मीर तक़ी मीर
प्रसिद्ध शायर ‘मीर’ तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा साल गुजर गये पर वे जैसे अपने समय में लोकप्रिय थे, वैसे ही आज भी हैं। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने दुःख की भावना को इतना प्रबल कर दिया कि बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कही उनकी बात हर ज़माने के लोगों को प्रभावित करने लगी।
प्रसिद्ध शायर ‘मीर’ तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा साल गुजर गये पर वे जैसे अपने समय में लोकप्रिय थे, वैसे ही आज भी हैं। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने दुःख की भावना को इतना प्रबल कर दिया कि बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कही उनकी बात हर ज़माने के लोगों को प्रभावित करने लगी।
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।
‘मीर’ ने तो शायद यह शेर कवि सुलभ आत्माभिमान की दृष्टि से कहा हो
किन्तु यह बात पूर्णतः सच निकली है। ‘मीर’ के ज़माने को लगभग 200 वर्ष हो गये।
ज़बान बदल गयी, अभिव्यक्ति का ढंग बदल गया, काव्य-रुचि बदल गयी किन्तु ‘मीर’ जैसे
अपने ज़माने में लोकप्रिय थे वैसे ही आज भी हैं। कोई ज़माना ऐसा नहीं गुजरा जब कि
उस्तादों ने ‘मीर’ का लोहा न माना हो। उनके प्रतिद्वंद्वी ‘सौदा’ ने भी, जो
निन्दात्मक काव्य के बादशाह समझे जाते हैं और जिनकी कभी-कभी ‘मीर’ से शायराना चोटें
चल जाती थीं, ‘मीर’ की खुले शब्दों में प्रशंसा की हैः-
सौदा’ तू इस ज़मीं से ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही लिख।
होना है तुझको ‘मीर’ से उत्साद की तरफ़।।
होना है तुझको ‘मीर’ से उत्साद की तरफ़।।
उर्दू भाषा की सबसे अधिक साज-संवार करने वाले उन्नीसवीं शताब्दी के
पूर्वार्ध के लखनवी उस्ताद ‘नासिख़’ का मिसरा हैः-
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।
‘ग़ालिब’ ने भी ‘नासिख’ का हवाला देकर उनके विचार की पुष्टि की
हैः-
ग़ालिब’ अपना को अक़ीदा है ब-क़ौले-नासिख़’।
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।।
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।।
‘जौक़’ का शेर हैः-
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
उन्नीसवीं सदी के अंत में ‘अकबर’ इलाहाबादी ने लिखाः-
मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊं ‘अकबर’।
‘नासिख़ो’-जौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ।।
‘नासिख़ो’-जौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ।।
बीसवीं सदी के ईसुल-मुतग़ज़्ज़लीन (ग़ज़ल रचयिताओं के नायक) मौलाना
‘हसरत’ मोहानी लिखते हैं-
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
‘दाग़’ के शागिर्द नाखुदाए-सुकन जनाब ‘नूह’ नारवी का मिसरा
है-
बड़ी मुश्किल से तक़लीदे-जनाबे ‘मीर’ होती है।
और ख़ुद ‘मीर’ कहते हैं-
बड़ी मुश्किल से तक़लीदे-जनाबे ‘मीर’ होती है।
और ख़ुद ‘मीर’ कहते हैं-
मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
दरअसल ‘मीर’ की स्थायी सफलता का रहस्य यही है कि उन्होंने अपनी दुख की
संवेदना को इतना मुखर कर दिया था कि उनके सीधे-सादे शब्द भी हर ज़माने में
बड़े-बड़े काव्य-मर्मज्ञों को प्रभावित करते रहे हैं। भाग्य ने उनके व्यक्तिगत जीवन
और उनके समय की सामाजिक परिस्थतियों को स्थिरता और आराम-चैन से इतना अलग कर दिया था
कि ‘मीर’ का हृदय एक टूटा हुआ खंडहर बन गया और उसमें से दर्दों-गम की ऐसी तानें
निकली जिन्होंने ‘मीर’ को कविता के क्षेत्र में अमरत्व प्रदान कर दिया।
यह ध्यान देने की बात है कि ‘मीर’ के समकालीन और काव्य-क्षेत्र में उन्हीं की-सी हैसियत रखने वाले मिर्ज़ा ‘सौदा’ की काव्य-रचना अपनी चमक-दमक के लिए प्रसिद्ध थी। इनके पूर्ववर्ती उस्तादों के यहां भी सीधी-सादी प्रेम-भावनाओं का वर्णन है। उनके बाद के ज़माने में भी शोखी और चंचलता उर्दू-शायरी का दामन छोड़ती नहीं दिखाई देती। लेकिन ‘मीर’ ने अपना करुणा का रंग सबसे अलग निकाला और इस प्रभाव के साथ अपनी बात कही कि सदियों तक लोगों के दिलों में गड़ी रहेगी। अपने इस रंग के बारे में उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा-चढ़ा था और वे गम्भीरता को छोड़कर