वाम-पंथी कब से "भारत", "आत्मा" में भरोसा करने लग गए!
आखिर इसी "पंथिक" स्वरुप ने तो "पाकिस्तान" को बौद्धिक समर्थन दिया था। खैर, हारे का हरिनाम।
सीताराम कहो या राधे श्याम नाम से अधिक काम की बात ज्यादा जरुरी है।
उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन ने नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित अपनी आत्मकथा में बहुत आश्चर्य और दु:ख के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पाकिस्तान-समर्थक नीतियों की भर्त्सना की है।
आखिर धर्म के आधार पर देश के राष्ट्रीय-विभाजन का समर्थन मार्क्सवादी सिध्दान्तों के प्रतिकूल तो था ही, वह उन मुस्लिम राष्ट्रीय भावनाओं को भी गहरी ठेस पहुँचाता था, जो आज तक काँग्रेस और अन्य प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिल कर मुस्लिम लीग की अलगाववादी नीतियों का विरोध करते आ रहे थे।
मालूम नहीं, अपने को सेक्यूलर・की दुहाई देने वाली दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां आज अपने विगत इतिहास के इस अंधेरे अध्याय के बारे क्या सोचती हैं, किन्तु जो बात निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह कि आज तक वे अपने अतीत की इन अक्षम्य, देशद्रोही नीतियों का आकलन करने से कतराती हैं।
निर्मल वर्मा के शब्दों में, "मोहित सेन की पुस्तक यदि इतनी असाधारण और विशिष्ट जान पड़ती है, तो इसलिए कि उन्होने बिना किसी कर्कश कटुता के, किन्तु बिना किसी लाग-लपेट के भी अपनी पार्टी के विगत के काले पन्नों को खोलने का दुस्साहस किया है, जिसे यदि कोई और करता, तो मुझे संदेह नहीं, पार्टी उसे साम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा・कह कर अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधे रखना ज्यादा सुविधाजनक समझती; यह वही पार्टी है, जो मार्क्स की क्रिटिकल चेतना को बरसों से क्षद्म चेतना (false consciousness) में परिणत करने के हस्तकौशल में इतना दक्ष हो चुकी है, कि आज स्वयं उसके लिए छद्म को असली・से अलग करना असंभव हो गया है।"
मोहित सेन लिखते हैं ”यहाँ यह कह देना जरूरी है कि उन दिनों किसी कम्युनिस्ट नेता ने हमारी युवा मानसिकता को स्वयं भारत की महान परंपराओं और बौद्धिक योगदान की ओर ध्यान नहीं दिलाया जो हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मार्क्सवाद के विकास के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हो सकता था…हम कम्युनिस्ट अधिक थे भारतीय कम।”
Thursday, June 8, 2017
Anti National character_Indian Left_वामपंथ का अराष्ट्रीय चरित्र
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