर के नाम के आगे टाकीज होना फ़ैशनेबल और आधुनिकता की निशानी था।
सन् 1932 में हिंदी की प्रथम साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका “रंगभूमि” का प्रकाशन पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम से हुआ। इसके प्रकाशक, त्रिभुवन नारायण बहल, संपादक नोतन चंद और लेखराम थे। जबकि सन् 1934 में ऋषभचरण जैन ने दिल्ली से “चित्रपट” नामक एक फिल्म पत्र निकला। तब इसका वार्षिक चंदा सात रूपए तथा एक प्रति का मूल्य दो आने था। जैन की प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार तथा चतुरसेन शास्त्री जैसे हिंदी के प्रसिद्व कथा-लेखकों से मैत्री होने के कारण चित्रपट में अनेक प्रसिद्व लेखकों की रचनाएं छपती थीं।
भारत में बोलती फिल्मों के निर्माण में तेजी आने के साथ ही अपनी किस्मत आजमाने के इरादे से युवा कलाकार संगीत के प्रसिद्ध दिल्ली घराने के उस्तादों से सीखने के लिए राजधानी आने लगे। मुगल सल्तनत के पतन के बाद तानरस खां ने दिल्ली घराने को स्थापित किया। ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशे, तानों का निराला ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग इस घराने की विशेषताएं हैं। यह अनायास नहीं है कि मल्लिका पुखराज, फरीदा खानम और इकबाल बानो तीनों पाकिस्तानी गजल गायिकाएं दिल्ली घराने से ही संबंध रखती है।
हिंदी फिल्मों के उस दौर में संवाद उर्दू में ही होते थे तो गाने फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे। उस समय ऐतिहासिक फिल्मों की लोकप्रियता की वजह से निर्माता दिल्ली की मुगलकालीन भवनों और स्मारकों के प्रति खींचे चले आते थे। शायद इसी वजह से ऐतिहासिक दिल्ली से जुड़ी "चांदनी चौक", "नई दिल्ली", "हुमायूं", "शाहजहां", "बाबर", "रजिया सुल्तान", "मिर्जा गालिब" और "1857" के नाम से फिल्मे बनीं।
Friday, December 9, 2016
Wednesday, December 7, 2016
Jayalalita_Media portrayal Amma
तमिलनाडु में केवल कांची पीठ के डंडी वाले हिन्दू शंकराचार्य को ही नहीं अम्मा ने हिन्दू अखबार के अँग्रेजी-दा कामरेड कलमकारों को भी कारावास की सैर करवा दी थी।
वैसे काले चश्मे वाले फ़िल्मकार-पूर्व मुख्यमंत्री को भी अम्मा का "रॉयल ट्रीटमेंट" मिला।
इतनी प्रगतिशील-इंसाफपसंद थी कि अगर न्यायालय का हस्तक्षेप नहीं होता तो प्रदेश की भगवान ही यानि अम्मा ही डंडी-कलम-चश्मे की मालिक होती।
सही में अम्मा को दिल्ली की पहली विदेशी-गुलाम वंश सल्तनत महिला सुल्तान "रज़िया सुल्तान" से लेकर "चोखेर बाली" तक के बारे में जरूर पता होगा।
तभी तो आज मीडिया के दिग्गजों की ओर से दिवंगत अम्मा के अक्स में ऐसी ही तस्वीरें चिपकाई जा रही है।
यह देखकर मुझे बचपन में अपने ननिहाल के गाँव की हथई (चौपाल) में सुनी मगरे की एक कहावत याद आ गई। जिसका हिन्दी में ऐसे कह सकते हैं, "बियावन श्मशान में शव तो बोलते-सुनते नहीं, सो प्रेत उनकी कमी पूरी करते हैं।"
Tuesday, December 6, 2016
Love in Library_पुस्तक और प्यार का संयोग
90 के दशक के आरंभिक वर्षों में दक्षिणी दिल्ली के मेरे कॉलेज में दूसरी मंजिल पर बने पुस्तकालय में दो ही प्रेमी होते थे, एक पुस्तक के और दूसरे...
