Saturday, February 25, 2017
Changing face of Delhi_समय की धार पर बदलती दिल्ली
Thursday, February 23, 2017
Ramjas College_Delhi_रामजस कॉलेज_कश्मीर
रामजस कॉलेज |
कश्मीर की आज़ादी चाहने वाले दिल्ली के रामजस कॉलेज की बजाए पाकिस्तान के गुलाम कश्मीर में जाकर नारा लगाएं तो कम से कम अपने देश की सरजमीं के कर्जे से तो मुक्त होंगे!
आजाद देश की राजधानी में ही देश तोड़ने के नाम पर आज़ादी के नारे बुलंद हो सकते हैं, गुलाम देश में तो हम-महजबी मजार भी जिंदगी की मार से अछूती नहीं है!
वैसे, शिक्षक_देश द्रोह का कु-पाठ!
इस विमर्श को क्या नाम देंगे?
Tuesday, February 21, 2017
Delhi connection of Chittaur Rajput Rani Padmini दिल्ली के इतिहास में रानी पद्मिनी
21022017, सांध्य टाइम्स |
आज यह बात पढ़कर किसी को भी हैरानी होगी कि भला मध्यकाल के चित्तौड़ के राणा रत्नसिंह की रानी पद्मिनी का दिल्ली से क्या नाता? हाल में ही हिंदी फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली की अलाउद्दीन खिलजी-पद्मिनी विषय पर केंद्रित फिल्म जयपुर में शूटिंग के दौरान हुई मारपीट के कारण सुर्खियों में थी। कथित रूप से इस ऐतिहासिक फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका में रणवीर सिंह है तो दीपिका पादुकोण पद्मिनी की भूमिका में है। राजपूत रानी पद्मिनी की कहानी का एक सिरा अमीर खुसरो के इतिहास से लेकर मलिक मुहम्मद जायसी तक के साहित्य तक फैला हुआ है।
अगर इतिहास को पलटे तो वर्ष 1296 में अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा और ससुर सुलतान जलालुद्दीन की हत्या करके दिल्ली की गद्दी पर काबिज हुआ। ऐसे में अलाउद्दीन ने अपने धतकरम को ढकने के लिए जहां दरबार के अमीरों को जमीने बांटी तो वही अमीर खुसरो को को खुसरो-ए-शौरा की उपाधि दी। वहीं दूसरी तरफ खुसरो ने यह भी कमाल दिखालाया कि दिल्ली की गद्दी पर एक के बाद दूसरे सुलतान प्रायः पहले सुलतान को कत्ल करके बैठे,लेकिन सरकारों की इस हिंसात्मक उठा-पटक में खुसरो बराबर राजकवि बना रहा और तरक्की भी करता रहा।
हिंदी साहित्य में अमीर खुसरो की पहचान ऐतिहासिक मनसवियों (पहेलियां) तक होने के कारण उसका इतिहासकार का पक्ष अनजाना है। जबकि सच्चाई यह है कि अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन को खुश करने की मंशा से 15 वर्ष के खिलजी शासन के इतिहास को अलंकृत शैली वाले गद्य में लिखा जो कि ‘‘खजायनुल फुतूह’’ (विजय कोश) और ‘‘तारीख-ए-अलाई’’के नाम से भी जाना गया। 1311 ई. में लिखे गए ‘‘खजायनुल फुतूह’’ में खुसरो ने दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन की 15 वर्ष की विजयों एवं आर्थिक सुधारों का वर्णन किया है। उसके वर्णन में पक्षपात की भावना दिखाई देती है। उसने अलाउद्दीन के सिर्फ गुणों पर प्रकाश डाला है, दोषों पर नहीं। उसने अलाउद्दीन के राज्यारोहण का वर्णन किया है, किन्तु जलालुद्दीन के वध का कोई उल्लेख नहीं किया है। इसके बाद भी यह महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है तथा तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
