Saturday, July 29, 2017
18th century Bands of Delhi_कभी बांधों का घर थी दिल्ली
18 वीं शताब्दी में दिल्ली जिले के सभी भागों खासकर पहाड़ियों के नीचे या उसके पास के क्षेत्र में पानी के बांधों से सिंचाई एक प्रमुख विशेषता थी। सिंचाई का यह तरीका बारिश के पानी को एक स्थान पर संचित करने के सिद्धांत पर आधारित था। इससे स्थायी रूप से नमी पैदा होती या खेती वाले क्षेत्र को पानी उपलब्ध हो जाता था।
आज इस बात से सबको अचरज होगा कि उस दौर में दिल्ली में अंबरबाई, बिजवासन, महिपालपुर, मनकपुर, नारायणा, पालम और रजोकरी में बांध बने हुए थे। अंग्रेजों के जमाने में प्रकाशित (1884) "ए गजट ऑफ दिल्ली 1883-84" में इस बात का विशद् वर्णन मिलता है।
नजफगढ़ झील के प्रभारी ई॰ बैटी की वर्ष 1848 में लिखित एक रिपोर्ट में दो बड़े पहाड़ी बांधों-छतरपुर और खिरकी की एक मनोरंजक वर्णन है। इस रिपोर्ट में दूसरे बांधों का भी उल्लेख है, जिसे स्थानीय परिवेश से भली भांति परिचित व्यक्ति ही पहचान सकता है क्योंकि उनमें से अधिकांश खंडहर बन चुके हैं। इतना ही नहीं वे दूर दराज के क्षेत्रों में खोह-कंदराओं सहित ढलान वाली दुर्गम पहाड़ियों में फैले हुए हैं। कुछ की हालत इतनी खराब है कि उनकी मरम्मत नहीं हो सकती, कुछ इस लायक नहीं है लेकिन उनमें से कुछ को ठीक किया जा सकता है। अगर इनके प्रति उदासीनता के कारण आई खामियों को दूर कर दिया जाए तो अभी भी शानदार हालत वाले ये बांध उपयोगी और लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं।
अंग्रेजों के आगरा नहर के निर्माण के कारण दिल्ली क्षेत्र के मिट्टी के दो बड़े बांधों में से एक तिलपत को काफी क्षति पहुंची क्योंकि यह बांध के जल प्रवाह क्षेत्र का एक हिस्सा इसके बीच में पड़ता था। इसके अलावा तब की दिल्ली के दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में पहाड़ी बांध थे। इतना ही नहीं, "सेंटलमेंट रिपोर्ट" में भी नजफगढ़ झील और उसके जल निकासी क्षेत्र का वर्णन है।
1884 का गजट में लिखा है कि दिल्ली में अंबरबाई में एक बांध था, जिससे करीब 215 एकड़ क्षेत्र में सिंचाई होती थी। यह बांध इतना टूटा हुआ था कि इसकी मरम्मत संभव नहीं थी। जबकि बिजवासन बांध के क्षतिग्रस्त होने के बावजूद लगभग 300 एकड़ भूमि की सिंचाई होती थी। इसी तरह, महिपालपुर का बांध, एक बेहतरीन चिनाई वाला बांध था। लेकिन क्षतिग्रस्त होने के कारण उपेक्षित था। गजट के अनुसार, अगर इसकी अच्छी से देखभाल और संरक्षण हो तो इससे करीब 200 एकड़ जमीन की सिंचाई संभव है। मनकपुर का बांध एक आला दर्जे का बांध था जो कि बीच में से क्षतिग्रस्त हो गया था। इसके बावजूद यह करीब 100 एकड़ जमीन की सिंचाई की क्षमता रखता था।
वहीं नारायणा में मिट्टी का एक कच्चा बांध था। वर्ष 1861 में बनाया गया यह बांध वर्ष 1875 में टूट गया था। इसी तरह पालम में एक बड़ा टूटा हुआ बांध था। गजट लिखता है कि अगर इस बांध को पहाड़ियों की तरफ बनाए जाए तो उनकी ऊंचाई अधिक और मौजूदा स्थिति के मुकाबले उनका झुकाव पूर्व की तरफ ज्यादा होना चाहिए। जबकि रजोकरी बांध एक प्राचीन पर बहुत ही मजबूत चिनाई वाला बांध था जो कि आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त था। यही कारण था कि मरम्मत के लिए मुश्किल इस बांध में गहरी खाईयां बन गईं।
Wednesday, July 19, 2017
Delhi of Ruskin Bond_रस्किन बांड की दिल्ली
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड ने अपने लिखे गद्य साहित्य में आजादी से पहले अंग्रेजों की नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से उजड़कर आये हिन्दू-सिख शरणार्थी आबादी से बसी बाहरी दिल्ली के इलाके सहित तत्कालीन जनजीवन और समाज का प्रमाणिक वर्णन किया है।
रस्किन तब की नई दिल्ली के स्वरुप का बखान करते हुए बताते हैं कि 1943 में नई दिल्ली अभी भी एक छोटी जगह थी। मेडिंस, स्विस जैसे बड़े होटल पुरानी दिल्ली में ही थे। सड़कों पर केवल कुछ कारें ही दिखती थी। सैनिकों सहित अधिकतर लोग घोड़े जुते तांगे से सफर करते थे। जब हम रेल पकड़ने के लिए स्टेशन गए तो हमने भी तांगा लिया। नहीं तो वैसे हम पैदल ही जाते थे।
उन्होंने अपनी पुस्तक "सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ" (पेंगुइन से प्रकाशित) में बचपन में पहली बार दिल्ली आने का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब कालका-दिल्ली एक्सप्रेस दिल्ली में दाखिल हुई, तब मेरे पिता (रेल) प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी (रॉयल एयर फोर्स) की वर्दी में बेहद चुस्त लग रहे थे। और उन्हें स्वाभाविक रूप से मुझे देखकर काफी खुशी हुई।
दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में वे बताते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था। जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पी आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था।
रस्किन बांड अपने पिता की संगत में दिल्ली में फ़िल्में देखने के अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं कि वे सभी शानदार नए सिनेमाघर आसानी से पहुंच के भीतर थे और मेरे पिता और मैं जल्द ही नियमित रूप से सिनेमा जाने वाले दर्शक बन गए। हमने एक हफ्ते में कम से कम तीन फिल्में तो देखी ही होंगी।
उनके शब्दों में, पिता के डाक टिकटों के संग्रह की देख-रेख, उनके साथ फिल्में देखना, वेंगर्स में चाय के साथ मफिन खाना, किताब या रिकार्ड खरीदकर घर लाना, भला एक आठ साल के छोटे-से बच्चे के लिए इससे ज्यादा क्या खुशी की बात हो सकती थी?