मजाल है कि इन दोनों के अलावा कोई और आ भी जाएँ।
पुस्तकों से प्यार के अलावा प्यार का भी ठिकाना था...
कोई किताब में खोने आता था तो कोई प्यार में!
आखिर। वे भी क्या दिन थे।
Environmental History of Delhi_दिल्ली का हरा-भरा पर्यावरणीय इतिहास
भारत के इतिहास में दिल्ली की एक अद्वितीय भू-राजनीतिक स्थिति है। प्राचीन काल से ही दिल्ली भारतीय उप-महाद्वीप की राजधानी के साथ ‘‘उद्यान-नगर” दोनों ही रही है। दिल्ली राज्य का कुल क्षेत्रफल 1,48,639 हेक्टेअर है, जिसमें 4,777 हेक्टेअर शहरी क्षेत्र है। राजधानी का हरित क्षेत्रफल कुल क्षेत्रफल का 19 प्रतिशत है, जो कि देश के दूसरे शहरों की तुलना में अधिक है। यह दिल्ली को भारत के सर्वाधिक हरियाली वाले शहरों में से एक बनाता है। जहां एक ओर करीब तीन करोड़ मनुष्यों की आबादी है तो दूसरी ओर यमुना नदी और रिज का वन एक भरे-पूरे पशु-पक्षियों के संसार को जिलाए हुए हैं। पर इस बात से कोई इंकार नहीं है कि महानगर के शहरीकरण का मूल्य तेजी से घटी जैव विविधता को चुकाना पड़ा है, जिसमें खासी कमी आई है।
इतिहास इस बात का गवाह है कि कुछ दशक पहले तक यमुना नदी में घड़ियालों, मगरमच्छों और कछुओं की खासी संख्या होती थी। वहीं सर्दियों के हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षियों के अलावा कई अन्य जीव-जंतुओं भी पाए जाते थे। ऐतिहासिक काल से रिज को असाधारण पौधों और भयानक पशुओं के निवास के रूप में अभेद्य क्षेत्र माना गया। इस तरह से, भाग्य के धनी दिल्ली के नागरिकों के दोनों हाथों में लड्डू थे यानी एक नदी और दूसरा भरपूर हरा भरा जंगल। जंगल भी ऐसा, जिसमें तेंदुओं से लेकर भेड़ियों और सूक्ष्म कीटों की खासी संख्या थी और सब एक सामंजस्य पूर्ण ढंग से एकसाथ गुजर करते थे।
पुराने समय से ही दिल्ली के शासकों में पर्यावरण के संरक्षण और सुरक्षा की जागरूकता का भाव रहा है। 14 वीं सदी में जब रिज के वन बेहद कम पेड़ थे, तब तुगलक वंश के बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने यहां पौधे लगवाए थे। वर्ष 1803 में दिल्ली पर कब्जा करने के बाद अंग्रेज कंपनी सरकार ने भी दिल्ली में बड़े पैमाने पर पौधारोपण का कार्यक्रम शुरू कर दिया और लिखित दस्तावेज बताते हैं कि यहां 1878-79 की अवधि में 3000 नीम और बबूल के पेड़ लगाए गए थे। सन् 1911 में अंग्रेज राजा के कलकत्ता से राजधानी को दिल्ली लाने की घोषणा के बाद ब्रितानिया सरकार ने वर्ष 1913 में उत्तर और मध्य रिज को भारतीय वन अधिनियम, 1878 के तहत संरक्षित वन घोषित कर दिया गया। वर्ष 1942 में रिज के उत्तरी भाग के अतिरिक्त 150.46 हेक्टेयर भूमि को भी संरक्षित वन बनाने की घोषणा कर दी गई। उसके बाद, वर्ष 1948 में रिज के दक्षिणी और मध्य भाग को भी संरक्षित वन घोषित कर दिया गया।