प्रसिद्ध हिंदी आलोचक विजयदेव नारायण साही अपनी पुस्तक ‘‘जायसी’’ में लिखते हैं कि सबसे बढ़कर खुसरो ने अलाउद्दीन की चित्तौड़ विजय का जो आंखों देखा हाल अपने खजायनुल-फतूह में लिखा था, उसी को जायसी ने पद्मावत की कथा का आधार बनाया। जायस के रहने वाले जायसी ने अपनी रचना कवि ने 947 हिजरी में की थी।
सन् नौ से सैंतालिस अहै।
कथा अरंभ बैन कवि कहै।
एक श्रेष्ठ काव्य पद्मावत की कथा का संक्षिप्त रूप जायसी ने स्वयं दे दिया है-
सिंहल दीप पदुमनी रानी,
रतनसेन चितउर गढ़ ज्ञानी।
अलाउदीं दिल्ली सुलतानूं,
राधौ चेतन कीन्ह बखानूं।
सुना साहि गढ़ छेंका आई,
हिन्दू तुरकहिं भई लराई।
आदि अंत जस कथा अहै,
लिखि भाषा चौपाई कहै।
पद्मिनी सिंहल द्वीप की रानी थी। रत्नसेन उसे चित्तौड़़ ले आये। दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन से राघवचेतन ने उसकी चर्चा की। उसने आकर गढ़ घेर लिया। हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई हुई। इसी कथा को जायसी ने विस्तार दिया है। जायसी और खुसरो में कितना अन्तर है, इसे समझने के लिए खुसरो के लिखित वृतांत को ध्यान में रखना आवश्यक है। खुसरो का वृत्तान्त अत्यन्त अलंकृत गद्य में है। उसका सरलीकृत अनुवाद इस प्रकार हैः
इस तारीख को विश्व-विजेता (अलाउद्दीन) ने चित्तौड़ की विजय के लिए डंका बजाने की आज्ञा दी और दिल्ली शहर से अपनी पवित्र ध्वजाओं को गतिमान किया। आकाश तक उठा हुआ सुलतान का काला छत्र उस क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और अपने दमामे की आवाज से, जो आकाश के कानों में गूँजती थी, सुलतान के दीन का सुसमाचार दिशाओं में गुंजरित करने लगा।
बादशाह ने अपना दरबार, जो आकाश के बादलों जितना ऊंचा था, उस जगह दोआबे के बीच स्थापित किया और उसके उल्लसित उत्साह से दोनों समुद्रों के किनारे तक भूकम्प आ गया। दाहिने और बायें की सेनाओं को आज्ञा दी कि गढ़ पर दोनों ओर से चढ़ाई करें। दो महीने में तलवार की बाढ़ के साथ पहाड़ी की कमर तक ही पहुंच सके और उसके ऊपर न जा सके। विचित्र गढ़ था कि पत्थरों की मार भी उसे तोड़ न सकी। इस धर्मयुद्ध का कुछ और अलंकृत वर्णन करने के उपरान्त खुसरो बतलाता है कि सोमवार तारीख 8 जमादि उस्सानी, हिजरी संख्या 702 (अर्थात् 28 जनवरी, 1303 ईस्वी) को किला फतेह हुआः
एक दिन में, बादशाह की प्रचण्ड आज्ञा से, लगभग तीस हजार दोजखी लोग काट दिए गए और खिज्राबाद (चित्तौड़) के मैदान में लगता था कि घास नहीं, लाशें उगी हैं। इस नीले दुर्ग की शाखाओं और जड़ों को महान साम्राज्य के महान वृक्ष खिज्र खां के हवाले कर दिया गया और दुर्ग का नाम खिज्राबाद रख दिया गया। बादशाह ने उन सभी हिंदुओं को, जो इस्लाम के वृत्त के बाहर पड़ते थे, कत्ल कर डालने का कर्तव्य काफिरों का वध करने वाली अपनी दोधारी तलवार को इस तरह सौंपा कि अगर आज के दिन राफिजी, अर्थात् भिन्न मत रखनेवाले नाम को भी इन काफिरों के हक की मांग करें, तो सच्चे सुन्नी लोग ईश्वर के इस खलीफा का समर्थन सौगन्ध खाकर करेंगे।
