Monday, December 23, 2019
Saturday, December 21, 2019
Surajmal Jat beyond third battle of Panipat_पानीपत से आगे, सूरजमल की कहानी
21122019_दैनिक जागरण |
हाल में रिलीज हुई हिंदी फिल्म "पानीपत" के कारण जाट राजा सूरजमल को ऐतिहासिक चरित्र दोबारा चर्चा में आ गया। उल्लेखनीय है कि फिल्म कथानक में उनके सही चरित्र चित्रण न किए जाने को लेकर काफी असंतोष भी देखा गया। जबकि पानीपत की लड़ाई (वर्ष 1761) में ऐन मौके पर सदाशिव भाऊ के व्यवहार से बेजार होकर अपनी सेना सहित मैदान से हटने वाले सूरजमल का उदात्त मानवीय चरित्र युद्ध के पश्चात् घायल मराठा सेना और स्त्रियों को सुरक्षा और शरण देने से उजागर हुआ।
नटवर सिंह ने अपनी पुस्तक "महाराजा सूरजमल" में लिखा है कि पानीपत युद्ध से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उल्लास से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।
अंग्रेज इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में लिखा है कि जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यन्त दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों के व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। फादर वैंदेल, और्म की पांडुलिपि के अनुसार, (पानीपत की लड़ाई के परिणामस्वरूप) सूरजमल उन अनेक महत्वपूर्ण स्थानों का स्वामी बन गया, जो इससे पहले पूरी तरह मराठों के प्रभाव-क्षेत्र में थे। चम्बल के इस ओर उसके सिवाय अन्य किसी का शासन नहीं था और गंगा की ओर भी लगभग यही स्थिति थी।
अठारहवीं शती तक मुगल शासन की यह स्थिति हो गई थी कि दिल्ली में बादशाहत कमजोर पड़ने से सारे देश में सत्ता की छीनझपट आरम्भ हो गई थी। मुगल बादशाह मुहम्मद शाह राग-रंग-रस में इतना मग्न रहता था कि परदेश से नादिरशाह और अहमद शाह के रेले आते और किले और नगर को लूटकर जाते रहे, देश और प्रजा का कुछ भी होता रहा, वह तो अपनी लालपरियों के आगोश में मस्त रहा।
इतिहास के अनुसार, ब्रजप्रदेश पर अब्दाली के आक्रमण दो बार हुए। पहला आक्रमण 26-27 फरवरी 1757 को जहान खां अफगानी के सेनापतित्व में हुआ था, फिर नजीम खां आया था और दूसरी बार का आक्रमण पन्द्रह दिन बाद स्वयं अब्दाली के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन चाचा वृन्दावन दास की लंबी कविता "श्री हरिकला बेला" के अनुसार वर्ष 1757 और वर्ष 1761 में तीन वर्ष के अंतराल से वे आक्रमण किए गए थे। उल्लेखनीय है कि अन्तिम आक्रमण के बाद कवि ने "हरिकला बेला" की रचना भरतपुर में सुजानसिंह सूरजमल के शासनकाल में की थी।
उत्तर मुगल काल में नादिरशाह का आक्रमण दिल्ली तक और उसके बाद अहमद शाह दुर्रानी अब्दाली का आक्रमण मथुरा-वृन्दावन तक हुआ था। उन दोनों को यहां हमले के लिए आमंत्रित किया गया था। असली बात यह थी कि ब्रज प्रदेश का जाट राजा सूरजमल और दक्खिन के मराठे दिल्ली पर निगाह लगाए हुए थे और जो अपने को दिल्ली का वंशागत मालिक समझते थे, वे इन शक्तियों से घबड़ाए हुए थे।
अहमदशाह अब्दाली को विशेष रूप से सूरजमल जाट की बढ़ती शक्ति और प्रभाव से टक्कर लेने के लिए बुलाया गया था। उसका वश सूरजमल पर तो चला नहीं, मथुरा-वृंदावन की लूटपाट और हिन्दुओं के सिरों की मीनारें बनाकर ही वह लौट गया। ऐसे में अब्दाली के सूरजमल को कुचल डालने के बुलावा की बात बेअसर ही रही और उसका वह कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह के मृत्यु के बाद ही सूरजमल का सितारा चमका। जयपुर राज्य में ईश्वरी सिंह और माधोसिंह के बीच सात वर्षों तक उत्तराधिकार संघर्ष हुआ। इस दौरान की सूरजमल उभरा क्योंकि न तो विलास भवन में बैठे मुगल बादशाह को उस ओर ध्यान देने की फुरसत थी और न अंतपुर के षड्यंत्रों में फंसे जयपुर नरेश के पास समय था। बल्कि मराठों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने बगरू की लड़ाई (1748) माधोसिंह को समझाने-बुझाने के लिए ईश्वरीसिंह ही सूरजमल की आवश्यकता पड़ गई थी। उस आवश्यकता ने सिद्व कर दिया कि जयपुर की तुलना में भरतपुर की शक्ति कम नहीं थी, बल्कि बढ़ने लगी थी। उसकी शक्ति बढ़ने का एक और प्रमाण यह है कि दिल्ली के शाह आलम के वजीर सफदरजंग ने भी अपने पठान विरोधी अभियान में सूरजमल की सहायता मांगी थी। बाद में सफदरजंग और सूरजमल ने मिलकर दिल्ली को खूब लूटा और नष्ट कर डाला।
अब्दाली के जाने के बाद सूरजमल मुगल बादशाह का अटल शत्रु बन गए थे और जयपुर का सहायक हो गए थे। ईश्वरीसिंह की आत्महत्या के बाद जब माधोसिंह जयपुर का राजा बन गया, तब उसके भाई प्रतापसिंह के लिए भी आड़े वक्त में वही शरणदाता सिद्ध हुए थे ।
Saturday, December 14, 2019
Delhi burnt under Ahmed shah Abdali Durrani Attacks_अब्दाली के कत्लेआम का शिकार हुई थी दिल्ली
हिंदुस्तान की पश्चिमी सरहदों की तरफ से विदेशी अफगान आक्रांता अहमदशाह अब्दाली के हमले शुरू हुए, जिसका सिलसिला सन् 1748 से शुरू होकर लगभग बीस साल तक जारी रहा। इन लगातार हमलों से और हिन्दुस्तान के अन्दर परस्पर गृहयुद्धों से दिल्ली ऐसी तबाह और बरबाद हुई कि फिर डेेढ़-दो सौ बरस तक आबाद न हो सकी। यह बात कम जानी है कि अब्दाली ने कुल आठ बार हिंदुस्तान पर आक्रमण किया। पहला हमला वर्ष 1748 के आरंभ में किया। उसके बाद तो मानो हमलों की झड़ी लग गई।
प्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध "स्वतन्त्रता संघर्ष इतिहास" में लिखते हैं कि तब देश विभिन्न राज्यों में बंट गया था और उनमें काफी प्रतिद्धंदिता और टकराव था। इस टकराव ने किसी हद तक साम्प्रदायिकता का रूप धारण जरूर किया, जब मराठाओं ने हिन्दू पादशाही का नारा लगाया और शाह वलीउल्लाह ने मराठा काफिरों को दिल्ली से मार भगाने के लिए अफगानिस्तान के अब्दाली को आमन्त्रित किया। अब्दाली के सैनिकों ने जब दिल्ली लूटनी शुरू की तब उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को बुरी तरह सताया, दोनों पर अत्याचार किये, यहां तक कि शाह वलीउल्लाह को भी घर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा। यहां तक कि अब्दाली के अत्याचारों से परेशान होकर दिल्ली छोड़ने वाले लोगों में मियां नजीर भी थे। उस समय उनकी आयु 22-23 वर्ष थी।
सन् 1756-57 में मराठा सेनापति रघुनाथ राव की अनुपस्थिति में अब्दाली ने न केवल दिल्ली को लूटा बल्कि अपनी लूटपाट का दायरा मथुरा, गोकुल और वृंदावन तक फैला दिया। मुगल बादशाह आलमगीर के शासनकाल के दूसरे वर्ष में अब्दाली ने दूसरी बार सिन्धु नदी को पार किया। मुग़ल वजीर गाजीउद्दीन ने नरेला में अब्दाली के सन्मुख अपना आत्म-समर्पण कर दिया।