इतना ही नहीं, रस्किन ने उस ज़माने की पैदल सैर के बारे में भी लिखा है। पुस्तक के अनुसार, उन दिनों में आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था, और नई राजधानी के घेरे में मौजूद दूसरे पुराने मकबरों और स्मारकों का भी यही हाल था।
मेरे पिता ने निर्जन पुराना किला में मुझे हुमायूं के पुस्तकालय से नीचे आने वाली तंग सीढ़ियां दिखाई। यही बादशाह की फिसलकर गिरने के कारण मौत हुई थी। हुमायूं का मकबरा भी ज्यादा दूर नहीं था। आज वे सभी नई आवासीय क्षेत्रों और सरकारी कॉलोनियों से घिर गए हैं और शोरगुल वाले यातायात को देखना सुनना एक अद्भुत अनुभव है।
इसी तरह बाहरी दिल्ली के बारे में सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे पर सच यही है कि दिल्ली के राजौरी गार्डन में कभी कोई गार्डन नहीं था। रस्किन बांड ने अपनी आत्मकथा “लोन फॉक्स डांसिंग” (प्रकाशक:स्पीकिंग टाइगर) ने इस बात की ताकीद की है। उनके ही शब्दों में, “ हम (मेरी मां, सौतेले पिता, भाई और बहन) तब की नई दिल्ली के सबसे दूसरे किनारे यानी नजफगढ़ रोड पर राजौरी गार्डन नामक एक शरणार्थी कॉलोनी में रह रहे थे। यह 1959 का समय था जब राजौरी गार्डन में पश्चिमी पंजाब के हिस्सों, जो कि अब पाकिस्तान है, से उजड़कर आए हिंदू और सिख शरणार्थियों के बनाए छोटे घर भर थे। यह कोई कहने की बात नहीं है कि यहां कोई गार्डन यानी बाग नहीं थे।”
आत्मकथा के अनुसार, हरियाणा और राजस्थान के गर्म-धूल भरी हवाओं से इस पेड़विहीन कॉलोनी की हालत खराब थी। यहां आकर रहने वाले शरणार्थियों को भारत में नए सिरे से जमने, काम शुरू करने या छोटे मोटे धंधों को खड़ा करने में काफी मेहनत करनी पड़ी। ऐसे में, उनके पास फूलों के लिए समय नहीं था और बाहरी लोगों के लिए और भी कम। लेकिन उनमें से कुछ ने अपने घरों के कुछ हिस्सों को किराए पर दे दिया।
रस्किन बताते हैं कि कम किराए के उस समय में, मेरे सौतेले पिता ने (राजौरी गार्डन में) तीन कमरे का एक घर किराए पर लिया, जिसमें एक छोटा आंगन और एक हैंडपंप भी था। उस हैंडपंप ने समूचा फर्क पैदा किया क्योंकि दिल्ली में पानी हमेशा से एक समस्या थी (और आज भी है)। हैंडपंप का पानी साफ था, जिसे खाना बनाने, कपड़े धोने-नहाने और उबलाकर पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता था। मुझे पानी या खाने के कारण पेट की परेशानी (किसी दूसरे को ऐसी समस्या नहीं थी) नहीं थी, वह तो सीधे सीधे असंतोष और निराशा थी।
उस समय के आस-पास की हरियाली के माहौल का वर्णन करते हुए रस्किन बांड कहते हैं कि मुझे राजौरी गार्डन के नजदीक और अधिक बेहतर दृश्य दिखाई दिए। नजफगढ़ रोड की एक तरफ यह घर बने हुए थे। दूसरी तरफ, अभी तक आबादी की बसावट न होने के कारण गेहूं और दूसरी फसलों के बड़े खेत थे जो कि पश्चिम और उत्तर की दिशा की ओर तक फैले हुए थे। मैं मुख्य सड़क को पार करके खेतों में जाकर पुराने कुएं-सिंचाई की नहरें खोजने चला जाता था। जहां पर मैं यदाकदा दिखने वाले बिजूका सहित पक्षियों और छोटे जीवों को निहारता था, जिनका बसेरा अब शहर से बाहर था।
नजफगढ़ रोड से कुछ नीचे जाने वाले रास्ते पर गांव का एक बड़ा तालाब था और इसके पास एक भव्य बरगद का पेड़ था। इस तरह का पेड़ आपको किसी भी शहर में नहीं मिलेगा क्योंकि स्वस्थ बरगदों को अपनी डाल-टहनियों के फैलाव और सहजता से पनपने के लिए काफी स्थान की आवश्यकता होती है। मैंने इससे बड़ा बरगद कभी नहीं देखा था और मुझे यह बात बहुत अच्छे से पता चल चुकी थी। उसकी सैकड़ों टहनियां तनों को सहारा दिए हुए थी और उनके ऊपर पत्तों का एक विशाल मुकुट सरीखी छतरी थी।
ऐसी कहावत है कि एक पुराने बरगद की छाया में पूरी सेना आश्रय ले सकती हैं और शायद एक समय में उन्होंने ऐसा किया भी। यहां मुझे एक अलग तरह की सेना दिखाई दी। इसमें मैना, स्कील, बुलबुल,गुच्छेदार चिड़ियों सहित दूसरे अनेक पक्षी थे जो कि पेड़ पर लाल अंजीरों को खाने के लिए एक साथ जुटते थे। इस पेड़ की छाल पर गिलहरियां ऊपर-नीचे उछलती कूदती रहती तो कभी दमभर सांस लेने के लिए पल भर रूकती। रंगीले तोते पेड़ पर आते जाते चिल्लाहट मचाए रखते क्योंकि उनको ऐसा ही करना होता था।