अमीर खुसरो ने जो कि चित्तौड़ युद्ध के समय सुल्तान अलाउद्दीन के साथ ही रहा था, इतना ही लिखा था कि भयंकर युद्व के बाद चित्तौड़ का किला सुलतान के हाथ लगा गया। अंग्रेज इतिहासकार जेम्स टॉड ने ‘‘एनल्स एण्ड एण्टिक्किटीज ऑफ राजस्थान’’ में लिखा है कि रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हिन्दू ललनाओं ने जौहर किया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को तो अधीन कर लिया पर जिस पद्मिनी के लिए उसने इतना संहार किया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसके नजर आई।
चित्तौड़ के किले के टूटने और जौहर का उल्लेख जायसी ने पùमावत के अन्त में इस दोहे से किया हैः
जौहर भईं इस्तिरी पुरूख भये संग्राम।
पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम।।
शायद जायसी के दोहे में अमीर खुसरो के शेर की स्मृति है। लेकिन दोनों की मनःस्थिति में भारी अंतर है। खुसरो काफिरों के खून से धुलकर पृथ्वी को पाक होता देखता है और उल्लसित होकर इस साम्राज्यवादी सत्ता-संघर्ष को इस्लाम की विजय मानता है। जौहर करती स्त्रियों के अनार की तरह कठोर स्तन ही उसे दीखते हैं और उनकी आवाज में ट्रैजिडि, व्यंग्य और एक गहरे विशाद का सम्मिश्रण है जो जायसी के इस्लाम और अलाउद्दीन में गम्भीर अन्तर की अनुभूति प्रस्तुत करता है।
जायसी का समूचा पद्ममावत अमीर खुसरो की इस मनोवृत्ति पर जबर्दस्त टिप्पणी है। खुसरो का एक प्रसिद्ध शेर हैः
मुल्के दिल करदी खराबज तीरे नाज
व-दरीं वीराना सुलतानी हनोज।
(तूने हदय के देश को अपने नाज की तलवार से उजाड़ डाला और अब इस वीराने में तू सुलतान बनकर बैठा है।)
इतिहासकार खुसरो पर सबसे अच्छी टिप्पणी गजल कहने वाले अमीर खुसरो का यह शेर ही है। जायसी की कथा का अन्त करने वाले दोहे में, जिसमें स्त्रियों जल गई, पुरूष संग्राम में लड़ मरे, दुर्ग चूर-चूर हो गया-और इस वीरान में इस्लाम के नाम पर सुलतान बैठा हुआ है,शायद अमीर खुसरो के इस प्रसिद्ध शेर की अनुगूंज है। अमीर खुसरो और जायसी के तुलनात्मक अध्ययन पर विस्तृत शोध की अपेक्षा है। लेकिन इसके संकेत काफी मिलते हैं कि जायसी के सामने खुसरो की कविता और अन्य रचनाएं, विशेषतः खजायनुल-फतूह थीं।
जायसी कवि और सन्त हैं, खुसरो सत्ता के चाटुकार कवि। जायसी ने पद्यावत में अलाउद्दीन खिलजी की जीत पर लिखा
जौहर भईं इस्तरी पुरूष भए संग्राम।
पात साहि गढ़ चूरा चितउस भा इस्लाम।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1303, 1535 और 1568 के चित्तौड़ के तीनों शासकों के अवसर पर पद्मिनी, कर्मावती एवं पत्ता तथा कल्ला की पत्नियों की जौहर कथा इतिहास जगत में प्रसिद्ध है। अकबर के समय तो जौहर ने इतना भीषण रुप धारण कर लिया था कि चित्तौड़ का प्रत्येक घर तथा हवेली जौहर स्थल बन गयी थी।
Sunday, February 19, 2017
inverse relationship of truth_power_सत्ता का सच
सत्ता का सच, सच से किसी को सत्ता नहीं मिली!