दिल्ली आने पर उसको डटकर लूटा गया, उसे एक करोड़ रुपया देना पड़ा और अपना वजीर पद छोड़ना पड़ा। अब्दाली दिल्ली के तख्त (29 जनवरी 1757) पर बैठ गया तथा उसने अपने नाम के सिक्के चलवाए। मराठों की गैर-हाजिरी में इमाद-उल-मुल्क को अब्दाली से समझौता करना पड़ा, जो नजीबुद्दौला को मीर बक्शी और व्यवहारतः दिल्ली दरबार में अपना प्रतिनिधि बना कर लौटा गया। अब्दाली को जिस एक मात्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा वह था जाट राजा का प्रतिरोध, जो डीग और भरतपुर के अपने शक्तिशाली किलों में दृढ़ता से डटा रहा।
कितने ही हंगामें दिल्ली में उर्दू के मशहूर शायर मीर तकी मीर की आंखों के सामने हुए और कितनी ही बार मौज-ए-खून उनके सर से गुजर गयी। अब्दाली के पहले आक्रमण के समय वर्ष 1748 मीर रिआयत खां के साथ लाहौर में मौजूद थे और पानीपत की तीसरी लड़ाई वर्ष 1761 के भी दर्शक थे। दिल्ली में इस विदेशी विजेता और देश के अन्तर गृहयुद्ध करनेवालों ने लूटमार मचाई। इसमें मीर का घर भी बरबाद हुआ। इस युग के माली नुकसानों और नैतिक पतन की भयानक तस्वीरें, मीर की शायरी और आपबीती "जिक्र-ए-मीर" में सुरक्षित हैं।
"जिक्र-ए-मीर" में अब्दाली की फौजों के हाथों दिल्ली की यह तस्वीर है-बंदा अपनी इज्जत थामे शहर में बैठा रहा। शाम के बाद मुनादी हुई कि बादशाह ने अमान दे दी है। रिआया को चाहिए कि परेशान न हो मगर जब घड़ी भर रात गुजरी तो गारतगरों ने जुल्म-ओ-सितम ढाना शुरु किए। शहर को आग लगा दी। सुबह को, जो कयामत की सुबह थी, तमाम शाही फौज और रोहिल्ले टूट पड़े और कत्ल व गारत में लग गए। मैं कि फकीर था अब और ज्यादा दरिद्र हो गया, सड़क के किनारे जो मकान रखता था वह भी ढहकर बराबर हो गया।
पानीपत में विजय प्राप्त करने के उपरान्त अब्दाली ने विजयोल्लास के साथ दिल्ली में प्रवेश किया तथा उसने सूरजमल के विरुद्व अभियान करने के सम्बन्ध में विचार किया क्योंकि उसने मराठाओं को शरण दी थी। दिल्ली से शाह के प्रस्थान के पांच दिन पूर्व समाचार प्राप्त हुआ कि सूरजमल ने अकबराबाद (आगरा) के किलेदार को किला खाली करने पर विवश कर दिया है, और किले में प्रवेश पा चुका है। अब्दाली की संतुष्टि के लिए उसने (सूरजमल) उसे एक लाख रुपया दिया तथा पांच लाख रुपया बाद में देने का वादा किया, जो कभी नहीं दिए गए। वर्षा ऋतु आ पहुंची थी तथा पृष्ठभाग में सिखों ने अपना सिर उठाना आरम्भ कर दिया, अब्दाली हठी जाट से इतना भर पाकर प्रसन्न था। 21 मई 1761 को वह शालीमार बाग (दिल्ली के बाहर) से अपने देश के लिए रवाना हुआ।
Saturday, December 7, 2019
Remembrance of Third battle of Panipat because of film_फिल्म के बहाने, पानीपत लड़ाई का पुण्य स्मरण
दैनिक जागरण, 07122019 |
अभी रिलीज हुई "पानीपत" शीर्षक वाली हिंदी फिल्म से पानीपत की तीसरी लड़ाई नए सिरे से चर्चा में है। वास्तविक अर्थ में भारतीय इतिहास की धारा को बदलने वाले वर्ष 1761 में हुए पानीपत के युद्ध के प्रति जनसाधारण का उदासीन रवैया इस त्रासदीपूर्ण घटना से अधिक दुखदायी है। ऐसे में इस लड़ाई की पृष्ठभूमि को जानना बेहतर होगा।
वर्ष 1752 में उत्तरी भारत की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब मराठों ने दोआब में प्रवेश किया और विदेशी अफगान हमलावर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब में। वर्ष 1752 और वर्ष 1761 के बीच का चरण वस्तुतः उत्तरी भारत के स्वामित्व के लिए मराठों और अब्दाली के बीच शक्ति परीक्षण का चरण था।
मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1699–1759) के समय में वजीर गाजीउद्दीन ने मराठों को सम्राट की सहायता के लिए दिल्ली बुलवाया था। उस समय के पेशवा ने अपने भाई रघुनाथ राव (राघोबा) को बादशाह की आज्ञा पालने के लिए एक बड़ी सेना सहित दिल्ली भेजा। रघुनाथ राव ने अपनी सेना सहित और आगे बढ़कर अहमदशाह अब्दाली के नायब के हाथों से पंजाब विजय कर लिया और एक मराठा सरदार को दिल्ली बादशाह के अधीन वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया। किंतु इस अंतिम घटना ने उनके विरुद्ध अब्दाली का क्रोध भड़का दिया और वर्ष 1759 में एक जबदस्त सेना लेकर वह पंजाब पर फिर से अपना राज कायम करने और मराठे का विध्वंस करने के लिए अफगानिस्तान से निकल पड़ा।
ऐसा जानकर, उसने (पेशवा) अपने चचेरे भाई सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजने का निश्चय किया, जिससे वह अब्दाली को देश के बाहर खदेड़ दे। भाऊ लगभग दो लाख आदमी लेकर 14 मार्च को महाराष्ट्र के पतदूर से रवाना हुआ। भाऊ ने अगस्त 1760 को दिल्ली में प्रवेश किया। चम्बल पार करने से पूर्व भाऊ ने राजस्थान के सरदारों, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे थे कि वे इस लड़ाई को देश की लड़ाई समझकर विदेशी अब्दाली को सिन्धु के पार खेदड़ने में उसकी सहायता करें। किन्तु मराठों की यह कूटनीति असफल रही।
राजपूत, सिन्धिया और होल्कर के अत्याचारों के कारण मराठों के शत्रु हो गये थे, अतः वे तटस्थ रहे। परन्तु शुजाउद्दौला दोआब के अपने पड़ोसी रूहेलों को मराठों से अधिक शत्रु मानता था, अतः वह भाऊ का साथ देने के लिए राजी हो गया। जब यह बात अब्दाली को मालूम हुई तो उसने शुजाउद्दौला को अपने पक्ष में करने के लिए नजीबुद्दौला को लखनऊ भेजा। नजीबुद्दौला ने मेहदी-घाट स्थान पर नवाब-वजीर से मिलकर उसे स्वार्थ और महजब के नाम पर अब्दाली का साथ देने के लिए राजी कर लिया। शुजाउद्दौला, नजीबुद्दौला के आग्रह से अनूप शहर के खेमे में अब्दाली से मिला और उसने उसका हार्दिक स्वागत किया।
मराठों पर एक तो अब्दाली और शुजाउद्दौला के मिल जाने की चोट पड़ी और दूसरी राजा सूरजमल जाट के रूठकर दिल्ली से भरतपुर चले जाने की। कहा जाता है कि सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी थी कि वह युद्ध सामग्री, तोपखाना और स्त्रियों को भरतपुर में सुरक्षित छोड़कर मराठों की पुरानी छापामार नीति को अपनाये और अब्दाली की रसद रोक दे किन्तु भाऊ ने इस सलाह को ठुकराकर खुले मैदान में डटकर लड़ाई लड़ना ही उचित समझा था।