उसके और आगे जाकर एक बड़ी झील थी। यहां कोई भी बबूल या कीकर के पेड़ की छांव में आराम करते हुए कौडिल्ली पक्षी को पानी में गोता लगाकर छोटी मछलियों का शिकार करते हुए देख सकता था। मैं इन खूबसूरत पक्षियों में से एक को पेड़ की लटकने वाली टहनी या चट्टान पर धैर्य से बैठकर प्रतीक्षा करते और फिर पानी में तीर की गति से गोता मारकर अपने शिकार को पकड़ने के बाद वापिस अपने स्थान पर लौटता देखता।
Sunday, July 16, 2017
Purana Qila Bawali_Delhi_पुराने किले की बावड़ी
पुराने किले की बावड़ी
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आज जब दिल्ली में नए सिरे से पानी की हरेक बूंद को सहेजने की जरूरत महसूस की जा रही है, ऐसे में पुराने किले के भीतर आज भी एक उपयोग लायक बावड़ी की उपस्थिति एक हैरान कर देने वाली बात है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक “दिल्ली के स्मारक” के अनुसार, कला-ए-कुहना मस्जिद की ओर जाने वाले रास्ते के दक्षिण 22 मीटर गहरी बावड़ी है। इसका जलग्रहण क्षेत्र लगभग समूचे किले में विस्तृत है और वर्षा का पानी संचय करता है। इसमें भूमिगत स्त्रोतों से भी पानी आता होगा। जफर हसन ने भी अपनी किताब में इस बावली का उल्लेख किया है।
दिल्ली क्वार्टजाइट पत्थरों वाली इस बावली में तल तक जाने के लिए 89 सीढ़ियां हैं। इस बावड़ी के उत्तर पूर्वी छोर की ओर कुंआ बना हुआ है। यह बावड़ी इस तरह बनी हुई है कि इसके अंदर बने कुंए में जमीन के अंदर के प्राकृतिक स्त्रोतों के अलावा बरसात के दौरान किले में एकत्र होने वाला पानी भी आ सकता है।
इंटैक की पुस्तक “दिल्ली द बिल्ट हेरिटेजः ए लिस्टिंग” भाग-एक पुस्तक के अनुसार, इस कुंए के पानी का आज भी उपयोग हो रहा है, जिसमें पंप से पानी निकाला जाता है। 1541 में शेरशाह की बनाई पुराने किले की मस्जिद के सामने घोड़े की नाल के आकार वाली मेहराबों सहित पांच दरवाजे हैं। मूलरूप से इसके आंगन में एक उथला तालाब मौजूद था जिसमें एक फव्वारा लगा था।
"नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली" पुस्तक के मुताबिक जब इस किले के अंदर लोग रहते थे तो यह बावड़ी काम के लायक नहीं रह गई थी। इसमें कूड़ा और गाद भर गई थी। बाद में इसे साफ किया गया। यह बावड़ी दिल्ली पर शेरशाह सूरी के शासन के दौरान करीब 1540 में बनाई गई मानी जाती है। इस बावड़ी का प्रयोग दिल्ली के दो शहरों की स्थापना करने वाले बादशाहों के राज में किया गया।
Saturday, July 15, 2017
East India Company's Delhi_कंपनी बहादुर राज की दिल्ली
Charles Ramus Forrest_painting_Delhi_1808 |
11 सितंबर 1803 को जनरल जेरार्ड लेक के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज ने हिंडन के किनारे हुए पटपटगंज युद्ध में मराठों को पराजित करने के तीन दिन बाद मुगल हुकूमत को चलाने वाली ताकत के रूप में दिल्ली में प्रवेश किया।
उस समय तक विदेशी ईस्ट इंडिया कंपनी का राज यमुना नदी के पश्चिम से लेकर दिल्ली के उत्तरी-दक्षिणी हिस्से तक फैल चुका था। दिल्ली पर कब्जा होने के साथ अंग्रेजों ने कठपुतली बादशाह शाहआलम को अपनी देखरेख में लेने के नाम पर मुगल बादशाह के दूसरे इलाकों को भी हस्तगत कर लिया।
इस काम को अमली जामा पहनाने की व्यवस्था के बारे में 2 जनवरी 1805 को कलकत्ता के फोर्ट विलियम से भेजे एक पत्र में लॉर्ड वेलजली ने कहा कि गवर्नर-जनरल ने कांउसिल में एक व्यवस्था को अपनाने की बात तय की है। जिसके तहत यमुना नदी के दाहिने किनारे पर स्थित दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों का एक खास हिस्से को शाही परिवार के भरण-पोषण के लिए सुरक्षित रखा गया।
