Wednesday, May 31, 2017
Rajasthan_dharti dhora ri_धरती धोरा रीं
अजमेर के दक्षिण पश्चिम की ओर ऊपर उठा हुआ लगभग 700 फुट ऊंची पहाड़ी पर भव्य तारागढ़ का किला है। इस किले को पहले अजयमेरू कहा जाता था। बिजोलिया में मिले शिलालेख से बात प्रमाणित होती है। तारागढ़ पर चढ़ाई एक कठिन काम है। जब घाटी के नीचे से दृश्य देखा जाय, दूरी से पहाड़ी पर स्थित दुर्ग रात्रि में तारे सा सुशोभित (तारा सुशोभित दुर्ग) दिखाई पड़ता है। इसी कारण यह दुर्ग तारागढ़ कहलाया। इसमें कुछ बड़े तो कुछ छोटे द्वार हैं। यहां कुल नौ द्वार हैं जो वर्तमान में अलग अलग नामों (लक्ष्मी पोल, फूटा दरवाजा, गगुड़ी की फाटक, विजय द्वार, भवानी पोल और हाथीपोल) से जाने जाते हैं। बीतली नाम की पहाड़ी पर बनाए जाने के कारण तारागढ़ को ग्राम गीतों में गढ़ बीतली भी कहा जाता है। तारागढ़ ने बहुत सी घेराबन्दियों का सामना किया, कई लड़ाइयां देखी जिनमें इसकी दीवारें टूटी और इसके बाद विजेताओं ने उसे ठीक करवाया या नई दीवारों को बनवाया। यहां आज भी हिंदुओं शासकों के समय के बनवाए गए मूल किले के अवशेषों को चारदीवारी की निचली सतह में लगे बलुआ पत्थर के चौकों में देखा जा सकता है।
किशनगढ़
पुष्कर
यहा पांच प्रमुख मंदिर हैं, ब्रह्मा, सावित्री, बद्रीनारायण, वराह तथा आत्मतेश्वसर। पुष्कर कस्बा दो भागों में बंटा हुआ है। जिस भाग में बराहजी और रंगजी का मंदिर स्थित है उसे छोटी बस्ती कहा जाता है तथा दूसरे भाग को बड़ी बस्ती।
नगर से किले तक पहुंचने के लिए चार द्वार हैं, जो अखेपोल, गणेशपोल, बूतापोल तथा हवापोल के नाम से प्रख्यात है। किले के प्रांगण में चार वैष्णव तथा आठ जैन मंदिर हैं। वैष्णव मन्दिरों में से एक के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह 12 वीं शताब्दी में, रावल जैसल ने बनवाया था, जो आदिनारायण तथा टीकमजी के मन्दिर के नाम से प्रख्यात है, जबकि दूसरा जो लक्ष्मीनाथजी का मंदिर कहलाता है रावल लखन से संबंधित हे तथा अपने सोने व चांदी से मढ़े कपाटों के कारण विशेष महत्व रखता है।
Saturday, May 27, 2017
Development of Delhi with Railways_रेल की पटरियों के साथ बढ़ी-बसी दिल्ली
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अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली एक लंबे कालखंड (1857-1911) तक तबाही की गवाह बनी। उसके बाद यहाँ रेलवे के आगमन के साथ ही इमारतों के बनने का सिलसिला शुरू हुआ। दिल्ली शहर के पश्चिम की दिशा के भू-भाग में स्थानीय जनता की भलाई के लिए विकास के कुछ प्रयास किये गए। लिहाजा, तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन में गोरे कर्मचारी और अफसरानों के लिए घर, कार्यालय, चर्च और बाजार बनाए। इस तरह, कुछ समय में ही शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर गोरों की आबादी वाला नया शहर दिल्ली के नक़्शे उभरकर सामने आया।
जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के हिसाब से यह एक महत्वपूर्ण काल था। ख़ास बात यह भी है कि 1911 में जब देश की राजधानी कोलकता से दिल्ली लायी गयी, तब भी अंग्रेजों ने बड़ी इमारतों, रिहायशी मकानों के अलावा दफ्तरों का एक नए सिरे से एक नए नगर योजना बनाई।
वैसे तो 1860 के बाद से अंग्रेज़ सरकार ने शहर का पुनर्निर्माण शुरू कर दिया था और इसी प्रक्रिया में दिल्ली के रूप-स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिला। इस मामले में सबसे रोचक तथ्य यह है की 1857 की पहली जंगे-आज़ादी के बाद सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही अंग्रेज सरकार ने शहर के विकास की योजना का खाका तैयार किया।
जंगे-आज़ादी के कोई चार साल बाद (1861), रेलवे लाइन बिछाने की योजना के तहत लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के इलाके को ध्वस्त कर दिया। 1857 की घटना से अंग्रेजों ने यह सबक सीखा कि दिल्ली की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है और उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। 1857 में हाथ जला चुकी अंग्रेज़ सरकार भविष्य में भारतीयों के बगावत को आसानी से नहीं होने देने की मंशा के बीच कलकत्ता गेट के स्थान को समेटते रेलवे पटरी बिछाई गयी। कुछ अंग्रेज अधिकारी दिल्ली में रेलवे के पक्ष में इस वजह से नहीं थे क्योंकि वे दिल्लीवालों को आजादी के पहले आंदोलन में भाग लेने की मुकम्मल सजा देना चाहते थे।