पानीपत में मराठों का शिविर पूरब से पश्चिम तक छह मील लंबा और उत्तर से दक्षिण तक दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लगभग 25 गज चौड़ी और छह गज गहरी एक खाई थी जिसकी सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दीवार पर बड़ी-बड़ी तोपें चढ़ा दी गयी थीं। अब्दाली का शिविर मराठों के शिविर से तीन मील दक्षिण में था, उसके पीछे सोनीपत गांव था और वह भी खाई तथा कटे हुए पेड़ों की डालियों से सुरक्षित था। किन्तु अब्दाली के अपना शिविर यमुना नदी के बिलकुल किनारे ले जाने से परिस्थिति बिलकुल बदल गयी थी। अब उसे पर्याप्त जल मिल सकता था और दोआब से यातायात संबंध सुगम हो जाने के कारण नजीबुद्दौला उसे रसद और चारा लगातार भेज सकता था। यह ही नहीं, अब अब्दाली ने मराठा सेना के चारों ओर गारद बिठाकर दोआब, दिल्ली और राजपूताने से उसके रसद और यातायात को रोक दिया। मराठों के लिए केवल उत्तर का मार्ग खुला रह गया किन्तु अब्दाली ने शीघ्र ही कुंजपुरा पर अधिकार करके मराठों का पंजाब से भी यातायात रोक दिया। इस परिस्थिति के कारण मराठा शिविर पर बड़ा भारी संकट छा गया। भाऊ को न तो कहीं से रसद ही मिल सकी और न वह दो महीने तक पानीपत से दक्खिन को ही कोई समाचार भेज सका।
14 जनवरी 1761 को दिल्ली से करीब 97 किलोमीटर दूर, पानीपत के प्रसिद्व मैदान में इनका (अफगान-मराठों) युद्ध हुआ। अब्दाली ने मराठों के रसद-पानी की आपूर्ति के रास्ते रोक दिए और उन्हें खाली पेट लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस लड़ाई में मराठों की जान-माल की भारी क्षति हुई। सदाशिव और विश्वासराव, दोनों मैदान में काम आए। विजय अहमदशाह की ओर रही। इस लड़ाई में रोहिल्लों और अवध के शुजाउद्दौला जैसी देसी मुस्लिम शक्तियों का समर्थन उसे (अब्दाली) मिला।
एच. आर. गुप्ता की पुस्तक, "मराठा एवं पानीपत" के अनुसार, मराठों को लगभग 28,000 सैनिकों का नुकसान हुआ, जिसमें 22,000 मारे गए और बाकी के युद्धबंदी बना लिए गए। शहीद हुए फौजियों में सेना की टुकड़ियों के दो सरदार-भाऊ राव और पेशवा बालाजी राव का बड़ा लड़का विश्वास राव भी थे। इस युद्व के एकमेव प्रत्यक्षदर्शी शुजाउद्दौला के दीवान काशी राज के विवरण (बाखर) के अनुसार, युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई। किंतु अब्दाली को भी अपनी इस विजय की बहुत जबरदस्त कीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए कि आगे बढ़ने का इरादा छोड़कर उसे फौरन अफगानिस्तान लौट आना पड़ा।
प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार "मुगल साम्राज्य का पतन" (खंड दो) नामक पुस्तक में लिखते हैं कि महाराष्ट्र में ऐसा कोई भी घर नहीं था जिसमें किसी न किसी आदमी के लिए शोक न मनाया गया हो। अनेक घर तो ऐसे थे कि जिनके घर के मालिक मारे गये थे और नेताओं की तो पीढ़ी की पीढ़ी तलवार के एक वार से ही मौत के घाट उतार दी गयी थी। इस युद्ध के परिणाम पर इतिहासकार प्रोफेसर सिडनी ओवेन 'द फॉल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर' में लिखते है कि पानीपत की लड़ाई के साथ-साथ भारतीय इतिहास का भारतीय युग समाप्त हो गया। इतिहास के पढ़ने वाले को इसके बाद से दूर पश्चिम से आए हुए व्यापारी शासकों की उन्नति से ही सरोकार रह जाता है।
Saturday, November 30, 2019
India_French exhibition_Raja_Nawab_Firangi_National Museum_Delhi_फ्रांसीसी-भारतीय संबंधों पर रोशनी डालती प्रदर्शनी
अभी राष्ट्रीय संग्रहालय में "राजा, नवाब और फिरंगी" शीर्षक से एक प्रदर्शनी लगी हुई है। 14 दिसंबर तक चलने वाली इस प्रदर्शनी में फ्रांस के राष्ट्रीय पुस्तकालय के अभिलेखागार में संग्रहित सामग्री सहित भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय की कलाकृतियों को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है। इन सभी चित्रों की विशेषता यह है कि 18 वीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर 19 वीं सदी के आरंभ की अवधि में भारत में ही बनाए गए। यह प्रदर्शनी फ्रांसीसी-भारतीय व्यक्तियों के आपसी व्यवहार पर नए सिरे से रोशनी डालती है।
पियरे फ्रांस्वा कुइलियर-पेरोन
फ्रांस में एक कपड़ा व्यापारी के रूप में जन्मा पियरे कुइलियर अपने उपनाम जनरल पेरोन के नाम से अधिक प्रसिद्व था। उसे अंग्रेज ग्वालियर के मराठा राज्य और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के साथ प्रगाढ़ संबंधों के कारण अपने साम्राज्य विस्तार के लिए खतरा मानते थे। भारत में वर्ष 1780 में पहुंचे पेरोन ने सबसे पहले गोहद के राणा के यहां नौकरी की। उसने वर्ष 1795 में कर्दला की लड़ाई में हैदराबाद राज्य के खिलाफ मराठा विजय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका परिणाम यह हुआ कि महादजी सिंधिया के उत्तराधिकारी दौलत राव शिंदे ने पेरोन को अपनी 24,000 पैदल सेना, 3,000 घुड़सवार सेना और 120 तोपों की लगाम देते हुए अपना सेनापति बना दिया। यह एक दुर्जेय तालमेल था जबकि पेरोन की विस्तारवादी नीति से अंग्रेज चिंता में आ गए। पेरोन ने धीरे-धीरे शिंदे की सेना में अंग्रेज अधिकारियों को हटाकर उनके स्थान पर फ्रांसिसी अधिकारियों को नियुक्त किया। यहां तक कि उसने यमुना नदी के दक्षिण में एक बड़ी समृद्ध जागीर पर शासन करते हुए विभिन्न पक्षों से संधियां कीं।
एक ऐसी ही संधि जनरल पेरोन ने दिल्ली में सिंधिया के रेसिडेंट के रूप में पटियाला के महाराजा साहिब सिंह से संधि की थी। जिसमें दोनों पक्षों ने आवश्यकता के समय में आपसी सहायता की सहमति पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के कौलनामे की प्रति भी यहां प्रदर्शित है। अंत में शिंदे को धोखा देने के बाद पेरोन की सेनाओं को अंग्रेजों ने पटपड़गंज की लड़ाई (1803) में पराजित किया। फिर अंग्रेजों ने उसे वर्ष 1806 में फ्रांस लौटने से पहले दो साल बंगाल में नजरबंद रखा।
शाह आलम द्वितीय
अली गौहर के रूप में जन्मा शाह आलम द्वितीय का पालन नजरबंदी में ही हुआ था। वर्ष 1759 में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और फ्रांसीसी सैनिकों की मदद से वह बच निकला। पानीपत की तीसरी लड़ाई (वर्ष 1761) में अफगानों के विजयी गठबंधन का हिस्सा होने के कारण उसे ईनाम के रूप में सोलहवें मुगल सम्राट के रूप में ताज मिला। फिर उसे इलाहाबाद में 12 साल नजरबंदी के रूप में बिताने पड़े। अपनी राजधानी दिल्ली में आने में नाकाबिल निर्वासित मुगल सम्राट को वर्ष 1772 में मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने इलाहाबाद से दिल्ली लाकर दोबारा तख्त पर बिठाया। इस दौरान उसने अपनी सेना को मजबूत करते हुए रोहिल्लों, जाट और सिखों के खिलाफ कई सैनिक सफलताएं हासिल की। वर्ष 1788 में रोहिल्ला नेता गुलाम कादिर ने उसे अंधा करके अपदस्थ कर दिया। फिर दोबारा महादजी ने कादिर को मारकर अंधे शाह आलम को तख्तनषीं किया। शाहआलम ने अपनी सल्तनत को बचाने के लिए अंग्रेजों से मराठों के खिलाफ मदद मांगी। बस यही से असली हुकूमत उसके हाथ से सदा के लिए निकल गई। वर्ष 1803 में हुई पटपड़गंज की लड़ाई के साथ ही दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। फिर तो मुगल सत्ता के लिए कहा जाने लगा, सल्तनत-ए-शाह आलम, दिल्ली से पालम (यानी शाह आलम का राज केवल दिल्ली से पालम तक ही है)।