जबकि हकीकत में यह भूभाग दिल्ली के अंग्रेज रेसिडेंट के तहत था। जिसका असली काम मुग़ल बादशाह के नाम पर कंपनी के लिए वसूली करना था। मुगल बादशाह को दिखावे के लिए एक दीवान सहित कुछ कर्मचारी रखने की अनुमति दी गई। जिनका काम अंग्रेज कलेक्टर कार्यालय में जाकर जमा होने वाली वसूली की रकम के बारे में बादशाह को सूचित करना भर था।
दिल्ली शहर के नागरिकों और नियत क्षेत्र की नागरिक और आपराधिक न्याय की व्यवस्था के लिए दो अदालतें बनाई गई। आपराधिक अदालतों में बिना बादशाह की अनुमति के किसी को भी मौत की सजा नहीं दी जा सकती थी। इस व्यवस्था में मुगल बादशाह से हस्तांतरित क्षेत्र, जो कि बाद में दिल्ली क्षेत्र के नाम से जाना गया, को 1805 के बाद दिल्ली के चीफ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया।
एक तरह से, दिल्ली की पूरी वित्तीय व्यवस्था अंग्रेज रेसिडेंट के नियंत्रण में थी। इस हस्तांतरित इलाके में समूची दिल्ली और हिसार डिवीजन शामिल थी जबकि सिरसा और भाटियों के अधिकार वाला हिसार का कुछ हिस्सा तथा स्वतंत्र सिख सरदारों का करनाल वाला हिस्सा इससे अलग था। दिल्ली के बादशाहों या मराठों की ओर से कुछ सरदारों को दी गई जागीरें भी अपवाद स्वरुप इससे अलग थी। जिनमें राजा वल्लभगढ़ की रोहतक (झज्जर) और बेगम समरू की गुड़गांव की जागीरें थीं।
1832 तक दिल्ली में यह व्यवस्था कायम रही। उसी वर्ष रेगुलेशन पांच के तहत उत्तर-पश्चिमी सूबे की सरकार के सामंजस्य में अंग्रेज़ रेसिडेंट ने मुख्य आयुक्त के रूप में अधिकारों, जो कि बोर्ड ऑफ रेवेन्यू तथा आगरा के सदर कोर्ट में निहित थे, का उपयोग किया। इस अधिनियम के साथ ही अंग्रेजी प्रशासन की विषमता खत्म हो गई और ईस्ट इंडिया कंपनी विधिवत रूप से दिल्ली की प्रशासक बन गई।
वैसे 1858 तक दिल्ली, उत्तर पूर्वी सूबा सरकार के अधीन एक हिस्सा बनी रही। जब आजादी की पहली लड़ाई (1857) में अंग्रेजों ने भारतीयों को पराजित करके दोबारा दिल्ली पर अपना अधिकार किया तो एक बार फिर दिल्ली को पंजाब के नवगठित लेफ्टिनेंट-गवर्नर राज में मिला लिया गया।
Monday, July 10, 2017
dalits_failure of semetic religions in india_सामी महजब_सामाजिक बराबरी के मोर्चे पर मात
लाख टके का सवाल है कि क्या वैश्विक स्तर पर सामी महजब जैसे इस्लाम-ईसाईयत समाज में पिछड़े-अगड़े के विभाजन को मानते हैं?
नहीं, क्योंकि 'अहले-किताब' में ऐसे किसी कृत्रिम विभाजन का कोई स्थान नहीं।
जबकि हक़ीक़त में हिन्दू समाज के दलित-पिछड़े वर्ग से मतांतरित, चाहे जबरन या मनमर्जी या हालात से, हुए व्यक्ति के सामाजिक स्तर में मुसलमान-ईसाई बनकर भी शतांश कोई अंतर नहीं आया।
भारतीय मुसलमानों भी अशरफ और अजलाफ़ में विभाजित है। यानि हक़ीक़त में शेख, सैयद, मुग़ल, पठान का निकाह किसी धोबी, जुलाहा या नाई से नहीं होता।
वहीं दूसरी तरफ, केरल के सबसे पुराने चर्च ने हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की नानी के निधन के बाद उन्हें हिन्दू से विवाह करने के कारण ही अपने ईसाई कब्रिस्तान में दफनाने नहीं दिया।
देश के प्रख्यात समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने माना था कि प्रछन्न रूप से भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों में अप्रत्यक्ष रूप से जाति प्रथा की स्वीकृति दी गई है।
इसी तथ्य को बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने रेखांकित करते हुए कहा कि देसी मुसलमान अपने को दो मुख्य सामाजिक विभाजन, अशरफ या शरफ और अजलाफ़ के तौर पर पहचानते हैं। अशरफ का मतलब "संभ्रांत" है जिसमें असंदिग्ध रूप से विदेशी मूल और ऊँची जाति के धर्मान्तरित हिंदुओं के सभी वंशज शामिल है। बाकि सभी मुसलमानों, जिसमें पेशेवर समूहों और नीची जातियों के सभी धर्मान्तरित शामिल हैं, को तिरस्कारपूर्ण नामों "अजलाफ़," "निर्लज्ज" या "छोटे लोग" से जाना जाता है। उन्हें कमीना या इतर भी कहा जाता है।
सो, लाख टके का सवाल है कि सामी महजब अपने भीतर इन कथित दबे-कुचले व्यक्तियों को इतने बरसों के बाद भी सामाजिक बराबरी देने में विफल क्यों रहे हैं?