हाँ, सच बोलकर सत्ता चली जरूर गयी। विश्वनाथ प्रताप सिंह का उदाहरण सामयिक है।
"मंडल के सच" ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया और जातिवाद के नाम पर परिवार को बढ़ाते झूठे-चोर नेता पिछड़ा विरासत के पुरोधा बनकर सत्ता पर काबिज है।
आखिर किसी को विश्वनाथ प्रताप के बेटे का नाम याद है?
On the name of ideology_caste in University_जात न पूछो साधु की
Delhi University VC Office
बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर "विश्वविद्यालयों में सोचने समझने की जगह नहीं बचेगी" शीर्षक से मेरे आइआइएमसी के बैच की एक सहपाठी ने लेख साझा किया तो लगे हाथ मैंने भी लिख दिया.
कबीर ने कहा है न कि अब जात न पूछो साधु की. सो यहाँ भी "बस रंग बदलता है हर बार नहीं तो रवायत तो पुरानी ही चल रही है."
दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के बारे में ही कहा जाता है कि बिहार की एक जाति की विभाग अध्यक्ष बनने से विभाग में उसी जाति के व्यक्तियों के भर्ती किए जाने के परंपरा आज तक कायम है. भले ही अब वे विभाग अध्यक्ष अब दिवंगत हो गए हैं.
कहीं जाति के नाम पर कही परिवार के नाम पर बेटा, बहु और दामाद के दिल्ली विश्वविद्यालय में भर्ती होने के एक नहीं अनेक उदहारण हैं, जिन्हें लगता है लेखक ने जानबूझकर छोड़ दिया है. यही एकतरफा सोच का लेखन उसकी प्रासंगिता और उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है!
यह कुछ ऐसा ही है कि खुद गुलगले खाएं और दूसरे को गुड़ से परहेज बताएं. आखिर विश्वविद्यालय कितने व्यक्ति पढ़कर-लिखते हैं, कितने सही में अनुसंधान करते हैं, यह सब जगजाहिर है.
खासकर हिंदी में तो पंडितजी पैर लागू का ही जोर हैं, अच्छा लगे या बुरा सच तो यही है.
जो खुद पैरवी करके विश्वविद्यालयों में काबिज हुए हैं, अगर वे विश्वसनीयता की बात करेंगे तो यह उचित नहीं है.
उदाहरण के लिए जेएनयू में ही शिक्षकों में एक जाति विशेष के ही बहुमत में होने की कहानी उसके असली चरित्र को उजागर कर देती है.
पिछले तीन वर्षों में नियुक्त वीसी लिस्ट देखकर यह बात और सही साबित होती है. जेएनयू से लेकर हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय तक वीसी बनने की एक ही कहानी है.
Saturday, February 18, 2017
Asar us Sanadid_Syed Ahmed_History of Delhi_सैयद अहमद_दिल्ली का इतिहास
आज सैयद अहमद खाँ की पहचान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और मुस्लिम समाज में जागृति लाने वाले व्यक्ति के रूप में ही सीमित हो गई है। यह बात कम-जानी है कि सैयद ने दिल्ली में सदर अमीन के पद पर कार्य करते हुए दिल्ली के ऐतिहासिक भवनों पर अपनी पहली पुस्तक लिखी। 1847 में उर्दू में प्रकाशित ‘आसार-अल-सनादीद' पुस्तक में दिल्ली का संक्षिप्त इतिहास, उसकी प्रसिद्ध इमारतों, महलों, हवेलियों और स्मृतियों का सविस्तार वर्णन तथा 120 विद्धानों और योग्य व्यक्तियों का हाल लिखा गया है। उस दौर में फारसी-उर्दू में भी इस तरह की कोई किताब नहीं थी। दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज मानी जाने वाली इस पुस्तक का उसी नाम से सात साल बाद 1854 में एक संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण छपा।