चंचलता का सहारा लेना पसन्द न करते थे। इस मामले में खुद जाकर किसी पर आपत्ति नहीं की, लेकिन जिन चंचलता के पृष्ठ-पोषक कवियों ने इनसे प्रोत्साहन चाहा उन्हें फटकार ही मिली। लखनऊ में थे तो उनके मकान पर मुशायरा हुआ करता था। उसमें एक दिन ‘ज़ुर्रत’ ने, जो नयी उठान के चंचलता-प्रिय कवि थे, अपनी ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तत्कालीन रुचि के मुताबिक़ खूब तारीफ़ हुई। ‘मीर’ चुपचाप बैठे रहे। ‘ज़र्रत’ को मुशायरे में मिली प्रशंसा काफ़ी न मालूम हुई तो ‘मीर’ साहब के पास आकर बैठ गये और अपनी ग़ज़ल के बारे में उनकी राय जाननी चाही। ‘मीर’ साहब ने टालमटोल करनी चाही, लेकिन शामत के मारे ‘ज़ुर्रत’ पीछे पड़े गये। ‘मीर’ साहब त्योरी चढ़ा कर बोले, ‘‘कैफ़ीयत इसकी यह है कि तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमाचाटी कह लिया करो।’’
इसी तरह सआदत यार खां ‘रंगीं’ जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में ‘मीर’ साहब के पास गये। ‘मीर’ साहब का बुढ़ापा था और ‘रंगीं’ चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। ‘मीर’ साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए। शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पे न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब ‘मीर’ साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।
शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी ‘मीर’ ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि ‘मीर’ शायरी को सिर्फ़ मन-बहलाव की चीज़ नहीं समझते थे, बल्कि उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग मानते थे और दूसरों से भी ऐसी ही आशा करते थे।
यह ध्यान देने की बात है कि ‘मीर’ के समकालीन और काव्य-क्षेत्र में उन्हीं की-सी हैसियत रखने वाले मिर्ज़ा ‘सौदा’ की काव्य-रचना अपनी चमक-दमक के लिए प्रसिद्ध थी। इनके पूर्ववर्ती उस्तादों के यहां भी सीधी-सादी प्रेम-भावनाओं का वर्णन है। उनके बाद के ज़माने में भी शोखी और चंचलता उर्दू-शायरी का दामन छोड़ती नहीं दिखाई देती। लेकिन ‘मीर’ ने अपना करुणा का रंग सबसे अलग निकाला और इस प्रभाव के साथ अपनी बात कही कि सदियों तक लोगों के दिलों में गड़ी रहेगी। अपने इस रंग के बारे में उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा-चढ़ा था और वे गम्भीरता को छोड़कर चंचलता का सहारा लेना पसन्द न करते थे। इस मामले में खुद जाकर किसी पर आपत्ति नहीं की, लेकिन जिन चंचलता के पृष्ठ-पोषक कवियों ने इनसे प्रोत्साहन चाहा उन्हें फटकार ही मिली। लखनऊ में थे तो उनके मकान पर मुशायरा हुआ करता था। उसमें एक दिन ‘ज़ुर्रत’ ने, जो नयी उठान के चंचलता-प्रिय कवि थे, अपनी ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तत्कालीन रुचि के मुताबिक़ खूब तारीफ़ हुई। ‘मीर’ चुपचाप बैठे रहे। ‘ज़र्रत’ को मुशायरे में मिली प्रशंसा काफ़ी न मालूम हुई तो ‘मीर’ साहब के पास आकर बैठ गये और अपनी ग़ज़ल के बारे में उनकी राय जाननी चाही। ‘मीर’ साहब ने टालमटोल करनी चाही, लेकिन शामत के मारे ‘ज़ुर्रत’ पीछे पड़े गये। ‘मीर’ साहब त्योरी चढ़ा कर बोले, ‘‘कैफ़ीयत इसकी यह है कि तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमाचाटी कह लिया करो।’’
इसी तरह सआदत यार खां ‘रंगीं’ जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में ‘मीर’ साहब के पास गये। ‘मीर’ साहब का बुढ़ापा था और ‘रंगीं’ चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। ‘मीर’ साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए। शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पे न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब ‘मीर’ साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।
शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी ‘मीर’ ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि ‘मीर’ शायरी को सिर्फ़ मन-बहलाव की चीज़ नहीं समझते थे, बल्कि उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग मानते थे और दूसरों से भी ऐसी ही आशा करते थे।
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