Saturday, July 1, 2017

New Delhi of Ruskin Bond_रस्किन बांड की नई दिल्ली



यह बात कम जानी है कि आज मसूरी में रचे-बसे अंग्रेजी के लेखक रस्किन बांड का बचपन नई दिल्ली में बीता। 


उन्होंने पेंगुइन से प्रकाशित अपनी पुस्तक "सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ" में बचपन में पहली बार दिल्ली आने का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब कालका-दिल्ली एक्सप्रेस दिल्ली में दाखिल हुई, तब मेरे पिता (रेल) प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी (रॉयल एयर फोर्स) की वर्दी में बेहद चुस्त लग रहे थे। और उन्हें स्वाभाविक रूप से मुझे देखकर काफी खुशी हुई।


दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में वे बताते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था। 


जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पी आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था।


रस्किन बांड अपने पिता की संगत में दिल्ली में फ़िल्में देखने के अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं कि वे सभी शानदार नए सिनेमाघर आसानी से पहुंच के भीतर थे और मेरे पिता और मैं जल्द ही नियमित रूप से सिनेमा जाने वाले दर्शक बन गए। हमने एक हफ्ते में कम से कम तीन फिल्में तो देखी ही होंगी।


उनके शब्दों में, पिता के डाक टिकटों के संग्रह की देख रेख, उनके साथ फिल्में देखना, वेंगर्स में चाय के साथ मफिन खाना, किताब या रिकार्ड खरीदकर घर लाना, भला एक आठ साल के छोटे-से बच्चे के लिए इससे ज्यादा क्या खुशी की बात हो सकती थी?


इतना ही नहीं, रस्किन ने उस ज़माने की पैदल सैर के बारे में भी लिखा है।पुस्तक के अनुसार, फिर पैदल सैर थीं। उन दिनों में, आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था, और नई राजधानी के घेरे में मौजूद दूसरे पुराने मकबरों और स्मारकों का भी यही हाल था।


मेरे पिता ने निर्जन पुराना किला में मुझे हुमायूं के पुस्तकालय से नीचे आने वाली तंग सीढ़ियां दिखाई। यही बादशाह की फिसलकर गिरने के कारण मौत हुई थी। हुमायूं का मकबरा भी ज्यादा दूर नहीं था। आज वे सभी नई आवासीय क्षेत्रों और सरकारी कॉलोनियों से घिर गए हैं और शोरगुल वाले यातायात को देखना सुनना एक अद्भुत अनुभव है।


तब की नई दिल्ली के स्वरुप पर रस्किन बताते हैं कि 1943 में नई दिल्ली अभी भी एक छोटी जगह थी। मेडिंस, स्विस जैसे बड़े होटल पुरानी दिल्ली में ही थे। सड़कों पर केवल कुछ कारें ही दिखती थी। सैनिकों सहित अधिकतर लोग घोड़े जुते तांगे से सफर करते थे। जब हम रेल पकड़ने के लिए स्टेशन गए तो हमने भी तांगा लिया। नहीं तो वैसे हम पैदल ही जाते थे।


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