अंग्रेजों के समय का दिल्ली का गजेटियर (1883-84), दिल्ली के वन्य जीवन का वर्णन करते हुए बताता है कि यमुना नदी के पूर्वी किनारे में भरपूर संख्या में सूअर, लोमड़ी, खरगोश थे। लगभग हर जगह काले हिरन पाए जाते थे जबकि चिंकारा पहाड़ियों, विशेष रूप से भूंसी और सिनाली, और रिज के हिस्से में मिलते थे। भेड़ियों की संख्या अधिक नहीं थी लेकिन वे आम तौर पर पुरानी छावनी के पास दिखते थे। बुराड़ी और खादीपुर के गांवों के पास नीलगायें दिखती थीं। तुगलकाबाद और बाहरी गांवों में तेंदुआ देखा जाता था जबकि बुराड़ी और यमुना के पास अच्छी संख्या में पैरा (हॉग हिरण) होते थे। साथ ही यमुना नदी में मुख्य रूप से मगर और घड़ियाल की उपस्थिति की बात रिकॉर्ड की गई है। यहां चपटी नाक वाले आदमखोर मगरमच्छ काफी थे और इनमें से काफी यमुना नदी के तट पर आज की राइफल रेंज के पास धूप सेकते देखे जा सकते थे। यह दस्तावेज दिल्ली के जीवों के बारे में रोचक तथ्यों का उल्लेख करते हुए बताता है कि है कि पिछले पांच साल में दस तेंदुए, 367 भेड़िए और 1127 सांपों को मारने के लिए 8900 रुपये की राशि पुरस्कार के रूप में दी गई।
1912 के गजेटियर के अनुसार, एक तेंदुए को मारने पर पांच रुपये के हिसाब से 143 रुपये दिए गए। जबकि एक नर भेड़िया के शिकार पर पांच रुपये और मादा भेड़िया के शिकार पर तीन रुपये के हिसाब से ईनाम दिया जाता था। इस दस्तावेज में स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की व्यापक सूची भी है, जिसमें विशेष रूप से नजफगढ़, भलस्वा के आसपास चैती और बत्तखों के होने का उल्लेख है।
देश की आजादी के बाद वर्ष 1980 में, रिज के उत्तरी, मध्य और दक्षिणी रिज में बीस स्थानों को चिन्हित करते हुए भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत संरक्षित वन बना दिया गया। 9 अक्तूबर, 1986 को दिल्ली के उपराज्यपाल ने रिज के दक्षिणी भाग के 1880 हेक्टेयर क्षेत्र को असोला-भाटी वन्य जीव अभयारण्य होने और फिर वर्ष 1989 में महरौली परिसर को संरक्षित विरासत क्षेत्र होने की घोषणा की। अप्रैल 1991 में भाटी माइंस का 840 हेक्टेयर का और अधिक क्षेत्र असोला अभयारण्य में शामिल किया गया।
अप्रैल 1993 में रिज प्रबंधन समिति (जिसे लवराज कुमार समिति के रूप में भी जाना जाता है) को नियुक्त किया गया। इस समिति ने अक्तूबर 1993 में दिल्ली रिज के प्रबंधन के लिए अपनी रिपोर्ट सौंपी। नवंबर, 1993 में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने दिल्ली प्रशासन को रिपोर्ट को पूरी तरह से लागू करने के निर्देश दिए। मई 1994 में, दिल्ली के उपराज्यपाल ने वर्तमान समय की सीमाओं के आधार पर भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 के तहत पूरे रिज को संरक्षित वन घोषित कर दिया। यह निर्णय रिज पर लवराज कुमार समिति की रिपोर्ट के अनुरूप लिया गया था। दिल्ली में हरित क्षेत्र के प्रबंधन का काम विभिन्न सरकारी एजेंसियों में बंटा हुआ है, जिसमें 5,050 हेक्टेअर क्षेत्र के लिए जिम्मेदार दिल्ली विकास प्राधिकरण रिज और यमुना नदी मुहाने पर प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण का कार्य किया है।