बेगम समरू
बेगम समरू की पैदाइश को लेकर कयास ही अधिक है। दुश्मनों के लिए वह लड़ाई के मैदान में पांच फुट की एक आफत थी, जिसे अक्सर चुड़ैल समझा जाता था। ऐसा माना जाता है कि वह एक कश्मीरी अनाथ फ़रज़ाना ख़ानक़ी थी। दिल्ली में 14 साल की वह भोली लड़की, तीस साल के वाल्टर रेनहार्ड्ट उर्फ सोम्ब्रे की नजर में चढ़ गई। जिसका नतीजा यह हुआ कि बेगम समरू भरतपुर के राजा के कंमाडर और एक कैथोलिक ईसाई सोम्ब्रे की दूसरी पत्नी बन गई। बेगम समरू केवल देखने भर की चीज नहीं थी, वह स्थानीय रियासतों की राजनीति और आपसी साज़िशों से भली भांति परिचित थी। यही कारण है कि सोम्ब्रे की मौत के बाद समरू ने उसके बेटे को जागीर से बेदखल कर दिया। सोम्ब्रे की जागीर और सेना दोनों पर अधिकार करने के बाद कैथोलिक बनी समरू ने चतुराई से षाह आलम का भी समर्थन हासिल किया। मुगलिया सल्तनत के विद्रोहियों के दिल्ली की घेराबंदी के दौरान से लड़ने में मदद करने के एवज में षाह आलम ने उसे जेब-उन-निसा (स्त्री रत्न) का खिताब दिया। वर्ष 1793 में, बेगम समरू के गुप्त रूप से फ्रांसीसी कप्तान पियरे एंटोइन ले वासल्ट से शादी करने की खबर मिलने पर उसके सैनिकों ने विद्रोह करके उसे बंदी बना लिया। वह आयरिश कमांडर जॉर्ज थॉमस की मदद से रिहा तो हो जाती है पर वासाल्ट आत्महत्या करता है! वर्ष 1803 में दिल्ली पर कब्जा होने के बाद अंग्रेजों ने बेगम समरू को अपनी जागीर रखने की अनुमति दी। इसी का नतीजा था कि उसने कई वर्षों तक दिल्ली में अपना शानदार दरबार लगाया, जिसमें सभी राष्ट्रीयताओं के दरबारी-सैनिक होते थे।
Wednesday, November 27, 2019
Historical connection of Delhi and Rajathan_दिल्ली-राजस्थान का ऐतिहासिक नाता
दिल्ली से लेकर नई दिल्ली तक के निर्माण और उन्नयन में राजस्थान की उल्लेखनीय भूमिका रही है। यह बात इतिहास सम्मत है कि राजस्थान के पत्थर से लेकर आदमियों तक का दिल्ली के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। वह बात अलग है कि इस बात पर इतिहास में एक लंबा मौन ही पसरा है।
यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में “ढिल्लिका“ का नाम सबसे पहले राजस्थान में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी।
उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है।
“दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को “पृथ्वीराज रासो“ में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना।
अंग्रेज इतिहासकार एच सी फांशवा ने अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखा है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।
रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन तैमूरालंग ने अपनी आत्मकथा में इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। इन दरवाजों को अब समय की लहर ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। मुस्लिम और पठान काल की दिल्ली के जो दरवाजे मशहूर रहे, उनमें अजमेरी दरवाजा मशहूर है।
वर्ष ११९२ में तराइन की लड़ाई में चौहानों की हार के बाद दिल्ली में राज की जिम्मेदारी मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली। ऐबक के समय में तोमरों और चौहानों के लाल कोट के भीतर बनाए सभी मन्दिरों को गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में मुस्लिम शासन से पहले प्रचलित राजपूत मुद्रा “देहलीवाल“ कहलाती थी।
दिल्ली के संदर्भ में पृथ्वीराज रासो एवं उसके कवि चंद (चंदरबरदायी) का विशेष महत्व है। चंदबरदायी दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान के समकालीन होने का तथ्य असंदिग्ध है। “पृथ्वीराज रासो“ एक विशाल प्रबंध काव्य है। हिंदी साहित्य में इसे पहला महाकाव्य होने का भी श्रेय प्राप्त है। चंद-कृत पृथ्वीराज रासो का संबंध दिल्ली के केंद्र से है। विक्रमी संवत् की बारहवीं शताब्दी से दिल्ली मंडल की अर्थात् योगिनीपुर, मिहिरावली, अरावली-उपत्यका-स्थित विभिन्न अंचलों और बांगड़ प्रदेश के विभिन्न स्थलों का जितना विशद और प्रत्यक्ष चित्रण इस ग्रंथ में है उतना अन्य किसी समकालीन हिंदी ग्रन्थ में नहीं मिलता। चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है। थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो में मिलता है जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि और बालसखा थे। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।
यह बात कम जानी है कि आज की समूची लुटियन दिल्ली जिस जमीन पर खड़ी है, उस पर मुगलों के जमाने से जयपुर राजघराने का अधिकार था। जयपुर रियासत ने 1911 में कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित हुई नयी राजधानी के लिए जयसिंहपुरा और माधोगंज गावों की 314 एकड़ जमीन प्रदान की थी। पर यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। जयपुर के तत्कालीन कछवाह नरेश माधो सिंह द्वितीय (1861-1922) के वकीलों और अंग्रेज अधिकारियों के मध्य काफी लिखत-पढ़त हुई। महाराजा जयपुर ने दिल्ली के जयसिंहपुरा और माधोगंज (आज की नई दिल्ली नगर पालिका परिषद का इलाका) में स्थित उनकी इमारतों और भूमियों का नई शाही (अंग्रेज) राजधानी के लिएअधिग्रहण न किया जाए, इस आशय की याचिकाएं दी थी।