"आसार-अल-सनादीद" में एक व्यापक प्रस्तावना, उसके बाद चार अध्यायों में बंटे मुख्य पाठ के साथ नमूने के तौर पर एक सौ से अधिक चित्रांकन है। इतना ही नहीं, दिल्ली के सबसे प्रतिष्ठित चार शहरियों के तारीफ करने वाले बयान भी हैं। ये सभी लेखक की तुलना में काफी उम्रदराज थे पर उन्होंने सैयद की युवा ऊर्जा और बुद्धि की मुक्तकंठ प्रशंसा की है। ये व्यक्ति हैं, लोहारू के नवाब जियाउद्दीन खान, जिनके समृध्द पुस्तकालय से हेनरी. एम. इलियट के शोध के लिए किताबें मिली। अंग्रेजों की दिल्ली में सबसे बड़े सरकारी ओहदेदार भारतीय मुफ्ती सदरूद्दीन अजरूदा, मशहूर शायर मिर्जा असदुल्ला खान गालिब और दिल्ली कॉलेज में फारसी के उस्ताद मौलवी इमाम बख्शी साहब। सैयद अहमद ने नवाब के प्रशंसात्मक गीत को तवज्जो देते हुए पुस्तक में उसे अपनी प्रस्तावना से पहले जगह दी। जबकि दूसरों का नाम पुस्तक के अंत में आया। हैरानी की बात यह है कि मुग़ल सम्राट बहादुर शाह दूसरे पर अपनी प्रविष्टि में सैयद अहमद ने अकारण मुगल सम्राट की वार्षिक आय कुल सोलह लाख तीन हजार रुपए की सटीक विवरण दिया है। और उसके बारे में एक अलग किताब में और अधिक लिखने के लिए वादा करते हुए यह बताते है कि वे एक किताब पर काम कर रहे है। वैसे इस बात का कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है कि ऐसी कोई किताब थी या कभी लिखी भी गई।
"आसार-अल-सनादीद" सैयद अहमद का पहला बड़ा प्रकाशन था, लेकिन यह उनकी पहली किताब नहीं थी। 1847 तक उनकी छह दूसरी पुस्तकें छप चुकी थी, जिनमें से पहली किताब दिल्ली और इतिहास से जुड़ी थी। सैयद ने अपने संरक्षक और अंग्रेज उच्चाधिकारी रॉबर्ट एन. सी. हैमिल्टन के कहने पर दिल्ली के शासकों के बारे में कालानुक्रमिक तालिकाओं वाली फारसी में एक संकलित की, जिसमें तैमूरलंग से लेकर बहादुर शाह दूसरा, जिसमें गैर-तैमूरी और पठान शासक भी शामिल थे। उन्होंने इसे जाम-ए-जाम का नाम दिया। अप्रैल 1839 में पूरी हुई यह किताब 1840 में प्रकाशित हुर्ह। इसमें लेखक का नाम मुंशी सैयद अहमद खान दिया गया था। इस पुस्तक के अंत में की गई टिप्पणी-यह छह महीने में पूरी की गई-से पता चलता है कि उस समय लिखवाई गई जब हैमिल्टन और सैयद अहमद दोनों दिल्ली में थे।
पुस्तक के अंत में, सैयद अहमद से इतिहास के उन उन्नीस पुस्तकों को सूची दी है, जिनमें से उन्होंने अपनी जानकारी जुटाई। इतना ही नहीं, उन्होंने कई अनाम पांडुलिपियों और व्यक्तियों से सलाह लेने का भी दावा किया है।
Asar-us-Sanadid - (The Remnants of Ancient Heroes) |
Thursday, February 16, 2017
Wednesday, February 15, 2017
Tuesday, February 14, 2017
Monday, February 13, 2017
school_children_media_स्कूल, बच्चे और मीडिया
स्कूल, बच्चे और मीडिया
मैं भी बस अभी अभी बच्चों को स्कूल छोड़ कर आ रहा हूँ. बस निकल गई सो स्कूल तक की दौड़ हो गई.
