Saturday, July 15, 2017

East India Company's Delhi_कंपनी बहादुर राज की दिल्ली

Charles Ramus Forrest_painting_Delhi_1808



11 सितंबर 1803 को जनरल जेरार्ड लेक के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज ने हिंडन के किनारे हुए पटपटगंज युद्ध में मराठों को पराजित करने के तीन दिन बाद मुगल हुकूमत को चलाने वाली ताकत के रूप में दिल्ली में प्रवेश किया। 


उस समय तक विदेशी ईस्ट इंडिया कंपनी का राज यमुना नदी के पश्चिम से लेकर दिल्ली के उत्तरी-दक्षिणी हिस्से तक फैल चुका था। दिल्ली पर कब्जा होने के साथ अंग्रेजों ने कठपुतली बादशाह शाहआलम को अपनी देखरेख में लेने के नाम पर मुगल बादशाह के दूसरे इलाकों को भी हस्तगत कर लिया।

इस काम को अमली जामा पहनाने की व्यवस्था के बारे में 2 जनवरी 1805 को कलकत्ता के फोर्ट विलियम से भेजे एक पत्र में लॉर्ड वेलजली ने कहा कि गवर्नर-जनरल ने कांउसिल में एक व्यवस्था को अपनाने की बात तय की है। जिसके तहत यमुना नदी के दाहिने किनारे पर स्थित दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों का एक खास हिस्से को शाही परिवार के भरण-पोषण के लिए सुरक्षित रखा गया। 


जबकि हकीकत में यह भूभाग दिल्ली के अंग्रेज रेसिडेंट के तहत था। जिसका असली काम मुग़ल बादशाह के नाम पर कंपनी के लिए वसूली करना था। मुगल बादशाह को दिखावे के लिए एक दीवान सहित कुछ कर्मचारी रखने की अनुमति दी गई। जिनका काम अंग्रेज कलेक्टर कार्यालय में जाकर जमा होने वाली वसूली की रकम के बारे में बादशाह को सूचित करना भर था।

दिल्ली शहर के नागरिकों और नियत क्षेत्र की नागरिक और आपराधिक न्याय की व्यवस्था के लिए दो अदालतें बनाई गई। आपराधिक अदालतों में बिना बादशाह की अनुमति के किसी को भी मौत की सजा नहीं दी जा सकती थी। इस व्यवस्था में मुगल बादशाह से हस्तांतरित क्षेत्र, जो कि बाद में दिल्ली क्षेत्र के नाम से जाना गया, को 1805 के बाद दिल्ली के चीफ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया।

एक तरह से, दिल्ली की पूरी वित्तीय व्यवस्था अंग्रेज रेसिडेंट के नियंत्रण में थी। इस हस्तांतरित इलाके में समूची दिल्ली और हिसार डिवीजन शामिल थी जबकि सिरसा और भाटियों के अधिकार वाला हिसार का कुछ हिस्सा तथा स्वतंत्र सिख सरदारों का करनाल वाला हिस्सा इससे अलग था। दिल्ली के बादशाहों या मराठों की ओर से कुछ सरदारों को दी गई जागीरें भी अपवाद स्वरुप इससे अलग थी। जिनमें राजा वल्लभगढ़ की रोहतक (झज्जर) और बेगम समरू की गुड़गांव की जागीरें थीं।

1832 तक दिल्ली में यह व्यवस्था कायम रही। उसी वर्ष रेगुलेशन पांच के तहत उत्तर-पश्चिमी सूबे की सरकार के सामंजस्य में अंग्रेज़ रेसिडेंट ने मुख्य आयुक्त के रूप में अधिकारों, जो कि बोर्ड ऑफ रेवेन्यू तथा आगरा के सदर कोर्ट में निहित थे, का उपयोग किया। इस अधिनियम के साथ ही अंग्रेजी प्रशासन की विषमता खत्म हो गई और ईस्ट इंडिया कंपनी विधिवत रूप से दिल्ली की प्रशासक बन गई।

वैसे 1858 तक दिल्ली, उत्तर पूर्वी सूबा सरकार के अधीन एक हिस्सा बनी रही। जब आजादी की पहली लड़ाई (1857) में अंग्रेजों ने भारतीयों को पराजित करके दोबारा दिल्ली पर अपना अधिकार किया तो एक बार फिर दिल्ली को पंजाब के नवगठित लेफ्टिनेंट-गवर्नर राज में मिला लिया गया।



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