18 जून 1912 को महाराजा जयपुर के वकील शारदा राम ने दिल्ली के डिप्टी कमिशनर को दी याचिका में लिखा कि राज जयपुर के पास दिल्ली तहसील में जयसिंह पुरा और माधोगंज में माफी (की जमीन) है, और ब्रिटिश हुकूमत ने राजधानी के लिए इसके अधिग्रहण का नोटिस भेजा है। राज की यह माफी बहुत पुरानी है और उनमें से एक की स्थापना महाराजा जयसिंह ने और दूसरे की महाराजा माधोसिंह ने की थी, जैसा कि मौजों के नाम से स्पष्ट है। राज जयपुर की स्मृति में छत्र, मंदिर, गुरूद्वारे, शिवाले और बाजार जैसे कई स्मारक हैं और राज ने माफी की जमीन का आवंटन इन तमाम संस्थाओं के खर्च निकालने के लिए किया है। मुगल सम्राटों के समय में जब दिल्ली राजधानी हुआ करती थी तो, राजा का एक बहुत बड़ा मकान था जो अब बर्बादी की हालत में है और राजा का यह दृढ़ संकल्प है कि दिल्ली को एक बार फिर ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाए जाने के सम्मान में इसे बहुत शानदार और सुंदर बनाया जाए। इसलिए, विनती है कि इन संस्थाओं और पुराने अवशेषों को उनके साथ की जमीनों सहित अधिग्रहित न किया जाए और उन्हें राज के नियंत्रण और देखरेख में छोड़ दिया जाए। इसे (जयपुर महाराज को), (अंग्रेज) सरकार की योजनाओं के अनुसार राज की कीमत पर सरकार की इच्छानुसार मकान, कोठियां, सड़कें आदि बनाने पर कोई ऐतराज नहीं है और राज ऐसी कोई जमीन मुफ्त में देने में तैयार है, जिसकी जरूरत सरकार को अपनी खुद की सड़कें खोलने या बनाने के लिए हो सकती है। उल्लेखनीय है कि जयपुर नरेश माधो सिंह द्वितीय 1902 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिशेक समारोह में इंगलैंड गए थे। अंग्रेजों की उन पर विशेष कृपादृष्टि का ही नतीजा था कि उन्हें 1903 में जीसीवीओ और 1911 में जीवीआई की सैन्य उपाधि दी गयी। इतना ही नहीं, 1904 में माधोसिंह को अंग्रेज भारतीय सेना में 13 राजपूत टुकड़ी का कर्नल और 1911 में मेजर जनरल का पद दिया गया।
नई दिल्ली के निर्माण के समय एडवर्ड लुटियन ने वॉइसरॉय हाउस (राश्ट्रपति भवन) और ऑफ़ इंडिया वार मेमोरियल (इंडिया गेट) को तो बेकर ने दोनों सचिवालयों और कॉउंसिल हाउस (संसद भवन) को पश्चिमी वास्तुकला की शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप बनाया। पर इन भवनों में कुछ भारतीय तत्व भी समाहित किए, जिनमें मुख्य सामग्री के रूप में चमकदार पॉलिश और धौलपुर का लाल बलुआ पत्थर था। दिल्ली की कुतुब मीनार और हुमायूं के मकबरे में ऐेसे ही पत्थर के प्रयोग की अनुकृति का उदाहरण सामने था। लुटियन और बेकर ने विशिष्ट भारतीय (मूल रूप से राजस्थानी) रूप से “छज्जा“ अपनाया जो कि सूरज और बारिश दोनों से बचाव के रूप में ढाल का काम करता था। दो सचिवालय की इमारतें, नार्थ ब्लॉक और सॉउथ ब्लॉक, केंद्रीय धुरी के मार्ग, आज का राजपथ, के आमने-सामने खड़ी हैं। नॉर्थ ब्लॉक के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण लेख में लिखा है, जनता को स्वतंत्रता स्वतः ही नहीं प्राप्त होगी। जनता को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जागृत होना होगा। यह एक अधिकार है जिसे लेने के लिए स्वयं को काबिल बनाना पड़ता है।“
राजपथ पर इंडिया गेट के पीछे एक लंबी खाली छतरी है, जिसे लुटियन ने ही वर्ष 1936 में किंग जॉर्ज पंचम की स्मृति में लगने वाली एक प्रतिमा के लिए बनाया था। इस खाली छतरी पर प्रसिद्व साहित्यकार अज्ञेय ने लिखा है कि महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते। ब्रितानी शासकों, सेनानियों, अत्याचारियों तक की मूर्तियाँ हमें देखने को मिलती रहतीं तो हमारा केवल कोई अहित न होता बल्कि हम सुशिक्षित हो सकते। राजपथ में एक मूर्तिविहीन मंडप खड़ा रहे, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता सिवा इसके कि उसके भावी कुर्सीनशीन के बारे में हल्का मजाक हो सके। उसके बदले एक पूरी सडक ऐसी होती जिसके दोनों ओर ये विस्थापित मूर्तियाँ सजी होतीं और उस सड़क को हम ‘ब्रितानी साम्राज्य वीथी’ या ‘औपनिवेशिक इतिहास मार्ग’ जैसा कुछ नाम दे देते, तो वह एक जीता-जागता इतिहास महाविद्यालय हो सकता। इतिहास को भुलाना चाह कर हम उसे मिटा तो सकते नहीं, उसकी प्रेरणा देने की शक्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। स्मृति में जीवन्त इतिहास ही प्रेरणा दे सकता है।"
लुटियन दिल्ली की मुख्य भवनों में से एक “जयपुर हाउस“ को वास्तुकार-बंधु चार्ल्स जी. ब्लॉमफील्ड और फ्रांसिस बी. ब्लोमफील्ड डिजाइन किया। वर्ष 1936 में केंद्रीय गुंबद के साथ “तितली के आकार वाला यह भवन“ जयपुर महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय के निवास के हिसाब से बनाया गया था। इसे लुटियन की सेंट्रल हेक्सागोन की एक अवधारणा की कल्पना के आधार तैयार किया गया। आज यहाँ पर राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय है। इसी तरह, नयी दिल्ली में इंडिया गेट के घेरे में जयपुर हाउस के साथ “बीकानेर हॉउस“ महाराजा गंगा सिंह के शासनकाल में बना। तत्कालीन राजकुमार और ब्रितानी राजपरिवार इस भवन को विद्वानों की अपेक्षा सैनिकों की तरह खूबसूरत मानते थे। चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज के चांसलर के रूप में गंगा सिंह रियासतों और ब्रितानी हुकूमत के बीच संबंधों की बेहतरी के लिए काफी मेहनत की। उन्होंने इस भवन को बनाने के जिम्मेदारी पहले लुटियन और फिर बाद में ब्लॉमफील्ड को दी। जयपुर हाउस से पहले बने इस भवन में सफेद चूने से ढकी ईटों का प्रयोग किया गया। इस भवन को देखने पर राजपूती पंरपरा की वास्तु शैली तो नहीं दिखती पर फिर भी दूर से इमारत के शीर्ष पर बनी छतरियां साफ नजर आती है। आजादी से पहले बीकानेर हाउस रियासतों के राजकुमारों की बैठकों का साक्षी रहा है। जहां पर देश विभाजन, चैंबर ऑफ़ प्रिसेज के विघटन और आजाद भारत में रियासतों के स्थान जैसे उलझे हुए विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। वर्ष 1950 में प्रसिद्ध सितार वादक रवि शंकर ने बीकानेर महाराजा से यहां कुछ कमरे देने का अनुरोध किया था। रवि शंकर यहां पर एक अंतरराष्ट्रीय संगीत केंद्र खोलना चाहते थे पर किसी कारणवश यह योजना फलीभूत नहीं हुई।
अरावली पर्वतमाला और दिल्ली का अटूट नाता
महान भारतीय जल-विभाजक अरावली, अरब सागर सिस्टम तथा पश्चिमी राजस्थान के अपवाह क्षेत्र को यमुना नदी द्वारा (जिसका जलस्त्रोत चंबल, बानगंगा, कुंवारी तथा सिंधु आदि नदियां हैं) गंगा सिस्टम से अलग करती है। इसमें चंबल सिस्टम शायद यमुना से भी पुराना है, क्योंकि टर्शियरी और होलोसीन कालों में यह सिंधु सिस्टम का एक हिस्सा हुआ करता था। गंगा डेल्टा के अवतलन के कारण तथा बाद में अरावली-दिल्ली धुरी क्षेत्र के उभार के कारण यमुना के प्रवाह मार्ग में परिवर्तन होने लगा, वह गंगा की सहायक नदी बन गई तथा मध्यक्षेत्रीय अग्रभाग में प्रवाहमान चंबल और अन्य नदियों के अपवाह क्षेत्र का इसने अपहरण कर लिया। सरस्वती नदी तंत्र का 1800 ईसा पूर्व परित्याग करने के बाद पूर्ववर्ती बहने वाली यमुना अपने प्रवाह मार्ग को तीव्र गति से परिवर्तित करती हुई पूर्व दिशा में ही बहती रही।