भारत के आधुनिक जमाने के प्रारंभिक बंदरगाह वाले शहरों के योजनाकार मिटर पार्थ (1640-1787) ने लिखा है "अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के अंग्रेजों की गुलामी के विरूद्व दोबारा संघर्ष का बिगुल बजाने के भय और शहरों में नए निर्माण के लिए जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को ध्वस्त करने की बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी नीति में योजना और डिजाइन का पालन किया।" इस तरह, रेलवे का मुख्य मक़सद भविष्य में भारतीयों की सशस्त्र चुनौती से निपटने के लिए अंग्रेज़ सेना को दिल्ली पहुंचाना था।
दिल्ली की सुरक्षा को अपनी योजना को केंद्र में रखकर ही मेरठ में एक अंग्रेज छावनी बनायी गई क्योंकि वहाँ से अंग्रेज सेना आसानी से दिल्ली तक पहुंच सकती थी। इसके लिए रेलवे लाइन मेरठ, गाजियाबाद, लोनी,सीलमपुर से होते हुए दिल्ली तक बिछाई गई। यमुना नदी पर एक लोहे का पुल बनाया गया, जो कि दिल्ली को मेरठ से जोड़ता था। वर्ष 1866 के अंत में यह पुल यातायात के लिए खोल दिया गया। इस तरह, आखिरकार कलकत्ता और दिल्ली रेल यातायात से जुड़ गए।
Delhi Monument_different story_Pillar Maria_दिल्ली के हर पुराने स्मारक की एक अलग कहानी कुछ कहती है....पिलर मारिया गयएरीरी
दैनिक जागरण, 27052017 |
दिल्ली के हर पुराने स्मारक की एक अलग कहानी कुछ कहती है....पिलर मारिया गयएरीरी
पिछले 16 साल समकालीन दिल्ली पर काम कर रही इतालवी लेखिका पिलर मारिया गयएरीरी एक ऐसी ही अन्वेषक है, जिनकी हाल में ही रोली बुक्स से "मैप्स आॅफ दिल्ली" नामक एक काॅफी टेबल बुक प्रकाशित हुई है। उन्होंने अपनी पुस्तक में दिल्ली शहर की वास्तुकला और योजना बनाते समय देसी संदर्भ, उसका भूविज्ञान, जलवायु और संस्कृति, की अनदेखी को रेखांकित किया है। इसी क्रम में उन्होंने भारतीय वास्तुकारों के इन मूलभूत कारकों पर ध्यान देने की अपेक्षा केंद्रीयकृत योजना यानी ऊपर से थोपने की प्रवृति की कमी को उजागर किया है।
कुछ अपने बारे में बताए?
मेरा जन्म इटली में हुआ और मैंने बचपन में ही अपने मां-बाप की भारत यात्रा की गवाह बनी। मैंने इटली से ही वास्तुशास्त्र में स्नातक डिग्री हासिल की और पीएचडी में दाखिला लिया। मेरी पीएचडी का विषय "स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात दिल्ली के शहरी विकास और वास्तुकला पर अंग्रेजी-अमेरिकी संस्कृति के प्रभाव" था। मैं अपनी पीएचडी खत्म करके अभी गोयनका विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में पढ़ा रही हूँ।
आपको अपनी दिल्ली के नक्शों पर हाल में प्रकाशित हुई पुस्तक "मैप्स आॅफ दिल्ली" का विचार कैसे आया?
मुझे आजादी से पहले और बाद की दिल्ली के वास्तुशास्त्र और योजना विषय पर अपनी पीएचडी के दौरान यह बात ध्यान में आई कि विशेषज्ञों में भी आजादी से पहले और बाद की दिल्ली के विकास को लेकर काफी भम्र है। ऐसे में मैंने नक्शों की मदद से इस भम्र को दूर करने की कोशिश। जब मैं देश-भर के अभिलेखागारों और संस्थानों में देश की आजादी से पहले और आजादी के बाद के नक्शों को खोज रही थी, उसी दौरान मैंने इससे जुड़े दूसरे दस्तावेज भी खोजकर एकत्र करने लगी।
ऐसे में दिल्ली पर आपका ध्यान कैसे गया?
एक देश के रूप में इटली का ज्यादा फैलाव नहीं हुआ है। वहां मौजूदा भवनों के संरक्षण और दोबारा उपयोग पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। मैं अपनी पीएचडी के दौरान एक ऐसे देश की तलाश में थी, जिसकी एक प्राचीन मजबूत परंपरा रही हो लेकिन साथ ही वहां आधुनिक समय में समकालीनता को बनाए रखने की चुनौती भी हो। दिल्ली भारत की एक जीवंत और फैलती राजधानी है। मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह अतीत और वर्तमान के बीच संबंधों का विश्लेषण करने का एक दिलचस्प शहर है। इसी जिज्ञासा के कारण दिल्ली को जानने का मेरा सफर शुरू हुआ।
आपने अपनी पुस्तक के लिए शोध कार्य कैसे किया?
मेरी पुस्तक एक तरह से पीएचडी का ही परिणाम है। मुझे अनेक भारतीय अभिलेखागारों में उपलब्ध सभी मानचित्रों को जुटाने, उनका चयन करने और एक सलीके से पिरोने में काफी समय लगा। धूल भरे पर मूल्यवान अभिलेखीय सामग्री वाले अभिलेखागारों में लंबा समय बिताने के साथ बहुमूल्य मानचित्रों की खोज का यह एक अविश्वसनीय अनुभव था। मैंने जिस संकल्प को लेकर दिल्ली शहर का अध्ययन करना शुरू किया यह पुस्तक उसी का प्रतिफल है। मेरा मानना है कि अगर मेरे पास इस तरह की पुस्तक होती तो मेरे लिए शोध करना काफी सरल होता। अब मेरी इच्छा है कि अब यह पुस्तक दूसरे विद्वानों के लिए एक प्रस्थान बिंदु साबित हो।
आपकी पुस्तक 19वीं शताब्दी के बाद बने नक्शों की कहानी बयान करती है। दिल्ली का सबसे पुराना नक्शा कब का है?
