1911 में अंग्रेजों के कलकत्ता से अपनी राजधानी को दिल्ली लाने के राजनीतिक फैसले का दिल्लीवालों को एक शैक्षिक फायदा मिला। यह था, राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना। दिल्ली को अंग्रेजों की राजधानी के मिले नए दर्जे ने यहां पर पहले से चल रहे शिक्षा संस्थानों और उच्च शिक्षा के नए संस्थानों की स्थापना के इच्छुक व्यक्तियों में उम्मीद जगा दी। इसके बाद दिल्ली में एक विश्वविद्यालय होने की जरूरत पर एक बहस की शुरुआत भी हुई।
1922 में तत्कालीन केन्द्रीय लेजिस्लेटिव एसेम्बली में पारित एक अधिनियम के तहत एक एकात्मक, शिक्षण और आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। इस अधिनियम के अंर्तगत मुख्य प्रशासनिक अधिकारी कोर्ट, कार्यकारी परिषद और शैक्षणिक परिषद थे। साथ ही, डीयू के पहले कुलपति के रूप में नागपुर के एक प्रतिष्ठित बार-एट-लॉ डॉ हरि सिंह गौर के नियुक्ति के संबंध में एक अधिसूचना जारी की गई। वे चार साल (1922-26) कुलपति के पद पर रहे।
जब डीयू अस्तित्व में आया तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। इस तरह, तब तीन मान्यता प्राप्त डिग्री कॉलेजों सहित चार इंटरमीडिएट कॉलेजों में 750 छात्र पढ़ते थे। एक शैक्षिक संस्थान के हिसाब से हिंदू कॉलेज की स्थिति डंवाडोल थी। विश्व युद्व के बाद उसे अनेक गंभीर वित्तीय कठिनाइयों से गुजरना पड़ा लेकिन सनातन धर्म सभा के प्रयासों के कारण वह विद्यार्थियों को आकर्षित करने में सफल रहा। हिंदू कॉलेज सनातनी हिन्दुओं से मिली दानराशि से अपनी व्यवस्था चलाने में सक्षम हुआ।
1922 में दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए बनी “व्यय में कमी लाने वाली समिति” ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तरी भारत में विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए सुविधाओं की कोई कमी नहीं है और मौजूदा वित्तीय स्थिति एक नए विश्वविद्यालय को बनाने का कोई तुक नहीं है। समिति ने डीयू की योजना पर भारत सरकार को पुर्नविचार करने की सिफारिश की। जबकि कुलपति सहित दूसरे अधिकारियों ने एक ज्ञापन जारी करके समिति की टिप्पणियों के साथ असहमति जताई।
मजेदार बात यह है कि भारत सरकार के शिक्षा विभाग ने विश्वविद्यालय के बने रहने का पुरजोर समर्थन किया जबकि गृह और वित्त विभाग दोनों इसके विरोध में थे। 19 मार्च, 1923 को इस विषय को लेकर सेंट्रल असेम्बली में बहस हुई, जिसके बाद सर्वसम्मति से डीयू के बने रहने को मंजूरी दे दी गई। डीयू के खर्च के लिए पैसे की व्यवस्था केन्द्रीय राजस्व से करने का निर्णय हुआ। डीयू ने 1924-25 के अकादमिक सत्र में अपनी पहली परीक्षाओं आयोजित की, जिसका परिणाम संतोषजनक रहा।
अब दिल्ली में विश्वविद्यालय के बने रहने की बात एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया था। भारतीय उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला ने डीयू में लार्ड रीडिंग के नाम पर अर्थशास्त्र की एक पीठ स्थापित करने और उसके लिए दो साल तक 500 रूपए का वेतन देने का प्रस्ताव रखा। चीफ कमीश्नर ए.एम. स्टो ने बिड़ला के कांग्रेस से संबंधों को देखते प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया।
डीयू ने कम समय में ही अपना महत्व बना लिया था। यह बात विश्वविद्यालय की कोर्ट लिए होने वाले नामांकनों से ही विश्वविद्यालय की लोकप्रियता दिखती थी। 1923 में कुलपति लार्ड रीडिंग ने विभिन्न धार्मिक और सरकारी संगठनों की ओर से नामित सदस्यों (अधिकतम आठ) को तीन साल की अवधि के लिए अनुमोदित कर दिया।
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