लाख टके का सवाल है कि क्या वैश्विक स्तर पर सामी महजब जैसे इस्लाम-ईसाईयत समाज में पिछड़े-अगड़े के विभाजन को मानते हैं?
नहीं, क्योंकि 'अहले-किताब' में ऐसे किसी कृत्रिम विभाजन का कोई स्थान नहीं।
जबकि हक़ीक़त में हिन्दू समाज के दलित-पिछड़े वर्ग से मतांतरित, चाहे जबरन या मनमर्जी या हालात से, हुए व्यक्ति के सामाजिक स्तर में मुसलमान-ईसाई बनकर भी शतांश कोई अंतर नहीं आया।
भारतीय मुसलमानों भी अशरफ और अजलाफ़ में विभाजित है। यानि हक़ीक़त में शेख, सैयद, मुग़ल, पठान का निकाह किसी धोबी, जुलाहा या नाई से नहीं होता।
वहीं दूसरी तरफ, केरल के सबसे पुराने चर्च ने हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की नानी के निधन के बाद उन्हें हिन्दू से विवाह करने के कारण ही अपने ईसाई कब्रिस्तान में दफनाने नहीं दिया।
देश के प्रख्यात समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने माना था कि प्रछन्न रूप से भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों में अप्रत्यक्ष रूप से जाति प्रथा की स्वीकृति दी गई है।
इसी तथ्य को बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने रेखांकित करते हुए कहा कि देसी मुसलमान अपने को दो मुख्य सामाजिक विभाजन, अशरफ या शरफ और अजलाफ़ के तौर पर पहचानते हैं। अशरफ का मतलब "संभ्रांत" है जिसमें असंदिग्ध रूप से विदेशी मूल और ऊँची जाति के धर्मान्तरित हिंदुओं के सभी वंशज शामिल है। बाकि सभी मुसलमानों, जिसमें पेशेवर समूहों और नीची जातियों के सभी धर्मान्तरित शामिल हैं, को तिरस्कारपूर्ण नामों "अजलाफ़," "निर्लज्ज" या "छोटे लोग" से जाना जाता है। उन्हें कमीना या इतर भी कहा जाता है।
सो, लाख टके का सवाल है कि सामी महजब अपने भीतर इन कथित दबे-कुचले व्यक्तियों को इतने बरसों के बाद भी सामाजिक बराबरी देने में विफल क्यों रहे हैं?
इस सवाल पर दूर-दूर तक मौन है!
मस्जिद से लेकर चर्च तक, अजान से लेकर घंटे की आवाज़ में समाया मौन, अब भले दे सके जो सवाल का सही उत्तर जब कोई दलित पूछे ऐसा क्यों और कौन ?
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