दिल्ली से जुड़े अलग अलग नक्शे विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अभिलेखागारों में संग्रहित हैं और यही कारण है कि यह पता लगाना और बताना थोड़ा मुश्किल है कि सबसे पुराना नक्शा कौन सा है। मेरी किताब में पहला नक्शा 19वीं शताब्दी की शुरुआत का है। हम जानते है कि यह वह समय है जब अंग्रेज पहले-पहल दिल्ली पहुंचे थे और अंग्रेज-मराठा युद्ध (१८०३) हुआ था। एक तरह से कहा जाता सकता है कि मानचित्र की विधा का आरंभ वास्तव में उपनिवेशवाद से जुड़ा हुआ है। मानचित्र, ज्ञान और राजनीतिक शक्ति हमेशा से एक दूसरे से जुड़ी रही हैं।
आपने अपनी किताब के लिए नक्शों का कैसे चयन किया?
मैंने एक वास्तुकार की निगाह से ऐसे मानचित्रों को चुना जो कि शहर के विकास की कहानी बयान करते थे। दरअसल, इतिहास के मूल्यवान प्राथमिक स्रोत इन नक्शों से एक इतिहासकार या एक नक्शा बनाने वाला अपने हिसाब से एक बिलकुल अलग कहानी लिख सकता है।
आप कई शताब्दियों में विकसित हुए शहर को समझते हुए आज की दिल्ली की आवास सुविधाओं, प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपायों, खाली जमीनों के अधिकतम उपयोग और जनसंख्या विस्फोट के हिसाब कैसे देखती हैं?
मैं 1991 से इन सब मुद्दों को ध्यान में रखते हुए समकालीन दिल्ली को समझने की कोशिश कर रही हूं। समकालीन विकास के मूल को समझने के लिए इतिहास और प्राचीन मानचित्र विशेष रूप से सार्थक उपकरण हैं।
मुझे यह लगा कि आज की दिल्ली के महानगरीय जीवन की अनेक समस्याएं स्थानीय स्तर पर गलत मॉडल, जिसमें ज्यादातर पश्चिम के माॅडल हैं, को अपनाने से पैदा हुई है। वास्तुकला और योजना में स्थानीय तत्वों जैसे भूविज्ञान, जलवायु और संस्कृति की अनदेखी की गई। इतना ही नहीं, देसी वास्तुकारों ने स्थानीय वस्तुओं का समावेश करने की बजाय बने बनाए माॅडलों की नकल की।
यहां के युवा शहरी वास्तुकारों में अभी भी विकास के विदेशी मॉडलों को लेकर एक ललक है। इसका एक कारण वास्तुकला की पढ़ाई के पाठ्यक्रम में भारतीय इतिहास और समृद्व विरासत वास्तुकला का न के बराबर होना है। किसी विदेशी वस्तु और ज्ञान से प्रेरणा लेना और उसकी नकल करना तभी ठीक है जब युवा वास्तुकारों को इस बात का ज्ञान हो कि वे क्या नकल कर रहे हैं और क्या उनके चयन से स्थानीय नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। दुर्भाग्य से, इन युवा वास्तुकारों में इस जागरूकता का अभाव है।
आपको दिल्ली के नक्शों पर शोध करते समय किस नक्शे ने सबसे अधिक प्रभावित किया और क्यों?
मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित हाथ से बने खूबसूरत नक्शों ने किया। उसमें भी खासकर "1807 की दिल्ली" का नक्शा, जब दिल्ली के गांवों, नहरों, खेतों और जलमार्गों का एक अद्भुत शहर था। इस पुराने नक्शे से इस बात का पता चलता है कि तब के शहरी नियोजन में स्थानीय भूगोल और स्थलाकृति का ध्यान रखा जाता था और किस तरह दिल्ली सरीखे पुराने नगर हकीकत में प्रकृति के अनुकूल और अनुरूप बसे थे न कि उसके विरुद्ध। उदाहरण के लिए अगर शाहजहाँनाबाद के स्थान के चयन पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह एक पहाड़ी पर बना शहर था जो कि प्राकृतिक रूप से बाढ़ से बचाव की स्थिति में था। वास्तुकारों और योजनाकारों को पुरानी राजधानी के प्रकृति के साथ सहयोग की भूमिका के संबंध से प्रेरित होकर एक बेहतर और पर्यावरण-अनुकूल शहर बनाने की दिशा में काम करना चाहिए। दिल्ली के शानदार अतीत के नक्शों को देखना-बूझना एक अच्छा अनुभव हो सकता है।
आप अपनी किताब में 1857 की पहली आजादी की लड़ाई को लेकर नक्शों में तब की दिल्ली के बारे में कुछ बताएं?