इस सवाल पर दूर-दूर तक मौन है!
मस्जिद से लेकर चर्च तक, अजान से लेकर घंटे की आवाज़ में समाया मौन, अब भले दे सके जो सवाल का सही उत्तर जब कोई दलित पूछे ऐसा क्यों और कौन ?
Saturday, July 8, 2017
Water in British Delhi_अंग्रेजी राज में दिल्ली का पानी
08072017, दैनिक जागरण
1803 में दिल्ली पर अंग्रेज कंपनी ईस्ट इंडिया के कब्जे के बाद कठपुतली शासक मुगल बादशाह भी कंपनी की सरपरस्ती में आ गया। लाल किले से पालम तक की बादशाहत का नतीजा यह हुआ कि राजधानी में पानी की देखरेख और रखरखाव की जिम्मेदारी दोनों में से किसी भी न रही।
अंग्रेजों के राजधानी में नागरिकों को पानी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था को खत्म करने से स्थितियां बद से बदतर हुई। अंग्रेजों से पहले करीब 350 तालाब दिल्ली में थे। अंग्रेजों ने पहले की पानी को निशुल्क उपलब्ध करवाने की विकेन्द्रीकृत प्रणाली को खत्म कर दिया। इतना ही नहीं, पानी पिलाने को समाज सेवा मानने के बदले अपनी कर व्यवस्था में उसका भी मोल तय कर दिया।
अंग्रेजों ने प्राकृतिक संसाधनों के सार्वजनिक उपयोग के स्थान पर सभी संसाधनों पर अपना दावा किया। इसका नतीजा पानी के सभी स्तरों पर कराधान का एक विषय बनने के रूप में सामने आया।
1817 में अंग्रेजों ने दिल्ली में नहर का पुर्ननिर्माण करवाया, जिससे 1820 में फिर से शहर में नहर से पानी की आपूर्ति होने लगी। उस समय तक धनी लोगों ने अपने उपयोग के लिए यमुना से पानी लेना शुरू कर दिया था। 1846 में एक अंग्रेज अधिकारी एलेनबरो ने लाल किले के लाहौरी गेट के दक्षिण और दिल्ली गेट के बीच में एक तालाब बनवाया जो लाल डिग्गी के नाम से मशहूर था।
1857 की आजादी की पहली लड़ाई के बाद दिल्ली पर अंग्रेजों के दोबारा कब्जा हो गया। फिर बदले की भावना में अंग्रेजों ने लाल किले के आस पास बने सभी महलों और हवेलियों को ढहा दिया गया। इस तरह धीरे-धीरे गाद भर जाने और नहर से पानी की आमद खत्म होने के कारण एलेनबरो का तालाब बंद हो गया।
दिल्ली में अंग्रेज आबादी की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को दूर करने के हिसाब से पहली बार सिविल लाइन्स और छावनी क्षेत्र के लिए अलग से जल और मल की निकासी की व्यवस्था की गई। सन् 1869 में दिल्ली म्युनसिपिल कमेटी ने एक सिविल इंजीनियर क्रास्टवेट के राजधानी के लिए जल आपूर्ति योजना के एक प्रस्ताव को मंजूरी दी। वह नदी के किनारे पर डूब क्षेत्र में कुंए बनाकर पानी की नियमित आपूर्ति करना चाहता था, जहां कि शुद्ध पानी की अंतर्धारा पूरे साल उपलब्ध थी।
अंग्रेजी राज में दिल्ली में नल लगने लगे थे। यही कारण है कि तब के विवाह गीतों में उसका विरोध दिखाई देता है। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां गीत गाती थीं, फिरंगी नल मत लगवाय दियो। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों के वॉटर वर्क्स से पानी आने लगा। अहमद अली की ”ट्विलाइट इन दिल्ली” के अनुसार, तीसरे दिल्ली दरबार में शिविरों में पानी की व्यवस्था के लिए ८० किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और ४८ किलोमीटर की पानी की पाइप लाइनें डाली गईं।
तब अंग्रेजों ने केवल आज की पुरानी दिल्ली को ही पानी उपलब्ध करवाया था। इस तरह, राजधानी की एक तिहाई आबादी पीने के पानी की व्यवस्था से वंचित थी। यह अंग्रेजी राज की सामाजिक विद्रूपता थी, जहां उपनिवेशवादी शासन में शासक (गोरे अंग्रेज) और शासित (काले भारतीय) में नस्लीय और व्यवहार के स्तर पर भेदभाव गहरा था।
Raja Garden without a garden_बिना गार्डन वाला, राजौरी गार्डन
दैनिक जागरण_08072017 |
सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे पर सच यही है कि दिल्ली के राजौरी गार्डन में कभी कोई गार्डन नहीं था। प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड ने अपनी आत्मकथा “लोन फॉक्स डांसिंग” (प्रकाशक:स्पीकिंग टाइगर) ने इस बात को सत्यापित किया है.