अरावली पर्वतमाला एक वक्रीय तलवार की तरह है तथा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में इस क्षेत्र की सर्वप्रमुख भू-आकृतिक संरचना के रूप में विस्तृत है। यह श्रृंखला समान चौड़ाई वाली नहीं है तथा यह गुजरात के पालनपुर से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है। अरावली श्रृंखला के सबसे भव्य और सर्वाधिक प्रखर हिस्से मेवाड़ और मेरवाड़ा क्षेत्र के पहाड़ों के हैं जहां ये अटूट श्रृंखला के रूप में मौजूद हैं। अजमेर के बाद ये टूटी-फूटी पहाड़ियों के रूप में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में इनकी दिशा उत्तर पूर्ववर्ती उभार के रूप में सांभर झील के पश्चिम से होते हुए क्रमशः जयपुर, सीकर तथा अलवर से खेतड़ी तक जाती है। खेतड़ी में यह अलग-थलग पहाड़ियों के रूप में जमीन की सतह में विलीन होने लगती हैं और इसी रूप में इन्हें दिल्ली तक देखा जा सकता है।
Sunday, November 24, 2019
Temporary Capital of British_Civil Lines_अंग्रेजों की अस्थायी राजधानी सिविल लाइंस
23112019_ दैनिक जागरण |
वर्ष 1857 में देश की आजादी की पहली लड़ाई में भारतीयों की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजी राज के गुस्से और विध्वंस की गवाह बनी। उसके बाद, अंग्रेजों ने अपनी सेना और प्रशासन में कार्यरत गोरों के लिए शाहजहांनाबाद के बाहर घर, कार्यालय, चर्च और बाजार बनाए। इस तरह, गोरों की आबादी शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर बस गई और सिविल लाइंस का नया इलाका दिल्ली के नक्शे में उभरकर सामने आया।
तब नई दिल्ली को अपनी खूबसूरत-विशाल इमारतों के दुनिया के नक्शे पर उभरने में दो दशकों की दूरी थी। जॉर्ज पंचम की घोषणा (वर्ष 1911) और राजधानी के रूप में नई दिल्ली के बसने में बीस बरस (वर्ष 1931) का समय लगा।
अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली को बनाने के काम को उत्तरी दिल्ली यानी सिविल लाइंस से पूरा किया गया। इस इलाके को अस्थायी राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। दिल्ली के राजधानी बनने के बाद, अस्थायी राजधानी (उत्तरी दिल्ली) में 500 एकड़ क्षेत्र जोड़कर उसकी देखभाल का जिम्मा "नोटिफाइड एरिया कमेटी" और प्रस्तावित नई दिल्ली को बनाने का जिम्मा "इंपीरियल दिल्ली कमेटी" को दिया गया। इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी बनाई गई। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया।
अंग्रेज सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया।
वर्ष 1912 में मुख्य भवन पुराना सचिवालय, जहां आज की विधानसभा है, पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। यही पर 1914-1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें की और काम किया। तिमारपुर, चंद्रावल, वजीराबाद गांवों की जमीनों का अस्थायी सरकारी कार्यालयों के निर्माण के लिए वर्ष 1912 में अधिग्रहण किया गया। इसी तरह, मैटकाफ हाउस का अधिग्रहण कांउसिल चैम्बर, सचिवालय को कार्यालयों, प्रेस और काउंसिल के सदस्यों के घरों के उपयोग के लिए किया गया।1920-1926 की अवधि में मैटकाफ हाउस केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल ऑफ़ स्टेट का गवाह रहा।
वर्ष 1911 में दिल्ली राजधानी बनने के बाद पहले मुख्य आयुक्त की नियुक्ति हुई और उसे पुलिस महानिरीक्षक की शक्तियां और कार्य भी सौंपे गए। दिल्ली शहर में कोतवाली, सब्जी मंडी और पहाड़गंज तीन बड़े पुलिस थाने थे जबकि सिविल लाइन्स में रिजर्व पुलिस बल, सशस्त्र रिजर्व पुलिस बल और नए रंगरूटों के रहने के लिए विशाल पुलिस बैरकें थीं। राजनिवास के दूसरी तरफ ओल्ड पुलिस लाइन आज भी मौजूद है।
अंग्रेज़ वॉयसरॉय लार्ड हार्डिंग मार्च, 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुंचा था। वर्ष 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लॉज, वायसराय का निवास बना। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना। आज के सिविल लाइन्स के पास उत्तरी दिल्ली में पुराना वाइसरीगल लॉज अभी भी है, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का कार्यालय है।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली के राजधानी बनने के राजनीतिक फैसले का यहां के नागरिकों को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना के रूप में फायदा मिला। वर्ष 1922 में एक आवासीय शिक्षण विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। डॉ हरिसिंह गौर उसके पहले कुलपति नियुक्त हुए जो कि चार साल (1922-26) कुलपति के पद पर रहे। जब डीयू अस्तित्व में आया, तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। वर्ष 1924-25 में डीयू के पहले अकादमिक सत्र में परीक्षाए हुई, जिसका परिणाम संतोषजनक रहा।
Saturday, November 16, 2019
Delhi Visit of Swiss Traveler Antoine Louis Henry Polier_स्विस यात्री पोलियर की दिल्ली
Saturday, November 9, 2019
History of Mapping of India_हिंदुस्तानी मानचित्रों की अनवरत यात्रा
Saturday, November 2, 2019
Punjabi people_after partition of country_delhi_शरणार्थी नहीं, पुरुषार्थी पंजाबी
दैनिक जागरण, 02112019 |
वर्ष 1947 में देश को आजादी के साथ बंटवारे का भी दर्द सहना पड़ा। देश का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन के कारण विशाल और अभूतपूर्व सामूहिक आप्रवास के दृश्य देखने में आए। वर्ष 1946 में पाकिस्तानी प्रदेशों से हिन्दुओं के आने का तांता संख्या में निरंतर बढ़ता गया और 1947 के मध्य में उसने धारा की जगह उफनती बाढ़ का रूप ले लिया।
दिल्ली में आकर बसने वाले विस्थापितों के अंतर्गत सबसे अधिक संख्या 17 प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तान के लाहौर नगर से आने वालों की थी। कुछ अन्य पाकिस्तानी नगरों का अनुपात इस प्रकार थाः रावलपिंडी-आठ प्रतिशत, मुल्तान-77 प्रतिशत, शाहपुर-56 प्रतिशत, गुजरांवाला-54 प्रतिशत, लायलपुर-51 प्रतिशत, स्यालकोट-39 प्रतिशत और पेशावर-30 प्रतिशत। इससे यह साफ हो जाता है कि दिल्ली में पाकिस्तानी पंजाब सूबे से सबसे अधिक शरणार्थी आए।