"दिल्ली की घेराबंदी, 1857 का नक्शा" अंग्रेज छावनी की पहली स्थिति और बसावट को प्रदर्शित करता है। शाहजहांबाद की उत्तर दिशा में स्थित छावनी को रिज की ओर से सुरक्षा मिली हुई थी। जिसकी विशेषता छावनी का एक बहुत सरल और कामकाजी ग्रिड पैटर्न का होना था। अंग्रेजों की सैन्य घेराबंदी को गहराई से समझने के लिए 8 जून से 14 सितंबर 1857 की अवधि में दिल्ली में ब्रितानी सेना की तैनाती योजना को देखना उपयुक्त है। जहां, 1857 के गदर की सैन्य घटना का वास्तव में अधिक विस्तार में वर्णन किया गया है। नक्शे पर सैन्य युद्धाभ्यास साफ दिखते हैं, फिर चाहे वह दुश्मन की खाई हो, विशिष्ट तोपखानों की तैनाती की स्थिति या बाएं ओर से घुसने की संभावना हो अथवा दाएं ओर से घुसने की संभावना का संकेत। यहां अलग-अलग तोपखानों को चिह्नित करते हुए उनके कमांडिंग ब्रिगेडियर के नाम के साथ नामित किया हुआ है, जिसमें पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का दृश्य साफ दिखाई देता है।
इस किताब पर काम करते समय बताने लायक कोई दिलचस्प किस्सा बताएं?
इस किताब को लिखते समय मुझे नक्षों में छिपे अनेक छोटी पर आकर्षक ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में जानकारी मिली। उदाहरण के लिए जैसे, दिल्ली 1857ःशहर की योजना और उससे सटा हुए इलाकों वाले नक्षे में "जहां निकोलसन गिरा" का वाक्य लिखा होना, रिज पर ब्रितानी कैम्प में क्वार्टर मास्टर जनरल के आॅफिस का बना होना या दिल्ली का युद्ध: लाॅर्ड लेक का मराठों के विरुद्ध अभियानों वाले नक़्शे में "आपस में खींची हुई दो छोटी तलवारों" से मराठा-अंग्रेज युद्ध (पटपडगंज-१८०३) के स्थान को चिन्हित करता है।
आपको दिल्ली के कौन से इलाके ऐतिहासिक रूप से न केवल समृद्ध बल्कि अधिक आकर्षक लगे हैं और क्यों?
एक दिल्ली में अनेक शहर समाए हुए हैं और यही कारण है कि यहां इतिहास की कई तहें हैं। ऐसे में किसी एक खास इलाके को चुनना संभव नहीं है। दिल्ली अलग-अलग हिस्सों से बना एक शहर है, जिसके हरेक हिस्से की अपनी विशिष्टताएं और विशेषताएं हैं। ये इतने भिन्न हैं कि हम वास्तव में इन भागों को शहर के भीतर अनेक शहर के रूप में पहचान सकते हैं। हर शहर ऐसे विकसित नहीं हुआ कि जिसके विकास के मूल में अलग-अलग केंद्र रहे हो। उदाहरण के लिए मिलान जैसा शहर जो कि धीरे-धीरे एक प्राचीन रोमन केंद्र की बसावट से ही विकसित हुआ।
मेरा मानना है कि समूची दिल्ली के हर कोने में मौजूद स्मारक की अपनी एक अलग कहानी है। ऐसे में बस जरूरत है] उस छिपी हुई कहानी में दिलचस्पी होने और उसे खोजने की।
पिलर मारिया गयएरीरी |
Wednesday, May 24, 2017
Remember village_Yaad Gaon_याद-गाँव
बोली-भाखा से अपने गांव वाला ननिहाल काबरा और वहां बीता बचपन याद आ गया.
सुबह चरने जाती बकरियां-भेड, मटकी भर लाती घूँघट वाली महिलाएं, खपरैल की रसोई से उठता धुंआ!
भोर नीम के पेड़ पर दातुन, पक्षियों का कलरव, सुबह की आठ बजे की शहर जाने वाली बस का हॉर्न, फेमिन पर मजदूरी का काम करने जाते गाँव वाले. दोपहर में हत्तई (चौपाल) पर बड़े-बूढों का जमावड़ा, ताश की बाजी में चौकड़ी-छकड़ी के दांव.
तपती दोपहरी में खेत के किनारे-किनारे तालाब में अकेले जाकर छलांग लगाना. कुम्हार के चकले पर बनते हुए मिट्टी के बर्तन देखने से लेकर गाँव के बनिए की दुकान में पीपों के डब्बों में रखी चीजों को नज़र भर देखना.
साइकिल पर बर्फ का गोला बनने वाली मशीन के साथ बर्फ घिसते और गिलास में रंग डालकर गोला बनाना और उसे पैसे की जगह अनाज देना. जितना याद करों कमतर लगता है.
कितना कुछ छूट गया है, याद से भी, जीवन से भी....
अब तो बस याद में ही स्पंदन लगता है और असली में तो मानो सब बना-बनाया झूठ लगता है, जिसे हम मशीन के तरह बस दोहराए जा रहे हैं, नॉन-स्टॉप...