उनके ही शब्दों में, “ हम (मेरी मां, सौतेले पिता, भाई और बहन) तब की नई दिल्ली के सबसे दूसरे किनारे यानी नजफगढ़ रोड पर राजौरी गार्डन नामक एक शरणार्थी कॉलोनी में रह रहे थे। यह 1959 का समय था जब राजौरी गार्डन में पश्चिमी पंजाब के हिस्सों, जो कि अब पाकिस्तान है, से उजड़कर आए हिंदू और सिख शरणार्थियों के बनाए छोटे घर भर थे। यह कोई बताने की बात नहीं है कि यहां कोई गार्डन यानी बाग नहीं थे।”
आत्मकथा के अनुसार, हरियाणा और राजस्थान के गर्म-धूल भरी हवाओं से इस पेड़विहीन कॉलोनी की हालत खराब थी। यहां आकर रहने वाले शरणार्थियों को भारत में नए सिरे से जमने, काम शुरू करने या छोटे मोटे धंधों को खड़ा करने में काफी मेहनत करनी पड़ी। ऐसे में, उनके पास फूलों के लिए समय नहीं था और बाहरी लोगों के लिए और भी कम। लेकिन उनमें से कुछ ने अपने घरों के कुछ हिस्सों को किराए पर दे दिया।रस्किन बताते हैं कि कम किराए के उस समय में, मेरे सौतेले पिता ने (राजौरी गार्डन में) तीन कमरे का एक घर किराए पर लिया, जिसमें एक छोटा आंगन और एक हैंडपंप भी था। उस हैंडपंप ने समूचा फर्क पैदा किया क्योंकि दिल्ली में पानी हमेशा से एक समस्या थी (और आज भी है)। हैंडपंप का पानी साफ था, जिसे खाना बनाने, कपड़े धोने-नहाने और उबलाकर पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता था। मुझे पानी या खाने के कारण पेट की परेशानी (किसी दूसरे को ऐसी समस्या नहीं थी) नहीं थी, वह तो सीधे सीधे असंतोष और निराशा थी।
Tuesday, July 4, 2017
Story of Najafgarh drain turning into a dirty source of water_नजफगढ़ नहर की नाले में बदलने की व्यथा-कथा
सांध्य टाइम्स, 4 जुलाई 2017 |
दिल्ली की नई पीढ़ी इस बात से अनजान ही है कि राजधानी में यमुना नदी के बाद पानी का सबसे बड़ा जल स्रोत नजफगढ़ झील होती थी। इतना ही नहीं, आज जल प्रदूषण के लिए कुख्यात नजफगढ़ नाला कभी इस झील को नदी से जोड़ने वाला माध्यम था। यह नाला कभी राजस्थान की राजधानी जयपुर के जीतगढ़ से निकलकर अलवर, कोटपुतली से वाया हरियाणा के रेवाड़ी और रोहतक से होते हुए नजफगढ़ झील व वहाँ से राजधानी की यमुना नदी से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के माध्यम से नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना नदी में मिलता था। इस नदी के जरिए नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था।
आमतौर पर बरसात के दिनों में इस इलाके में ‘साहिबी नदी’ का पानी भर जाया करता था। साहिबी नदी का पानी अलवर से गुड़गांव के रास्ते होकर इस झील तक पहुंचा करता था। बरसात के दिनों में छावला और उसके आस-पास के गाँवों में मीलों दूर तक पानी भरे रहने के दृश्य को देखने वाले लोग आज भी हैं। वे याद करते हैं कि तब बरसात में यह इलाका कितना खूबसूरत और बाद में हरा-भरा दिखा करता था। जैसे-जैसे सर्दी आती थी, इस इलाके में पानी का स्तर कम होता जाता था क्योंकि नजफगढ़ ड्रेन के जरिए बहकर पानी यमुना की ओर निकलता जाता था।
सन् 1912 के आसपास दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आई व अंग्रेजी हुकूमत ने नजफगढ़ नाले को गहरा कर उससे पानी निकासी की जुगाड़ की। उस दौर में इसे नाला नहीं बल्कि ‘नजफगढ़ लेक एस्केप’ कहा करते थे। जिस साल बारिश कम होती थी, उन सालों को छोड़ दिया जाए तो इस झील से पानी की निकासी के बावजूद बहलोलपुर, दाहरी और जौनापुर गाँवों के दक्षिण में हमेशा झील का पानी भरा रहता था ।
पहले तो नहर के जरिए तेजी से झील खाली होने के बाद निकली जमीन पर लोगों ने खेती करना शुरू की फिर जैसे-जैसे नई दिल्ली का विकास होता गया, खेत की जमीन मकानों के दरिया में बदल गई। इधर आबाद होने वाली कालेानियों व कारखानों का गन्दा पानी नजफगढ़ नाले में मिलने लगा और यह जाकर यमुना में जहर घोलने लगा।