प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' के लेखक भीष्म साहनी अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" में लिखते हैं कि दिल्ली शहर, शरणार्थियों से अटा पड़ा था। जहां जाओ, जिस ओर जाओ, शरणार्थी घूमते-फिरते मिलेंगे, सभी किसी-न-किसी तलाश में। बाहर से आने वाले दुखी थे, पर अक्सर वे अपना रोना नहीं रोते थे। शायद इस आशावादिता का एक कारण यह भी रहा हो कि ये शरणार्थी मुख्यतः पंजाब से आए थे, और इस देश के लम्बे इतिहास में पंजाब सदा ही उथल-पुथल का इलाका रहा है, अमन-चैन उसके नसीब में नहीं रहा। हजारों वर्ष का इतिहास उथल-पुथल का ही इतिहास रहा है। उसका कुछ तो असर पंजाबियों की मानसिकता पर रहा होगा। कुछ ही समय बाद शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी नहीं हैं, हम पुरुषार्थी हैं, वे कहते।
दिल्ली आए शरणार्थियों को तीन मुख्य शिविरों में रखा गया। इनमें किंग्जवे कैम्प, सबसे बड़ा शिविर था जिसमें लगभग तीन लाख शरणार्थी रह रहे थे। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने चार मई 1948 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया कि हम पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को और सिखों को अभी तक फिर से बसा नहीं पाए हैं। "एक जिन्दगी काफी नहीं" पुस्तक में मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि वे (महात्मा गांधी) दिल्ली में होते थे तो बिड़ला हाउस के बगीचे में प्रतिदिन एक प्रार्थना सभा को संबोधित किया करते थे। इन प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान से आए पंजाबी ज्यादा होते थे।
वर्ष 1951 की जनगणना में राजधानी में जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लगभग पांच लाख शरणार्थियों का आगमन था। इस प्रकार आने वालों की संख्या ने अन्य प्रांतों से आ बसने वाले लोगों की संख्या को नगण्य बना दिया। इन शरणाथियों में बहुसंख्यक दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में ही बस गए।
इन शरणार्थियों की विशाल आबादी को बसाने के लिए तब के केंद्रीय पुर्नवास मंत्रालय ने दिल्ली के बाहरी क्षेत्र की परिधि में अनेक काॅलोनियां बनाई। विस्थापित परिवारों को इन रिफ्यूजी में बसाया गया, जिनके नाम राष्ट्रीय नेताओं के नाम पर रखे गए। जैसे लक्ष्मी नगर, नौराजी नगर, पटेल नगर, सरोजिनी नगर और रंजीत नगर।
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बाॅन्ड अपनी आत्मकथा "लोन फाॅक्स डांसिंग" में लिखते हैं कि हम तब की नई दिल्ली के सबसे दूसरे किनारे यानी नजफगढ़ रोड़ पर राजौरी गार्डन नामक एक शरणार्थी काॅलोनी में रह रहे थे। यह 1959 का समय था जब राजौरी गार्डन में पश्चिमी पंजाब के हिस्सों से उजड़कर आए हिंदू और सिख शरणार्थियों के बनाए छोटे घर भर थे। यह कोई कहने की बात नहीं है कि यहां कोई गार्डन नहीं था।
यही कारण था कि वर्ष 1951-61 की दो जनगणनाओं के बीच की अवधि में पश्चिमी दिल्ली के घनत्व का सबसे तेज गति से विकास रहा, जिसके बाद शाहदरा और दक्षिण दिल्ली का स्थान था। पश्चिम दिल्ली में जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार पांच गुनी से भी अधिक थी जबकि शाहदरा के लिए यह तीन गुनी और दक्षिण दिल्ली के लिए दुगुनी से अधिक थी।
इस पंजाबी आबादी का प्रभाव दिल्ली के भाषायी स्वरूप पर भी देखने को मिला। वर्ष 1961 की जनगणना में 316672 व्यक्तियों ने पंजाबी को अपनी मातृभाषा बताया। जबकि हिंदी को मातृभाषा बताने वाले व्यक्तियों ने तीन मुख्य अन्य भाषाओं के अंतर्गत पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी को घोषित किया।
Wednesday, October 30, 2019
Saturday, October 26, 2019
Story of Yaksh_Yakshini murals at RBI Delhi_रिज़र्व बैंक की लक्ष्मी के रखवाले यक्ष-यक्षिणी
दैनिक जागरण, 26/10/2019 |
अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद देश में बनी पहली भारतीय सरकार ने राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक संस्थानों के गठन के लिए भवनों के निर्माण की योजना बनाई।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भव्य और विशाल आकार वाले सार्वजनिक संस्थानों के भवनों को बनाने की योजना में वास्तुशिल्पियों, चित्रकारों और मूर्तिकारों को जोड़ने का सुझाव दिया। इस सुझाव के मूल में नवस्वतंत्र राष्ट्र के सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में भारतीय कलाकारों की प्रतिभा का किसी न किसी रूप में उपयोग करने की भावना थी। नेहरू का विचार था कि इन सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में आने वाली कुल लागत की तुलना में कला के काम पर अधिक खर्चा नहीं होगा। इससे भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहन मिलेगा और जनता ऐसे काम का स्वागत करेगी।
प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को व्यवहार रूप में लागू करने के लिए केंद्रीय वित्त सचिव श्री के.जी. अंबगांवकर ने तत्कालीन गर्वनर बी. रामा राव को इस विषय पर एक नोट भेजा। यह उस समय की बात है, जब भारतीय रिजर्व बैंक नई दिल्ली, मद्रास और नागपुर जैसे स्थानों में नए भवनों के निर्माण को लेकर सोच-विचार कर रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस प्रस्ताव की जांच और सुझाव देने के लिए एक समिति गठित की। इस समिति के सदस्यों में बंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट के डीन श्री जे.डी. गोंदेलकर, मैसर्स मास्टर, साठे और भूटा कंपनी के श्री जी.एम. भूटा और रिजर्व बैंक के सहायक मुख्य लेखाकार श्री आर.डी. पुलस्कर थे।
समिति ने नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर प्रतिमाएं लगाने की सिफारिश की। इनमें से एक को उद्योग और दूसरी को कृषि से समृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक विचार के रूप में लिया गया। तब भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड के तत्कालिक निदेशक जे.आर.डी. टाटा के आग्रह पर प्रख्यात आलोचक और कला के पारखी कार्ल खंडालवाला की इस विषय पर सम्मति पूछी गई। उन्होंने ही भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य द्वार के दो तरफ यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाओं को स्थापित करने के विचार का सुझाव दिया था। खंडालवाला की सलाह पर ही रिजर्व बैंक के नई दिल्ली कार्यालय के सामने के अहाते में अलंकरण के कार्य के लिए नौ कलाकारों से निविदाएं आमंत्रित की गई। अलंकरण के कार्य के लिए कुल आमंत्रित नौ कलाकारों में से पाँच ने अपने प्रस्ताव प्रस्तुत किए और उनमें से भी केवल ने एक ही प्रतिमाओं के निर्माण के लिए उपयुक्त मॉडल और रेखाचित्र दिए।