सुबह गाड़ी चलाना भी बाजीगिरी है.
महानगर में सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने से शुरू होने वाली अग्नि परीक्षा, दोपहर में दफ्तर की मूर्खता और शाम को फिर ट्रैफिक की मार क्या इसी जीवन को जीने के लिए हम यहाँ आए है?
पर शायद मीडिया के लिए यह कोई सवाल नहीं है. जब कोई बड़ा हादसा होगा राजधानी में.
स्कूल की बस नदी में गिरेगी तब फिर यह सवाल एकदिनी क्रिकेट मैच की तरह खेले जायेंगे!
पहले पेज से सम्पादकीय तक.
फिर सब मानो दोबारा लग जायेंगे फिर उसी महानगर की चूहा दौड़ में!
Saturday, February 11, 2017
History of Delhi University_दिल्ली विश्वविद्यालय का इतिहास
दिल्ली विवि का इतिहास
1911 में अंग्रेजों के कलकत्ता से अपनी राजधानी को दिल्ली लाने के राजनीतिक फैसले का दिल्लीवालों को एक शैक्षिक फायदा मिला। यह था, राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना। दिल्ली को अंग्रेजों की राजधानी के मिले नए दर्जे ने यहां पर पहले से चल रहे शिक्षा संस्थानों और उच्च शिक्षा के नए संस्थानों की स्थापना के इच्छुक व्यक्तियों में उम्मीद जगा दी। इसके बाद दिल्ली में एक विश्वविद्यालय होने की जरूरत पर एक बहस की शुरुआत भी हुई।
1922 में तत्कालीन केन्द्रीय लेजिस्लेटिव एसेम्बली में पारित एक अधिनियम के तहत एक एकात्मक, शिक्षण और आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। इस अधिनियम के अंर्तगत मुख्य प्रशासनिक अधिकारी कोर्ट, कार्यकारी परिषद और शैक्षणिक परिषद थे। साथ ही, डीयू के पहले कुलपति के रूप में नागपुर के एक प्रतिष्ठित बार-एट-लॉ डॉ हरि सिंह गौर के नियुक्ति के संबंध में एक अधिसूचना जारी की गई। वे चार साल (1922-26) कुलपति के पद पर रहे।
जब डीयू अस्तित्व में आया तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। इस तरह, तब तीन मान्यता प्राप्त डिग्री कॉलेजों सहित चार इंटरमीडिएट कॉलेजों में 750 छात्र पढ़ते थे। एक शैक्षिक संस्थान के हिसाब से हिंदू कॉलेज की स्थिति डंवाडोल थी। विश्व युद्व के बाद उसे अनेक गंभीर वित्तीय कठिनाइयों से गुजरना पड़ा लेकिन सनातन धर्म सभा के प्रयासों के कारण वह विद्यार्थियों को आकर्षित करने में सफल रहा। हिंदू कॉलेज सनातनी हिन्दुओं से मिली दानराशि से अपनी व्यवस्था चलाने में सक्षम हुआ।
1922 में दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए बनी “व्यय में कमी लाने वाली समिति” ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तरी भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए सुविधाओं की कोई कमी नहीं है और मौजूदा वित्तीय स्थिति एक नए विश्वविद्यालय को बनाने का कोई तुक नहीं है। समिति ने डीयू की योजना पर भारत सरकार को पुर्नविचार करने की सिफारिश की। जबकि कुलपति सहित दूसरे अधिकारियों ने एक ज्ञापन जारी करके समिति की टिप्पणियों के साथ असहमति जताई।