असोला-भाटी वन्य जीव अभयारण्य
दिल्ली दुनिया की अकेली महानगरीय राजधानी है जो अपनी नगरीय सीमा में एक वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र-छतरपुर के पास असोला भाटी वन्य जीव अभयारण्य-का दावा कर सकती है। असोला भाटी वन्य जीव अभयारण्य, पहला मानव निर्मित अभयारण्य होने के साथ एक समृद्व वन्य जीवन का भी पोशण करता है। इतना ही नहीं यह अरावली पहाड़ियों में एकमात्र संरक्षित क्षेत्र होने के साथ दिल्ली और उससे सटे उपनगरों के पर्यावसरण को साफ रखने वाले फेफड़ों का कार्य करता है। वर्ष 1986 में असोला भाटी वन्य जीव अभयारण्य को राजधानी के तीन गांवों और दक्षिणी रिज के एक हिस्से को मिलाकर बनाया गया। वर्ष 1991 में एक सरकारी अधिसूचना के भाटी क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का परिणाम राजधानी में 4845.58 एकड़ क्षेत्र वाले असोला भाटी वन्य जीव अभयारण्य के रूप में सामने आया। इस अभयारण्य के बनने से यहां और सुरक्षित वातावरण से यहां वऩ-वन्य जीवन में विविधता बढ़ी है।
Jayalalithaa supported construction of Ram Temple in Ayodhya
राम मंदिर_जयललिता_Ram Mandir_Jaylalita
अयोध्या में आज का राम मंदिर |
हम सैेद्धांतिक रूप में एक मंदिर निर्माण के पक्ष में है। अगर हम भारत में भगवान राम के लिए एक मंदिर का निर्माण नहीं कर सकते तो फिर हम इसे और कहाँ बना सकते हैं? यह (मंदिर) बनाया ही जाना चाहिए।
-तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने 29 जुलाई, 2003 को चेन्नई में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के समर्थन में कहा था।
Sunday, December 4, 2016
Saturday, December 3, 2016
History of Bird Watching in Delhi_दिल्ली में पंक्षी निहारन का इतिहास
आज के समय में पढ़े-लिखे भारतीय भी पक्षियों के नाम अंग्रेजी में ही जानते हैं जबकि भारत में प्राचीन काल से पक्षी प्रेम और पंक्षी निहारन (बर्डवाचिंग) की एक सशक्त परंपरा रही है। दुख की बात यह है कि हम आज न केवल व्यक्ति के रूप में बल्कि समाज के स्तर पर भी इस विरासत को बिसरा रहे हैं। हिंदू संस्कृति में पक्षियों का बहुत महत्व है। विभिन्न देवताओं के वाहन के रूप में उन्हें सम्मान मिलता रहा है यथा विष्णु का गरुड, ब्रह्मा और सरस्वती का हंस, कामदेव के तोता, कार्तिकेय का मंयूर, इंद्र तथा अग्निदेव का अरुण क्रुंच (फलैमिंगो), वरुणदेव का चक्रवाक (शैलडक)। ऋग्वेद में 20 पक्षियों तो यजुर्वेद में 60 पक्षियों का उल्लेख है।
आधुनिक समय में दिल्ली के समृद्ध पक्षी जीवन के विषय में सबसे पहले जानकारी पक्षी निहारने वाले आरंभिक समूहों, जिसमें स्वाभाविक रूप से अंग्रेज अधिक थे, की टिप्पणियों, नोट और सूचियों से मिलती है। वैसे अंग्रेजों के जमाने के सरकारी दिल्ली गजेटियर (वर्ष 1912) में यह बात दर्ज है कि सर्दियों में कलहंसों और बत्तखों को जहां कहीं भी रहगुजर के लिए पर्याप्त पानी मिलता था, वे वहीं डेरा जमा लेते थे।
