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Delhi University VC Office |
बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर "विश्वविद्यालयों में सोचने समझने की जगह नहीं बचेगी" शीर्षक से मेरे आइआइएमसी के बैच की एक सहपाठी ने लेख साझा किया तो लगे हाथ मैंने भी लिख दिया.
कबीर ने कहा है न कि अब जात न पूछो साधु की. सो यहाँ भी "बस रंग बदलता है हर बार नहीं तो रवायत तो पुरानी ही चल रही है."
दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के बारे में ही कहा जाता है कि बिहार की एक जाति की विभाग अध्यक्ष बनने से विभाग में उसी जाति के व्यक्तियों के भर्ती किए जाने के परंपरा आज तक कायम है. भले ही अब वे विभाग अध्यक्ष अब दिवंगत हो गए हैं.
कहीं जाति के नाम पर कही परिवार के नाम पर बेटा, बहु और दामाद के दिल्ली विश्वविद्यालय में भर्ती होने के एक नहीं अनेक उदहारण हैं, जिन्हें लगता है लेखक ने जानबूझकर छोड़ दिया है. यही एकतरफा सोच का लेखन उसकी प्रासंगिता और उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है!
यह कुछ ऐसा ही है कि खुद गुलगले खाएं और दूसरे को गुड़ से परहेज बताएं. आखिर विश्वविद्यालय कितने व्यक्ति पढ़कर-लिखते हैं, कितने सही में अनुसंधान करते हैं, यह सब जगजाहिर है.
खासकर हिंदी में तो पंडितजी पैर लागू का ही जोर हैं, अच्छा लगे या बुरा सच तो यही है.
जो खुद पैरवी करके विश्वविद्यालयों में काबिज हुए हैं, अगर वे विश्वसनीयता की बात करेंगे तो यह उचित नहीं है.
उदाहरण के लिए जेएनयू में ही शिक्षकों में एक जाति विशेष के ही बहुमत में होने की कहानी उसके असली चरित्र को उजागर कर देती है.
पिछले तीन वर्षों में नियुक्त वीसी लिस्ट देखकर यह बात और सही साबित होती है. जेएनयू से लेकर हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय तक वीसी बनने की एक ही कहानी है.
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