मजेदार बात यह है कि भारत सरकार के शिक्षा विभाग ने विश्वविद्यालय के बने रहने का पुरजोर समर्थन किया जबकि गृह और वित्त विभाग दोनों इसके विरोध में थे। 19 मार्च, 1923 को इस विषय को लेकर सेंट्रल असेम्बली में बहस हुई, जिसके बाद सर्वसम्मति से डीयू के बने रहने को मंजूरी दे दी गई। डीयू के खर्च के लिए पैसे की व्यवस्था केन्द्रीय राजस्व से करने का निर्णय हुआ। डीयू ने 1924-25 के अकादमिक सत्र में अपनी पहली परीक्षाओं आयोजित की, जिसका परिणाम संतोषजनक रहा।
अब दिल्ली में विश्वविद्यालय के बने रहने की बात एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया था। भारतीय उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला ने डीयू में लार्ड रीडिंग के नाम पर अर्थशास्त्र की एक पीठ स्थापित करने और उसके लिए दो साल तक 500 रूपए का वेतन देने का प्रस्ताव रखा। चीफ कमीश्नर ए.एम. स्टो ने बिड़ला के कांग्रेस से संबंधों को देखते प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया।
डीयू ने कम समय में ही अपना महत्व बना लिया था। यह बात विश्वविद्यालय की कोर्ट लिए होने वाले नामांकनों से ही विश्वविद्यालय की लोकप्रियता दिखती थी। 1923 में कुलपति लार्ड रीडिंग ने विभिन्न धार्मिक और सरकारी संगठनों की ओर से नामित सदस्यों (अधिकतम आठ) को तीन साल की अवधि के लिए अनुमोदित कर दिया।
Tuesday, February 7, 2017
Sunday, February 5, 2017
Rajput Mewar_Jauhar_Nirala_राजपूत वीरांगनाओं का जौहर_निराला_प्रताप
एक ओर मुगलों की हर्ष-ध्वनि हो रही थी, दूसरी ओर राजपूत वीरांगनाओं का जौहर!
चित्तौड़ गढ़ के टूटने पर बड़ा कोलाहल करते हुए मुगल सम्राट उस नगर के भीतर घुसे। उन्हें आशा थी कि तुर्की से आये हुए सिपाहियों के घर विधवा राजपूत-रमणियों से आबाद होंगे।
अकबर चित्तौड़ के अन्दर गये, तब उनकी सम्पूर्ण आशा धूल में मिल गयी, कुछ भी हाथ नहीं लगा। एकमात्र चतुर्भजी देवी के मंदिर का जलता हुआ दीपक और जन शून्य भवनों के विशाल अद्भुत कारीगरी के साक्षी दरवाजे, मुगल बादशाह की लुण्ठन वृत्ति को कुछ संतोष देने के लिए सजग खड़े थे। जैसे आत्माहुति के लिए वे भी तैयार होकर उस विपुल शून्यता में उसे ललकार रहे हों।
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महाराणा प्रताप उपन्यास में
सरोकार से कारोबार तक_Film Industry_marketing compulsions
रईस फिल्म का पोस्टर |
"चक दे इंडिया" से लेकर "रईस" तक. इन फिल्मों में पोलिटिकल मुस्लिम "ओवर टोन" साफ दिखता है. रईस एक गुंडा, मवाली था न कि कोई रोल मॉडल. बाकि आमिर खान ने अखाड़ों से हनुमानजी की प्रतिमा यूहीं गायब नहीं की, और न ही फोगट परिवार को मांसाहारी दिखाया है, पर्दे पर. जबकि पूरा परिवार शाकाहारी है.जब आमिर एक पत्नी छोड़कर, बिना वजह, दूसरी से शादी करता है तो वह "लार्जर देन लाइफ" की बात नहीं होती है. यह सब बाज़ार के सफल "कारोबारी" है जो अपनी फिल्म को बेचने के लिए घर, रिश्ते, महजब, देश से कुछ भी कर गुजरेंगे. इन्हें समाज-दीन-दुनिया के "सरोकार" से कोई लेना देना नहीं.शाहरुख़ की हाल की फिल्मों को देखकर तो यही सही लगता है कि वह भी अपने महजब को बाज़ार में बेचकर धंधा कर रहा है, उसकी फिल्मों की बॉक्स ऑफिस पर सफलता बताती है, की धंधा बखूबी चल रहा है.
