आज ड्रामा देखने एनएसडी गया था बच्चों के साथ उन्हें हिंदी का रंगमंच दिखाने । वहीं पत्रकारिता के संघर्ष के दिनों के एक पुराने साथी मिल गए तो उनसे एक और ड्रामे का पता चला । एक ऐसा संस्थान, जो कि प्रिंट से लेकर आकाश के तरंगों तक छाया हुआ है, हिंदी की लाइब्रेरी और उसमें काम करने वाले "डायनासोर" प्रजाति में आ गए है। काम से लेकर रोजी-रोटी तक सब संकट में !
काफी झटका लगा, जिस दुनिया में हिंदी सीखी, पत्रकारिता का ककहरा सीखा, जिस नींव के सहारे सरकारी नौकरी पायी, आज वही दुनिया मानो भरभरा कर धूल धूसरित हो गयी ।हिंदी के नाम पर राज्यसभा से लेकर दलीय-राजनीति में मुकाम बनाने वाले मठाधीश, चैनल हैड से लेकर समाचार पत्रिका के नीति-नियंता, हिंदी के रास्ते को अपने लिए 'वन-वे' और खुद की ऊंची उड़ान के लिए 'रन-वे' बनाकर बाकियों को 'तड़ी-पार' कर देंगे ऐसा तो कभी सपने में दुश्मन के लिए भी नहीं सोचा ।इससे तो लाख गुना बेहतर सरकार है, जिसका हर विभाग 'हिंदी' की पुस्तक, यहाँ तक कि 'पांडुलिपि' के लिए सालाना पुरस्कार देता है । सरकार हिंदी में पत्रिकाएं, चाहे वे अनियमित निकलती हो, छापती है, हिंदी अनुवादक से लेकर अधिकारी नियुक्त करती है, फिर चाहे सरकारी हिंदी कितनी ही दुरूह और कठिन क्यों न लगती हो ?ऐसे में यह सवाल बड़ा स्वाभाविक है कि हिंदी के टीवी चैनलों में कितनों में लाइब्रेरी हैं, बीटा के कैसेटो कि नहीं बल्कि हिंदी की पुस्तकों की ।शायद हिंदी के दम पर आकाश में छाए चैनलो में कितनी हिंदी की किताबों पर खबरें बनती है और दिखायी जाती है, इसका विश्लेषण तो मीडिया आलोचक करेंगे पर हिंदी की कितनी किताबें खरीदी जाती है, पढ़ने-पढ़ाने के लिए इसका जवाब तो चैनल के कर्ता-धर्ता ही बता पायेंगे !या फिर टीआरपी के चक्कर में हिंदी की किताबों का ही 'चैनल' निकाला हो गया लगता है, जैसा कि देश के सबसे ज्यादा 'बिकने' का दावा करने वाले एक अख़बार ने 'जगह' के अभाव में 'लाइब्रेरी' को ही विदाई दे दी ।
शायद राममनोहर लोहिया ने इसीलिए कहा था कि हिंदुस्तान में अगर पत्थर को भभूत लगा दी तो वह शिवजी हो गया और अगर सिंदूर लगा दिया तो हनुमान । बाकी तो "हम हिंदी के लोग" अपने-आप "रामभरोसे" है ही चाहे फिर किसी का आज के दौर में भले ही राम पर भरोसा हो न हो ।
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