वर्ष 1920 के दशक में सर बाॅसिल एड्वर्ड ने पांच महीने में ही 230 प्रजातियों के पक्षियों के नमूने जुटाए। तो सर एन.एफ. फ्रोम ने 1931-1945 की अवधि में कार्य करते हुए राजधानी की करीब तीन सौ प्रजातियों को सूचीबद्ध किया।
वर्ष 1950 में होरेस अलेक्जेंडर की पहल पर स्थापित दिल्ली बर्ड वाॅचिंग सोसाइटी ने मेजर जनरल एच.पी.डब्ल्यू. हस्टन की टिप्पणियों को ‘बड्र्स अबाउट दिल्ली’ के नाम से छापा। हटसन ने (1943-1945) के दौरान दिल्ली में पक्षी विज्ञान से संबंधित अपने सर्वेक्षण-अध्ययन में ओखला के पक्षियों को भी दर्ज किया।जबकि अंग्रेज़ राजदूत मैलकम मैकडोनाल्ड ने भी बगीचे वाले पक्षियों पर दो किताबें लिखी।
वर्ष 1975 में उषा गांगुली ने ‘ए गाइड टू द बर्डस आॅफ द दिल्ली एरिया’ पुस्तक में ओखला के जल पक्षियों के बारे में लिखते हुए 403 प्रजातियों को सूचीबद्ध किया। गांगुली ने अपने वर्गीकरण में 150 प्रजातियों को प्रवासी, 200 को स्थानीय और 50 की स्थिति अज्ञात के रूप में दर्ज की।
यह संख्या भारत में पाई जाने वाली पक्षियों की प्रजातियों की कुल संख्या का लगभग एक तिहाई हैं। फिर गैर सरकारी संगठन कल्पवृक्ष ने वर्ष 1991 में ‘द दिल्ली रिज फाॅरेस्ट, डिकलाइन एंड कन्जरवेशन ’ प्रकाशन में इस सूची को अद्यतन करते हुए पक्षियों की संख्या को बढ़ाकर 444 कर दिया। विशेष बात यह थी इन सूचीबद्ध पक्षियों में लगभग 200 प्रजातियां अकेले दिल्ली की रिज से थी, जो कि प्रवासी और स्थानीय प्रजातियों को आकर्षित करती है।
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए हिंदी में राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह की ‘भारत के पक्षी’, सालिम अली की ‘भारत के पक्षी’ (हिंदी अनुवाद), ‘पक्षी निरीक्षण’ (पर्यावरण शिक्षक केंद्र), विश्वमोहन तिवारी की ‘आनंद पंछी निहारन’ तो अंग्रेजी में खुशवंत सिंह की ‘दिल्ली थ्रू द सीजन्स’, रणजीत लाल की ‘बर्डस आॅफ दिल्ली’, समर सिंह की ‘गार्डन बर्डस आॅफ दिल्ली, आगरा एंड जयपुर’, मेहरान जैदी की ‘बर्डस एंड बटरफ्लाइज आॅफ दिल्ली’ को पढ़ा जा सकता है।
Intorelance_Nehru_Rajendra Prasad
इतनी असहिष्णुता!
भारत के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की 28 फरवरी 1963 को हुई मृत्यु के बाद देश के ही पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हुए।
इतने तक तो ठीक था पर नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर सर्वापल्ली राधाकृष्णन और राजस्थान के राज्यपाल डाक्टर संपूर्णानंद को भी अंत्येष्टि में शामिल न होने की सलाह दी।
फिर भी राधाकृष्णन तो अंतिम दर्शन को पहुंचे पर संपूर्णानंद को इससे वंचित ही रहे।
पुनश्च: विषय में विस्तार से जाने के लिए वाल्मिकी चौधरी की डाॅ राजेन्द्र प्रसाद पर संकलित दस्तावेजों और पत्राचार की पुस्तकें पढ़ी जा सकती है।
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
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