Saturday, February 4, 2017
Padmini_No fiction but a historical fact_आख्यान या इतिहास: रानी पद्मिनी का सच!
दैनिक जागरण, 04022017 |
सन् 1296 में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा सुलतान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके दिल्ली की गद्दी को हड़प लिया। दिल्ली की मुस्लिम सल्तनत के लिए मेवाड़ के रूप में एक हिंदू शक्ति का होना एक चुनौती था। इसी हिंदू चुनौती को समाप्त करने के इरादे से खिलजी ने अगस्त 1303 ईस्वी में चित्तौड़ पर हमला किया।
इस हमले के दौरान अमीर खुसरो भी खिलजी के था। दिल्ली दरबार में हिंद के तोते के रूप में मशहूर खुसरो ने तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं को "खजाइन-उल-फतूह" में लिखा। यह"तारीख-ए-अलाई" के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस पुस्तक के अनुसार, जब दिल्ली के सुलतान ने चित्तौड़ किले का घेरकर किले को तोड़ने का प्रयास किया। इस भयंकर युद्ध में राणा रत्नसिंह सहित अनेक राजपूत योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। जेम्स टाड की पुस्तक "एनल्स एण्ड एण्टिक्किटीज ऑफ राजस्थान" के अनुसार, रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हिन्दू ललनाओं ने जौहर किया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को तो अधीन कर लिया पर जिस पद्मिनी के लिए उसने इतना संहार किया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसके नजर आई।
कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने इस कहानी को अनैतिहासिक कहकर अनेक कारणों से अस्वीकार किया है। पहला, अमीर खुसरो ने इस विषय में कुछ नहीं लिखा है। दूसरा, अन्य तत्कालीन लेखकों ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। कहानी मलिक मुहम्मद जायसी की लिखी हुई है, जिसने अपना "पद्मावत" 1540 में लिखा और सभी परवर्ती लेखकों ने उसी का अनुसरण किया।
ये तर्क अमीर खुसरो के ग्रंथों के उथले अध्ययन पर अवलम्बित है और युक्तिसंगत नहीं है। अमीर खुसरो अवश्य इस घटना की ओर संकेत करता है जबकि वह अलाउद्दीन की सुलेमान से तुलना करता है, सैबा को चित्तौड़ के किले के भीतर बताता है और अपनी उपमा उस 'हुद-हुद' पक्षी से देता है, जिसने यूथोपिया के राजा सुलेमान को सैबा की सुन्दर रानी विकालिस का समाचार दिया था।
खुसरो के वृतान्त से स्पष्ट है कि चित्तौड़ के किले पर अधिकार करने से पहले अलाउद्दीन उसके यानी खुसरो के साथ एक बार उसके भीतर अवश्य गया था-उस किले में, जिसके भीतर पक्षी भी उड़कर नहीं जा सकते थे। राणा जब अलाउद्दीन के खेमे में आया और उसने तभी समर्पण किया जब सुलतान किले के भीतर से वापस लौटा। राणा के हथियार डाल देने के उपरांत निराश अलाउद्दीन की आज्ञानुसार 30,000 राजपूतों का वध किया गया था।
उपयुक्त वृतांत की उचित समीक्षा करने से कहानी की मुख्य घटनाएं स्पष्ट हो जाती है। खुसरो दरबारी कवि था इसलिए उसने जो कुछ लिखा है, उससे अधिक लिखना उसके लिए संभव नहीं था। खुसरो ने अनेक अप्रिय घटनाओं जैसे दिल्ली में जलालुद्दीन के वध, मंगोलों के हाथों सुलतान की पराजय का उल्लेख नहीं किया है। इतिहासकार गौरीनाथ ओझा, के.एस. लाल और दूसरे लेखकों का यह कथन कि यह कहानी केवल जायसी की मनगढ़न्त थी, गलत है। सत्य तो यह है कि जायसी ने प्रेम काव्य की रचना की और उसका कथानक खुसरो के "खजाइन-उल-फतूह" से लिया था।
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...