Saturday, May 20, 2017
Hindurao Baoli_हिंदू राव की बावड़ी
20052017_दैनिक जागरण |
उत्तरी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम की ओर से संचालित हिंदू राव अस्पताल के पश्चिमी प्रवेश द्वार के निकट एक बावड़ी बनी हुई है। सिविल लाइन्स क्षेत्र में हिंदू राव मार्ग पर बनी यह बावड़ी कमला नेहरू रिज पर पीर गायब के दक्षिण पश्चिम में करीब 50 गज की दूरी पर है। इस बावली के निर्माण की अवधि 14 सदी के प्रारंभ में फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल के समय की मानी जाती है।
आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के स्वामित्व में संरक्षित इमारत के रूप में दर्ज यह बावली राजधानी में बनी सबसे विशाल बावड़ियों में से एक मानी जाती है। मूल रूप से इस बावली के चारों ओर कक्ष बन हुए थे।
पत्थरों की चिनाई वाली दीवार वाली यह बावली गहराई वाली एक संरचना है, जिसकी गहराई का सही आकलन, उसमें फैली भारी वनस्पति के कारण नहीं हुआ है। इस बावली की प्राकृतिक अवस्था भी अच्छी नहीं है यानी यह रखरखाव के अभाव में जीर्ण शीर्ण स्थिति में है। यह बावली चारों ओर से वनस्पति से इस कदर ढकी हुई है कि यह भूमि पर एक गड्डे से अधिक नहीं प्रतीत होती है। टूट फूट हो जाने के कारण अब पूरी इमारत देख पाना संभव नहीं रह गया है।
मौलवी जफर हसन ने "दिल्ली के स्मारक: महान मुगलों और अन्य के स्थायी भव्यता" नामक अपनी पुस्तक के दूसरे खंड में इस बावली का उल्लेख किया है। जफर हसन ने उत्तर दिशा से आने वाली 193 मीटर लंबी एक सुरंग का उल्लेख किया है। 2.15 मीटर ऊंची इस सुरंग, जिसके बनने का उद्देश्य अज्ञात है, में हवा की आवाजाही के लिए उपयुक्त स्थान होने के साथ दरवाजे भी थे। अबुल फजल ने "आइन-ए-अकबरी" में लिखा है कि इस सुरंग से होकर फिरोजाबाद, यानी आज के फिरोजशाह कोटला से जहाजनुमा यानी उत्तरी रिज पर बनी इस इमारत की ओर आया-जाया जा सकता था। यहां पर सुरंग बने होने के तो प्रमाण आज भी है।
Surajkund_a symbol of Hindu system of water harvesting_हिंदू वर्षा जल संचयन का प्रतीक सूरजकुंड
20.05.2017_दैनिक जागरण |
हरियाणा के बल्लभगढ़ (अब बलरामगढ़, जिला फरीदाबाद) तहसील की सीमा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से लगी हुई है। अंग्रेजी साम्राज्य के दौर में यह इलाका दिल्ली का ही एक हिस्सा हुआ करता था। दिल्ली की इस इलाके से भौगोलिक संलग्नता के अलावा ऐसी मान्यता भी है कि यहां का इतिहास, दिल्ली का ही इतिहास है। “इंपीरियल गैजेटियर ऑफ इंडिया” खंड-एक उपर्युक्त मान्यता का ही प्रतिनिधित्व करता है-इस जिले का इतिहास, दिल्ली नगर का इतिहास है, जिसकी अधीनस्थता में वह अनंत काल से विद्यमान है। यहां तक कि बल्लभगढ़ तथा फरीदाबाद जैसे शहरों का भी अपना कोई अलग स्थानीय इतिहास नहीं है, क्योंकि नगर (दिल्ली) की भव्य पुरातनता की निशानियां इन्हीं इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में बिखरी पड़ी हैं।
दिल्ली के इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा एक ऐसा ही जलाशय है। जिला गुड़गांव में तुगलकाबाद से लगभग तीन किलोमीटर दक्षिण पूर्व में सूरजकुंड है। इस जलाशय को तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने, जिसका अस्तित्व भाट परंपरा पर आधारित है, दसवीं शताब्दी में निर्मित करवाया था। चट्टानों की दरारों से रिसने वाले ताजे पानी का तालाब, जिसे सिद्ध-कुंड कहते हैं, सूरज कुंड के दक्षिण में लगभग 600 मीटर पर स्थित है और कुछ धार्मिक पर्वों पर यहां बहुत बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं। ‘कुंड’ संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘कुंड’ का मतलब है तालाब या गड्ढा, जिसे बनाया गया हो। कुंड हमेशा मानव निर्मित ही हो सकता है। हिंदू मंदिरों और गुरूद्वारों के साथ कुंड और तालाब बनाए जाने की परंपरा रही हैं।
यह निर्माण पहाड़ियों से आने वाले वर्षा के पानी की एकत्र करने के लिए एक अर्ध गोलाकार रूपरेखा के आधार पर सीढ़ीदार पत्थर के बांध के रूप में हैं। यह कुंड इस तरह बना है कि आसपास की पहाड़ियों से बरसात के दौरान गिरानेवाला पानी बहकर इस कुंड में स्वतः ही इकट्ठा हो जाता था। इस कुंड से पानी के इस्तेमाल के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई थीं। कुंड में पानी की स्थिति के अनुसार इन सीढ़ियों से होकर पानी तक आया-जाया जा सकता है। जानवरों को पानी पिलाने के लिए एक अलग रास्ता बनाया गया था। सूरजकुंड और दिल्ली में बनाई गई बावड़ियों में एक ही समानता कही जा सकती है और वह है पानी तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियां।
इसके पश्चिम में सूर्य का एक मंदिर था जिसके कुछ नक्काशीयुक्त पत्थरों को हाल ही में जलाशय से पुनः प्राप्त किया गया है अथवा जिनका बाद के निर्माणों में पुनः इस्तेमाल किया गया है। अब इस मंदिर के अवशेष ही रह गए हैं। इसलिए इस सूरजकुंड के मंदिर का अपने समय में क्या महत्व रहा होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। बाद में एक किला बन्द अहाता जिसे अभी तक गढ़ी कहा जाता है इस मंदिर के परंपरागत स्थल के आसपास पश्चिमी किनारे पर निर्मित किया गया। सूरजकुंड दिल्ली और उसके आसपास जल संरक्षण और संवर्धन का सबसे पुराना उदाहरण है। उस दौर में बने और अब तक बचे हुए प्रतीकों पर नजर डालें तो सूरजकुंड को अपने दौर में वर्षा जल संचयन का सबसे अनोखा उदाहरण कह सकते हैं।
Sunday, May 14, 2017
Poem on Father_पिता की याद आने का समय नहीं होता...