यही से नजफगढ़ झील और प्राकृतिक नहर के नाले में बदलने की व्यथा-कथा शुरू हुई। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसे नाला तो दिल्ली के विकास के साथ बना दिया गया है। उसी का नतीजा था कि वर्ष 2005 में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नजफगढ़ नाले को भारत के सबसे अधिक प्रदूषित 12 वेटलैंड में से एक बताया। यहां तक कि हरियाणा की पिछली कांग्रेस सरकार ने तो राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में एक मुकदमे के दौरान दाखिल किए अपने हलफनामे में नजफगढ़ झील के होने को ही इंकार करते हुए उसे बारिश के अतिरिक्त जल के जमा होने का निचला हिस्सा मात्र बताया। जिस पर न्यायाधीश ने सरकार से ही पूछ लिया था कि यदि यह झील नहीं है तो आखिर झील किसे कहेंगे।
इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जो आज गुडगाँव के सेक्टर 107, 108 से लेकर दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें व सरिता थीं, जो दिल्ली की जमीन, आबोहवा और गले को तर रखती थीं। हरियाणा के झज्जर की सीमा से पाँच मील तक नजफगढ़ झील होती थी जो और आठ मील बुपनिया और बहादुरगढ़ तक फैल जाया करती थी। सांपला को तो यह झील अक्सर डुबोये रखती थी, 15 से 30 फुट तक गहरा पानी इस झील में भर जाया करता था। उधर झज्जर के पश्चिम में जहाजगढ़, तलाव, बेरी, ढ़राणा, मसूदपुर तक के पानी का बहाव भी झज्जर की ओर ही होता था। झील को घेर कर बनाए गए उपनगरों में जब पानी की कमी हुई तो धरती का सीना चीर कर पाली उलीछा गया। आखिर उसकी भी सीमा थी, आज नजफगढ़ व गुड़गाँव में ना केवल भूजल पाताल में पहुँच गया है, बल्कि नजफगढ़ नाले का जहर उस पान में लगातार जज्ब हो रहा है।
आज नजफगढ़ नाला यमुना नदी में मिलने से पहले 57.48 किलोमीटर की कुल दूरी में से 30.94 किमी की दूरी दक्षिण पश्चिम जिले में ढासा से लेकर ककरौला तक तय करता है। ढासा से लेकर ककरौला तक, 28 छोटे नाले और ककरौला के बाद लगभग 74 छोटे-बड़े नाले नजफगढ़ नाले में शामिल होते हैं।
दिल्ली में यमुना नदी में मिलने वाले तीन प्रमुख प्राकृतिक जल निकासी बेसिन (नाले) हैं, जिनमें नजफगढ़ बेसिन सबसे बड़ा है। नजफगढ़ नाला दिल्ली में सबसे बड़ा नाला है। यह हरियाणा से दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम भाग में प्रवेश करता है। दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम जिले के अपने प्रारंभिक चरण में यह नाला अपने साथ बाढ़ का पानी, हरियाणा का अपशिष्ट जल और आस-पास के जलग्रहण क्षेत्र का पानी बहाकर लाता है।
सबसे बड़ी वाटर बॉडी नजफगढ़ झील
यह ड्रेन अब बरसाती पानी की निकासी की बजाए शहर की गंदगी को बहाने का माध्यम बन चुका है। यह नाला अपने आस-पास रहने वालों के लिए बीमारियों और सड़ांध का एक प्रमुख कारण है। यमुना को मैली करने का यह सबसे बड़ा कारण है। नजफगढ़ ड्रेन की मार्फत झील का अतिरिक्त पानी बहकर यमुना में जाता था। इस झील में भर जाने वाले बरसाती पानी की निकासी के लिए यह ड्रेन पर्याप्त साबित नहीं हो रहा था। पानी की निकासी की यह व्यवस्था होने के बाद भी इस झील के आस-पास के इलाके में पानी भरा रह जाता था। इसलिए एक सप्लीमेंटरी ड्रेन बनाकर इस पानी की निकासी के प्रबंध किए गए। इस तरह से बरसात के पानी को संरक्षित करके उसका उपयोग करने की बजाए उसे नदी में बहाने के नजरिए से काम किए जाने के बावजूद यह झील आज भी यमुना के बाद दिल्ली की सबसे बड़ी वाटर बॉडी है।
दिल्ली- हरियाणा सीमा पर धुर तक फैली नजफगढ़ झील राजधानी का सबसे बड़ा ‘लो लाइंग एरिया’ है। तश्तरी की तरह दिखने वाली यह झील 900 वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में फैली हुई थी। इसका अधिकतर हिस्सा दिल्ली में नजफगढ़ और हरियाणा में गुड़गांव तक फैला हुआ था। गुड़गांव जिले के तालाबों का अतिरिक्त पानी भी इस झील में पहुंच जाया करता था। झील की सामान्य जल से पूर्ण सतह समुद्र-तल से 690 फीट की ऊंचाई पर थी। जब जल सतह तक जमा हो जाता है तो लगभग 7,500 एकड़ में पानी भर जाता था।
Saturday, July 1, 2017
Ugrsen Bawari_उग्रसेन की बावड़ी
01072017_दैनिक जागरण |
नई दिल्ली के कनाट प्लेस के राजीव चौक से कस्तूरबा गांधी रोड से कुछ मिनटों की दूरी पर एक बहुत ही भव्य ऐतिहासिक इमारत और बावड़ी है जहाँ आराम से पैदल ही पहुंचा जा सकता है। बाराखंभा रोड और कस्तूरबा गांधी मार्ग के बीच अतुलग्रोव रोड के साथ बनी यह बावड़ी दिल्ली की सर्वश्रेष्ठ बावड़ी कही जा सकती है।