इस तरह, राम किंकर बैज का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। बैज ने पुरुष यक्ष की कला का प्रतिरूप मथुरा संग्रहालय में “परखम यक्ष” की प्रतिमा से और महिला यक्षिणी की कला का प्रतिरूप कलकत्ता संग्रहालय में बेसनगर यक्षिणी के आधार पर तैयार किया। श्री खंडालवाला की मान्यता थी कि ये विशाल प्रतिमाएं, नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालय की स्थापत्य विशेषताओं के साथ बेहद अच्छी लगेगी। एक ओर जहां, किसान-मजदूर की खुशहाली के विषय को नेहरू की वैज्ञानिक सोच से लिया गया तो वहीं दूसरी तरफ यक्ष और यक्षिणी के रूप में उसकी अभिव्यक्ति पारंपरिक दृष्टि रखने वालों की संवेदनाओं को पुष्ट करती थी।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यक्ष अर्ध देवयोनि के एक वर्ग में आते हैं और वे धन के देवता कुबेर के सेवक माने जाते हैं। यक्षों का काम कुबेर के उद्यानों और खजाने की रक्षा करना है। यक्षिणी एक महिला यक्ष है। भारतीय रिजर्व बैंक को नोट जारी करने का एकमेव अधिकार होने और केंद्र तथा राज्य सरकार के बैंक होने के नाते, इसकी तुलना धन के देवता कुबेर के साथ की सकती है। एक तरह से, यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाएं बैंक के खजाने की रक्षा का दायित्व संभाल रही है।
आधुनिक संदर्भ में, इन प्रतिमाओं की रूपवादी व्याख्याओं के अनुसार, ये दोनों प्रतिमाएं उद्योग और कृषि का प्रतीक रूप भी मानी जा सकती है। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि स्वतंत्रता के एकदम बाद देश का केंद्रीय बैंक होने के नाते रिजर्व बैंक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप इन क्षेत्रों के विकास को लेकर अत्यंत चिंतित था। इन प्रतिमाओं के निर्माण में लगे एक लंबे कालखंड ने बैंक अधिकारियों के धैर्य की परीक्षा ली। यह लंबा इंतजार, प्रसिद्ध शिल्प-कलाकार राम किंकर के उपयुक्त गुणवत्ता वाले पत्थर को चयनित करने में लिए अपार समय लेने के कारण हुआ। किंकर को इतना समय, सही पत्थर के लिए विभिन्न स्थानों की खोज, पत्थर की गुणवत्ता, पत्थर के उत्खनन में आई समस्याओं और पत्थर को ढोकर दिल्ली लाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करने में लगा।
इस काम में हुई खासी-लेटलतीफी के कारण कई बार तो रिजर्व बैंक को यह बात महसूस हुई कि रामकिंकर भले ही उत्कृष्ट कलाकार होने की योग्यता रखते हो पर शायद उनके पास प्रतिमाओं को बनाने का उद्यम करने का प्रबंधकीय कौशल नहीं है। जब दिसंबर 1966 के आसपास प्रतिमाएं गढ़कर पॉलिश के लिए तैयार हुई तो स्वीकृत लागत की अनुमानित मूल राशि में खासा संशोधन करना पड़ा।
पर किस्सा यही खत्म नहीं हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि आखिरकार जब प्रतिमाएं को स्थापित किया गया तब करीब दस साल से ज्यादा का समय बीत चुका था। जब इन प्रतिमाओं को बनाने का आदेश दिया गया था, तब से लेकर अब तक समय, स्थिति और समाज सभी में काफी परिवर्तन आ चुका था। केवल इतना ही नहीं, देश के नेतृत्व और जनमानस दोनों का दृष्टिकोण काफी बदल चुका था।
जब नई दिल्ली के संसद मार्ग पर रिजर्व बैंक के कार्यालय में प्रतिमाओं को स्थापित किया गया तो नागरिकों के एक वर्ग की पाखंडी संवेदनशीलता को ठेस लगी। इस वर्ग की उत्तेजना का वास्तविक कारण, अपने प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में दर्शायी गई यक्षिणी की प्रतिमा थी। उस समय सांसद प्रोफेसर सत्यव्रत सिद्वांतालंकार ने इन प्रतिमाओं के विषय को राज्यसभा में उठाया था। उन्होंने आवास और आपूर्ति मंत्री से यह सवाल पूछा कि संसद मार्ग स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के सामने एक नग्न स्त्री की प्रतिमा स्थापित करने का क्या उद्देश्य है, जबकि वास्तविकता में नग्न स्त्री की प्रतिमा अनिवार्य रूप से एक रूपक व्याख्या थी जो कि कृषि-समृद्वि का प्रतिनिधित्व करती थी। यह बात समझने-समझाने के लिए पर्याप्त थी पर तिस पर भी पूरक प्रश्न पूछे गए। इन प्रश्ननों में प्रतिमाओं के निर्माण की लागत के खर्च का ब्यौरा और इस कला की सिफारिश करने वाली समिति के सवाल थे। संसद के उच्च सदन में बेचैनी का कारण तो यक्षिणी की मूर्ति थी पर तब के लोकप्रिय साप्ताहिक अखबार “ब्लिट्ज”, जिसका न पाखंडी दृष्टिकोण था और न कला के बारे में अनजान, ने विशेष रूप से प्रतिमाओं को लेकर प्रकाशित समाचार को एक अलग ही कोण दे दिया। ब्लिट्ज ने यक्ष को एक उद्योगपति सदोबा पाटिल के समान बताते हुए “यक्ष पाटिल” शीर्षक वाले एक समाचार के साथ प्रतिमा की एक तस्वीर छापी। वह बात अलग थी कि राम किंकर के एक आधुनिक यक्ष, जो कि अब रिजर्व बैंक का रक्षक है, की संयोग से तब देश के बड़े व्यवसायियों में से एक सदोबा पाटिल से अद्भुत समानता थी।
“ब्लिट्ज” के प्रकाशित लेख को ध्यान में रखते हुए देखते हुए यह बात महसूस की गई कि प्रतिमाओं के कारण उपजी गलतफहमियों को रिजर्व बैंक की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कला-कार्य पर सफाई देनी चाहिए। फिर विज्ञप्ति को जारी करने से एक बार फिर विवादों को हवा मिलने की भी आषंका जताई गई। फिर अंत में रिजर्व बैंक में इस विषय पर चुप्पी ही साधने की बात पर सहमति बनी। पचास के दशक में, जब नेहरू ने देश में कला को प्रोत्साहन देने के विचार की कल्पना की थी, वह आशावादिता का एक युग था। जबकि तुलनात्मक रूप से, साठ के दशक में एक तरह से कला का विचार पृष्ठभूमि में चला गया था। इस तरह, दोनों कालखंडों में विचार के स्तर पर काफी अंतर आ गया था। रिजर्व बैंक के गर्वनर पी.सी. भट्टाचार्य ने समय की गति को पहचानते हुए टिप्पणी की थी कि मुश्किल समय में चुप रहना ही बेहतर होता है। आज के हिसाब से पैसे को खर्च करने का निर्णय और परियोजना के देरी से पूरा होने की बात को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में, एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से रिजर्व बैंक के प्रांगण में लगाई गई प्रतिमाओं के प्रतीकात्मक महत्व को समझाने की बात व्यर्थ ही होगी। हम संसद में पूछे जाने वाले किसी भी सवाल का सीधा या तदर्थ आधार पर जवाब दे सकते हैं। इस तरह, एक अच्छा विचार और कार्य मात्र देरी की वजह से शंका और संदेह का शिकार हुआ।
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