पिता की याद आने का समय नहीं होता...
पिता तुम जाने के बाद ही
क्यों याद ज्यादा आते हो
ऐसा हर बार मेरे साथ ही होता है
या फिर कोई और भी घर में अकेले रोता है
हर बार चिता पर ही आंसू गिरे
मन में श्मशान वैराग्य जगे
बस कहने-सुनने में लगता है
जब अपने पर बीतती है, अलग ही होता है
तुम्हारे रहते कभी नहीं लगा
अकेलापन भी कोई महसूस करने वाली बात है
जब भी कोई ऐसी बात बोलता
लगता भला ऐसा भी सच में होता है!
याद की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होती
पिता के जाने से पहले या बाद में
कभी भी आ जाती है
निशब्द, चुपचाप, दबे पाँव
तुम्हारी बरगद सी उपस्थिति ने
जिंदगी की धूप-छाँव से परे रखा
जो भी सुनामी आई, तुमसे ही लौट गई
न आंच झेली, न तपिश सही
तुम्हारे संग जीवन ऐसा गूंथा था
जैसे आटे से संग पानी
रोटी संग सब्जी, शरीर संग सांस
कभी सोची न थी, अकेले जीने की बात
घर की दीवार पर लगी
तुम्हारी फोटो के बावजूद
अब खाली कुर्सी, बिना डांट का जीवन
बाहर ही नहीं भीतर तक तुम्हारे न होने का साक्षी है
पिता तुम जाने के बाद ही
क्यों याद ज्यादा आते हो
ऐसा हर बार मेरे साथ ही होता है
या फिर कोई और भी घर में अकेले रोता है
Saturday, May 13, 2017
Yogmaya Temple_योगमाया का मंदिर
दैनिक जागरण, 13052017 |
भागवत में श्रीकृष्ण के जन्म के सम्बन्ध में कथा है कि देवी योगमाया ने ही मथुरा के शासक कंस से कृष्ण के प्राण बचाए थे। देवी योगमाया के बारे में मान्यता है कि वे श्रीकृष्ण की बड़ी बहन थी। ऐसा माना जाता है कि उसी योगमाया की स्मृति में शायद पांडवों ने यह मंदिर स्थापित किया या जब इन्द्रप्रस्थ को बसाने के लिए खांडव वन को जलाकर कृष्ण और अर्जुन निवृत्त हुए तो उस विजय की स्मृति में यह मंदिर बना क्योंकि बिना भगवान की योग शक्ति के देवताओं के राजा इन्द्र को पराजित करना सहज नहीं था।
जब तोमर राजपूत शासकों ने इस स्थान पर अपनी राजधानी के लिए दिल्ली बसाई तो उन्होंने योगमाया की पूजा करनी प्रारम्भ की क्योंकि चंद्रवंशी तोमर देवी के उपासक थे। तोमर शासकों ने लालकोट को अपनी नई राजधानी बनाया तथा यहां एक शहर को बसाया, जिसको ढिल्ली, ढिल्लिका अथवा ढिल्लिकापुरी के नाम से जाना गया। यह शहर पूर्ववर्ती मंदिरों की नगरी योगिनीपुरा के इर्द-गिर्द बसाया गया जहां इन्होंने कई मंदिरों का निर्माण कराया, जिसके अवशेष आज भी कुतुब पुरातात्विक क्षेत्र तथा उसके समीपस्थ क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं।
ऐसा माना जाता है कि महरौली स्थित आज का मंदिर सन् 1827 में मुगल शासक अकबर द्वितीय के काल में लाला सेठमलजी ने बनवाया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सैय्यद अहमद खान ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय देने वाली अपनी पुस्तक “आसारुस्सनादीद” में लिखा है कि वर्तमान मंदिर का उन्नीसवीं सदी में पुनर्निर्माण किया गया, लेकिन यह स्थल उससे भी प्राचीन है।
नागर शैली में बने मंदिर के प्रवेशद्वार के ऊपर एक नाग की आकृति बनी हुई है, जो चिंतामाया का प्रतीक है। मन्दिर का अहाता चार सौ फुट मुरब्बा है। चारों ओर कोनों पर बुर्जियां है। मंदिर की चारदीवारी है जिसमें पूर्व की ओर के दरवाजे से दाखिल होते हैं।
यह मंदिर कुतुब मीनार परिसर में स्थित लोहे की लाट से करीब 260 गज उत्तर पश्चिम में स्थित है। मंदिर में मूर्ति नहीं है बल्कि काले पत्थर का गोलाकार एक पिंड संगमरमर के दो फुट गहरे कुंड में स्थापित किया हुआ है। पिंडी को लाल वस्त्र से ढका हुआ है, जिसका मुख दक्षिण की ओर है। मंदिर का कमरा करीब बीस फुट चौकोर होगा। फर्श संगमरमर का है। ऊपर गोपुर बना हुआ है जिसमें शीशे जड़े हुए हैं। मंदिर के द्वार पर लिखा हुआ है-योगमाये महालक्ष्मी नारायणी नमस्तुते।
यह स्थान देवी के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में गिना जाता है। मंदिर में घंटे नहीं हैं। यहां मदिरा और मांस का चढ़ावा वर्जित है। श्रावण शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को यहां मेला लगता है। मंदिर के तीन द्वार है। दक्षिण द्वार के ऐन सामने दो शेर लोहे के सींखचों के एक बक्स में बैठे हुए हैं जो देवी के वाहन हैं। इनके ऊपर चार घंटे लटकते हैं। शेरों की पुश्त की ओर एक दालान है जिसमें पश्चिम की ओर के कोने में गणेश की मूर्ति है और एक छोटी शिला भैरव की है।
