यह जंगल के कानून में तो न था पर दूसरे जानवरों के घरों में झाँकने का मानो कौवों ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया था. उनकी काँव-काँव से तो दुनिया परिचित थी पर इस ताका-झांकी से वह भी हैरान परेशान थी. मजेदार था कि कौवों के घोसलों में पीछे से कौन गुल खिला जाता और कौन किसको खा जाता, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था.
कौवा बोलता था कोयल से कि तुझसे सुन्दर कौन और इस ग़रज़ में कोयल भी बोलती थी कि कौवे से मधुर कौन! एक-दूसरे पर दोनों ऐसे रीझते थे मानो हम बने, तुम बने एक दूजे के लिए.
कौवों को जंगल में अपनी जमात को छोड़ कर सब पर काँव-काँव करने की आज़ादी थी क्योंकि अपने झुंड पर चोंच लगाने से न केवल चोट लगने का खतरा था बल्कि जमात से बाहर होने का अंदेशा भी था.
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