बोली-भाखा से अपने गांव वाला ननिहाल काबरा और वहां बीता बचपन याद आ गया.
सुबह चरने जाती बकरियां-भेड, मटकी भर लाती घूँघट वाली महिलाएं, खपरैल की रसोई से उठता धुंआ!
भोर नीम के पेड़ पर दातुन, पक्षियों का कलरव, सुबह की आठ बजे की शहर जाने वाली बस का हॉर्न, फेमिन पर मजदूरी का काम करने जाते गाँव वाले. दोपहर में हत्तई (चौपाल) पर बड़े-बूढों का जमावड़ा, ताश की बाजी में चौकड़ी-छकड़ी के दांव.
तपती दोपहरी में खेत के किनारे-किनारे तालाब में अकेले जाकर छलांग लगाना. कुम्हार के चकले पर बनते हुए मिट्टी के बर्तन देखने से लेकर गाँव के बनिए की दुकान में पीपों के डब्बों में रखी चीजों को नज़र भर देखना.
साइकिल पर बर्फ का गोला बनने वाली मशीन के साथ बर्फ घिसते और गिलास में रंग डालकर गोला बनाना और उसे पैसे की जगह अनाज देना. जितना याद करों कमतर लगता है.
कितना कुछ छूट गया है, याद से भी, जीवन से भी....
अब तो बस याद में ही स्पंदन लगता है और असली में तो मानो सब बना-बनाया झूठ लगता है, जिसे हम मशीन के तरह बस दोहराए जा रहे हैं, नॉन-स्टॉप...
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