प्रगतिशील आन्दोलन में अपने बौद्धिक पुरखों के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखता..ऐसा प्रतीत हो सकता है कि प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए दुनिया के गैरउच्चवर्णीय जनों से निकले फुले और नारायणगुरूओं की कोई अहमियत न हो ..(इसके अलावा) यह दिख सकता है कि प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन ने कभी क्लासिकीय भाषाओं के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित नहीं किया।जनता की जुबां के सेलिब्रेशन का मतलब क्लासिकीय को खारिज करना हो, यह कोई जरूरी नहीं है।..इसके चलते कई लोग संस्कृत जैसी भाषा को किसी जाति समूह या धार्मिक समूह तक सीमित कर देते हैं। यह वही हुआ कि आप उर्दू को मुसलमानों तक सीमित कर दें।..
-गोविंद पुरूषोत्तम देशपांडे, टाकिंग द पोलिटिकल कल्चरली
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