मंदिर के उत्तरी द्वार की ओर खड़े होकर तोमर शासक अनंगपाल द्वितीय का बनवाया अनंगताल दिखाई देता है। उत्तर पश्चिम कोण में एक पक्का कुआं है जो रायपिथौरा यानि दिल्ली के अंतिम हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान के समय का माना जाता है।
भागवत में श्रीकृष्ण के जन्म के सम्बन्ध में कथा है कि देवी योगमाया ने ही मथुरा के शासक कंस से कृष्ण के प्राण बचाए थे। देवी योगमाया के बारे में मान्यता है कि वे श्रीकृष्ण की बड़ी बहन थी। ऐसा माना जाता है कि उसी योगमाया की स्मृति में शायद पांडवों ने यह मंदिर स्थापित किया या जब इन्द्रप्रस्थ को बसाने के लिए खांडव वन को जलाकर कृष्ण और अर्जुन निवृत्त हुए तो उस विजय की स्मृति में यह मंदिर बना क्योंकि बिना भगवान की योग शक्ति के देवताओं के राजा इन्द्र को पराजित करना सहज नहीं था।
Tuesday, May 9, 2017
Sunday, May 7, 2017
Delhi_age old_water resources_Anangtal baoli_अनंगताल बावली_अनंग पाल द्वितीय
दैनिक जागरण, 07/05/2017 |
दिल्ली की सबसे पुरानी बावली अनंगताल बावली कुतुब मीनार के पास बनी हुई है। दसवीं शताब्दी में तोमर वंश के राजपूत राजा अनंग पाल द्वितीय ने इसे बनवाया था। महरौली स्थित लौह स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि अनंग पाल द्वितीय ने दिल्ली को बसाया और लालकोट को वर्ष 1052-1060 के बीच बनवाया। अंग्रेज़ इतिहासकार ए. कनिंघम के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के समय अलाई मीनार के निर्माण के दौरान मोर्टार के लिए पानी अनंगताल से मंगवाया जाता था।
यही कारण लगता है कि परवर्ती शासकों ने भी महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं।
उपिन्दर सिंह की पुस्तक “दिल्लीः प्राचीन इतिहास” के अनुसार, अनंगताल के ऊपरी हिस्से का आंशिक रूप से दक्षिण-पश्चिमी कोना ही दिखलाई पड़ता है। इस खुले भाग को देखने से यह लगता है कि यहां किसी प्रकार की सीढ़ीनुमा सरंचना थी या घेरनेवाली दीवार, जो कुंड के चैड़े और लंबे चबूतरे से जुड़ी थी। इस संरचना से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके मूल प्रारूप में अनंगपाल द्वितीय ने कालांतर में परिवर्तन किया था।
चूने के क्रंकीट प्लास्टर के बने चौड़े चबूतरे को लोहे के शिकंजे से आधे तराशे गए शिलाखंडों को जोड़ कर मजबूती दी गई थी और इसके ठीक ऊपर की सीढ़ी के किनारे की दीवार को लोहे के शिकंजे से कसा गया था।
राजपूत काल में ताल के निर्माण में विशेष रूप से कारीगरी के उत्कीर्ण निशानवाले शिलाखंड लगाए गए थे। इन पर की गई कारीगरी में स्वास्तिक, त्रिशूल, चार भाग में बंटे वृत्त, नगाड़े अंक, अक्षर, वृश्चिक, और तीर-धनुष के निशान देखे जा सकते हैं जो इस काल के ही मध्यप्रदेश के भोजपुर के एक मंदिर में पाए गा हैं।
ऐसे ही निशान कुतुब के पास कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के पुनप्र्रयुक्त पत्थर की पट्टियों पर मौजूद हैं। इन शिलाखंडों में से एक पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण ‘पिनासी’ नाम मिला है। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि यह ताल ग्यारहवीं सदी के मध्य में अनंगपाल द्वितीय द्वारा बनवाया गया जिसका नाम इसके साथ-साथ चर्चा में आता है।
Saturday, May 6, 2017
Taimur lang_Delhi attack_श्मशान बन गई थी तैमूर की दिल्ली
यदि कोई व्यक्ति यह प्रश्न करे कि दिल्ली के इतिहास में सबसे बुरे वे कौन से दिन थे, जिनमें भारत की यह पुरानी राजधानी अपनी तबाही, बर्बादी, हत्या, लूटमार, बलात्कार, आगजनी और भयंकर सर्वनाश से चीत्कार उठी तो वह तैमूर लंग का समय था।
तैमूरलंग (1336-1405) संसार के क्रूरतम विजेताओं में से था। वह चंगेज खां का वंशज था। उसका पिता अपने कबीले का सरदार था। वह पहला व्यक्ति था जिसका कबीला इस्लाम में धर्मान्तरित हुआ था।
वर्ष 1398 में तैमूर ने भारत पर आक्रमण कर दिया और झेलम-रावी नदियों को पार करता हुआ मुल्तान, दियालपुर, पाकपटन, भटनेर, सिरसा और कैथल को लूटता हुआ दिल्ली पहुंचा। यहाँ हौज खास के पास उसने अपने डेरे डाले और सफदरजंग के मकबरे के पास लड़ाई हुई।
