दीपावली की अमावस्या को मनुष्य के हाथ अन्धकार से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसके द्वारा रचे गये दीपक, उसके द्वारा उपजाये तिलों का तेल इसके साधन-द्रव्य बनते हैं।
इस पर्व में तो हमारे कर्मों की फसल का तेज ही रूपमयी ज्योति-शिखा बनकर जलता है । अन्धकार से जूझते हुए मनुष्यकृत मिट्टी के दीपकों से हमारा एक भावात्मक सम्बन्ध है क्योंकि ये हमारी मृन्मयी धरती के हैं। अतः इनसे हमारी बिरादरी या भाईचारा का सम्बन्ध है। वस्तुतः जब हमारे कर्म से उपलब्ध दीपक धरती पर प्रतिष्ठित होकर जलने लगते हैं तो देवताओं द्वारा आलोकित आसमान का तारामण्डल फीका पड़ जाता है।
अन्धकार में विचरण करने वाले, तीक्ष्ण नखदन्त वाले श्वापद-श्रृगाल तथा विषधर सर्प मनुष्यकृत प्रकाश की इस महिमा के सामने लज्जा से मुँह छिपा लेते हैं और सारी अशुभ शक्तियाँ नतमस्तक होकर हार मान लेती हैं।
दीपावली मनुष्य के इस गौरवबोध का पर्व है।
आज जब हमारा जल प्रदूषित हो रहा है, पवन अशुद्ध है, भाषा दिन-पर-दिन धूर्त्त और अश्लील होती जा रही है, विदेशी संकर बीजों का अन्न खाते-खाते स्वाद, रुचि अपवित्र और अस्वस्थ होती जा रही है, विदेशी नकल पर आधारित साहित्य और शिल्प द्वारा संस्कार अप्राकृतिक और असहज होते जा रहे हैं, हमारे लिए इस पर्व के भीतर निहित संकेत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
-कुबेरनाथ राय
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