Saturday, June 9, 2012

last carriage of the train

 रेल का आखिरी डिब्बा

उसके जाने के बाद
चेहरा फिर भी चमक जाता था
अंधेरे में मेरे ।

न जाने आंखों को,
कौन सा मोतियाबिंद था
हर तरफ वहीं दिखती थी ।
बिना देखे,
मन को ।

पर
इस बार जो गुम हुआ,
दुनिया के मेले में
मुझे तो क्या
किसी को भी नहीं दिखा
भीड़ के रेले में ।

अब
जब भी कभी,
स्टेशन से गुजरती रेल के आखिरी डिब्बे की लाल बत्ती
दूर ओझल होने तक टिमटिमाती है
तो मुझे अनायास
फिर
उसकी याद आती है ।

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