दिल्ली के तुगलक सुल्तान महमूद तुगलक की सेना को हराकर यह 18 दिसंबर 1398 को दिल्ली के अंदर घुस गया और 15 दिन दिल्ली में रहा। महमूद डरकर उस समय गुजरात भाग गया। एक तरह से, तैमूरलंग के आक्रमण का सामना तुगलक सुल्तान ने नहीं दिल्ली की जनता ने किया।
इस बीच तैमूर की सेना ने कई दिनों तक दिल्ली को लूटा और कत्लेआम के बाद एक लाख लोगों को कैदी बना लिया। दिल्ली के सुल्तान से मुठभेड़ में जब उसे सैनिकों की कमी पड़ी तो उसने कैदियों की रखवाली में लगे अपने सैनिकों को बुला लिया और उन एक लाख कैदियों की हत्या करवा दी। चांदनी चौक में वर्तमान दरीबा कलां बाजार का प्रवेश द्वार तैमूरलंग के इसी कत्लेआम के कारण ही खूनी दरवाजा के नाम से मशहूर हुआ।
शहर के अमीर, शहर को बख्श देने के लिए मुंहमांगी दौलत देने को राजी हुए। पर लेन देन में पीछे जो दिक्कत हुई तो तैमूर ने अपने भेड़िए छोड़ दिए। जाड़े के दिन थे, दिसम्बर का महीना। खुरासानी और मंगोल दिल्ली के महलों पर टूट पडे़। बालक, बूढ़ा, औरत-कोई न बचा। गलियां खून उगलने लगी। यमुना का पानी लाल हो उठा। दिल्ली की छाती में गहरे घाव लगे।
दिल्ली और पंजाब का क्षेत्र तैमूल लंग की बर्बरता और पाशविकता का शिकार बना किन्तु दोआब का क्षेत्र भी अछूता न बचा। विदेश मुग़ल बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा “मल्फुजात-ए-तैमूरी” के अनुसार, तैमूर ने सन् 1394 में हरिद्वार के कुंभ में कई सहस्त्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी, जिससे विदित होता है कि उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थयात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। उल्लेखनीय है कि तैमूर ने अपनी आत्मकथा में विभिन्न देशों पर अपनी विजयों और अनुभवों का वर्णन किया है। भारत पर उसके आक्रमण का उल्लेख भी इसी प्रसंग में आता है।
वर्ष 1399 में तैमूर फिरोजाबाद, मेरठ, हरिद्वार, कांगडा तथा जम्मू को लूटता हुआ समरकंद चला गया। मुहम्मद तुगलक की अविवेकपूर्ण फिजूलखर्ची के बावजूद भी देश में इतना धन था कि तैमूरलंग दिल्ली की लूट का अपरिमित माल उठा ले गया था। दिल्ली ने तैमूर लंग को भी देखा और नादिर शाह को भी, जो विदेशी मुस्लिम लुटेरों की तरह आए और चले गए।
यह आक्रमण उत्तर भारत के लिए ऐसा नासूर बन गया जिसमें से शताब्दियों तक भारत की आत्मा का रक्त रिसता रहा। तैमूर लंग के उत्तरी भारत में लाखों लोगों की हत्या कर दिए जाने, हिंदू तीर्थों का विनाश कर दिए जाने, बड़ी संख्या में गायों को मार दिए जाने, भारत के श्रेष्ठ कर्मकारों को पकड़कर समरकंद ले जाए जाने एवं दिल्ली का समस्त वैभव धूल में मिला दिए जाने के कारण दिल्ली सल्तनत धधकते हुए श्मशान में बदल गई।
Friday, May 5, 2017
Life_mountain path_मंजिल
जब मंजिल पर पहुँचने से पहले ही आँखें पथरा जाएं
जब कुछ हासिल करने से पहले ही मन पूरा भर आएं
जब थकान के मारे शरीर चूर होकर अधमरा हो जाएं
जब जीवन में सारे विश्वास कसौटी पर खरे न उतर पाएं
तब अकेले ही चलते रहना मानो एक लक्ष्य बन जाएं
तब भरे मन से लड़खड़ाते पैरों का चलना ही हो पाएं
तब टूटे शरीर के साथ सधे मन से ही सफ़र हो पाएं
तब नए संकल्प के साथ दीप रास्ते भर झिलमिलाएं
अब कैसे बढ़े जीवन के समर में प्रश्न हो मुंह बाएं
अब तन-मन दोनों ही आधे अधूरे होकर पूरा पाएं
अब सफ़र से ज्यादा चलना ही संकल्प हो जाएं
अब न हो कोई हो साथ पथ ही पाथेय हो जाएं
कहो अकेले मंत्र को, दो गूंजा दिशा सभी जो जाएं
सहो अकेले जीवन के एकाकीपन को, बहुजन जो पाएं
Thursday, May 4, 2017
तू कौन?_who you?
उसने हर बार ठुकराया
मन ही बावरा था
जो हर बार समझ नहीं पाया
उसने हर बार अनदेखी की
मन ही अँधा था
जो हर बार बूझ नहीं पाया
उसने हर बार जलाना चाह
एक मैं ही था
जो प्रह्लाद की तरह निकल आया
अब ठुकराने,
अनदेखी करने, जलाने के बहाने
वह ही जाने
जो था, है, रहेगाकब तक ऐसे
जब तक वैसे
मैं भी रहूँगाऐसे ही सहूंगा
चुपचाप-निशब्द
सन्नाटा-मौन
जब तक नहीं
पूछेगा
मेरा है, तू कौन?
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