यह बावड़ी कस्तूरबा गांधी मार्ग, फिरोजशाह रोड और बाराखंभा के त्रिकोण के बीच बनी रिहायशी और व्यावसायिक बहुमंजिला इमारतों के बीच छिपी हुई है।
इसे उग्रसेन की बावड़ी के नाम से पहचाना जाता है। आधुनिक बहुमंजिला इमारतों के बीच गुम हो गई इस बावड़ी की भव्यता अद्भुत है। वह बात अलग है कि आज इसमें पानी नाम का ही रह गया है। फिर भी इसकी निर्माण कला और जब इसे बनाया गया होगा, तब और आज के निर्माताओं को उपलब्ध तकनीकी जानकारी एवं संसाधनों को सराहे बिना रह ही नहीं सकते।
उग्रसेन की बावड़ी जमीन के स्तर पर 192 फीट लंबी और 45 फीट चौड़ी है। पानी के स्तर तक उतरने के बाद इसकी चैड़ाई घटकर 129 फीट लंबी और साढे 24 फीट चौड़ी रह जाती है। उत्तरी छोर पर इस बावड़ी पर साढ़े 33 फीट चौड़ी छत बनी हुई है। इसका इस्तेमाल बैठने के लिए किया जा सकता है। इस बावड़ी और कुंए को बनाने के लिए चूना मिट्टी और पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है।
शायद इस बावली के प्रवेश संबंधी संरचनाओं के कुछ भाग नष्ट हो गए हैं। इस बावली की वास्तुकला संबंधी विशेषताएं बाद के तुगलक या लोदी काल की ओर संकेत करती है। हालांकि परम्परा के अनुसार यह कहा जा सकता है कि इसे राजा अग्रसेन ने बनवाया था जिन्हें अग्रवाल जाति का पूर्वज समझा जाता है। अपने गहरे पानी के कारण यह बावली ग्रीष्म ऋतु में एक तरणताल का काम देती है।
New Delhi of Ruskin Bond_रस्किन बांड की नई दिल्ली
यह बात कम जानी है कि आज मसूरी में रचे-बसे अंग्रेजी के लेखक रस्किन बांड का बचपन नई दिल्ली में बीता।
उन्होंने पेंगुइन से प्रकाशित अपनी पुस्तक "सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ" में बचपन में पहली बार दिल्ली आने का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब कालका-दिल्ली एक्सप्रेस दिल्ली में दाखिल हुई, तब मेरे पिता (रेल) प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी (रॉयल एयर फोर्स) की वर्दी में बेहद चुस्त लग रहे थे। और उन्हें स्वाभाविक रूप से मुझे देखकर काफी खुशी हुई।
दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में वे बताते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था।
जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पी आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था।
रस्किन बांड अपने पिता की संगत में दिल्ली में फ़िल्में देखने के अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं कि वे सभी शानदार नए सिनेमाघर आसानी से पहुंच के भीतर थे और मेरे पिता और मैं जल्द ही नियमित रूप से सिनेमा जाने वाले दर्शक बन गए। हमने एक हफ्ते में कम से कम तीन फिल्में तो देखी ही होंगी।
उनके शब्दों में, पिता के डाक टिकटों के संग्रह की देख रेख, उनके साथ फिल्में देखना, वेंगर्स में चाय के साथ मफिन खाना, किताब या रिकार्ड खरीदकर घर लाना, भला एक आठ साल के छोटे-से बच्चे के लिए इससे ज्यादा क्या खुशी की बात हो सकती थी?
इतना ही नहीं, रस्किन ने उस ज़माने की पैदल सैर के बारे में भी लिखा है।पुस्तक के अनुसार, फिर पैदल सैर थीं। उन दिनों में, आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था, और नई राजधानी के घेरे में मौजूद दूसरे पुराने मकबरों और स्मारकों का भी यही हाल था।
मेरे पिता ने निर्जन पुराना किला में मुझे हुमायूं के पुस्तकालय से नीचे आने वाली तंग सीढ़ियां दिखाई। यही बादशाह की फिसलकर गिरने के कारण मौत हुई थी। हुमायूं का मकबरा भी ज्यादा दूर नहीं था। आज वे सभी नई आवासीय क्षेत्रों और सरकारी कॉलोनियों से घिर गए हैं और शोरगुल वाले यातायात को देखना सुनना एक अद्भुत अनुभव है।
तब की नई दिल्ली के स्वरुप पर रस्किन बताते हैं कि 1943 में नई दिल्ली अभी भी एक छोटी जगह थी। मेडिंस, स्विस जैसे बड़े होटल पुरानी दिल्ली में ही थे। सड़कों पर केवल कुछ कारें ही दिखती थी। सैनिकों सहित अधिकतर लोग घोड़े जुते तांगे से सफर करते थे। जब हम रेल पकड़ने के लिए स्टेशन गए तो हमने भी तांगा लिया। नहीं तो वैसे हम पैदल ही जाते थे।
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