Saturday, June 10, 2017

INA Delhi case_आजाद हिंद फौज का दिल्ली मुकदमा





दूसरे विश्व युद्व में अंग्रेज सेना की 1943 में बर्मा को जापानी सेना से दोबारा जीत के साथ भारत में आम जनता को आजाद हिंद फौज के कारनामों के बारे में पता लगा। अंग्रेज़ सरकार ने 27 अगस्त 1945 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के सभी बंदी बनाए सैन्य अधिकारियों और जवानों के कोर्ट मार्शल के लिए फौजी अदालत में पेशी की बात की घोषणा की।

इस पेशी का मुख्य उदेश्य यह जतलाना था कि आज़ाद हिंद फौज के सैनिक गद्दार और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। अंग्रेज़ सरकार का मानना था कि जब आज़ाद हिंद फौज की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो उसके लिए सहानुभूति अपने से ही समाप्त हो जाएंगी। इसी कारण से जनसाधारण को मुकदमों की कार्यवाही को देखने का अवसर दिया गया।

26 जुलाई 1945, ब्रिटेन में हुए आम चुनावों में प्रधानमंत्री चर्चिल को मुंह की खानी पड़ी और क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बना। ऐसे कांग्रेस नेतृत्व और अंग्रेज सरकार दोनों ही एक-समान दुविधा के शिकार थे। नेताजी के साथ कैसा व्यवहार हो। क्या उन्हें बंदी बनाकर भारत लाया जाए?

अब देश के जनसाधारण की आँखों में नेताजी गांधीजी के समकक्ष थे। यह साफ़ हो गया था कि अगर सुभाष चन्द्र बोस वापिस लौटे तो जनता में नेताजी के समर्थन की लहर कांग्रेस के नेतृत्व को अप्रासंगिक कर देगी।

तभी, दूसरे विश्व युद्व का अचानक से अंत हुआ। जापान ने हिरोशिमा-नागासाकी में दो परमाणु बमों के गिरने के बाद 15 अगस्त 1946 को हथियार डाल दिए। तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की घोषणा हुई। नेताजी की मौत ने अंग्रेज सरकार और कांग्रेस नेतृत्व दोनों की दुविधा दूर कर दी। अब वे उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली स्थिति में नहीं थे। वे स्वतंत्रता सेनानियों की एक सेना का नेतृत्व करने वाले एक शहीद थे। कांग्रेस नेतृत्व को जल्दी से यह बात समझ में आ गई कि आजाद हिंद फौज की सफलता की बड़ाई करके कम से कम कुछ समय के लिए तो राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है।

अगस्त 1945 को अंग्रेज सरकार ने आजाद हिंद फौज के लगभग 600 सैनिकों पर अदालत में मुकदमा चलने और बाकियों के बर्खास्त होने की बात कही। सबसे पहले कर्नल (कैप्टन) शाह नवाज, कर्नल (कैप्टन) पी के सहगल और कर्नल (लेफ्टिनेंट) जी एस ढिल्लो के विरूद्व मुकदमा चलना था। समय को पहचानते हुए कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज के सभी आरोपी सैनिकों के बचाव की पूरी जिम्मेदारी अपने पर ले ली। आज़ाद हिंद फौज की बचाव पक्ष की समिति में कैलाश नाथ काटजू, आसफ अली, राय बहादुर बद्री दास, रघुनंदन सरन, तेज बहादुर सप्रू, जवाहर लाल नेहरू और भूलाभाई देसाई थे।

दिल्ली के लालकिले में पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। इस बीच 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने जनता में बढ़ती लोकप्रियता और उत्साह को भांपते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों को रिहा करने का फैसला लिया। अंग्रेज सरकार इस नजरिए से यह बात को पूरी तरह साफ हो गई कि यह मुकदमा एक आला दर्जे की भूल था।

इन अफसरों को देशद्रोही बताने से, उनकी लोकप्रियता में ही वृद्धि हुई। इन मुकदमों से बने राष्ट्रवादी माहौल से सशस्त्र सैनिक भी अछूते नहीं रहे। इसी का परिणाम 1946 में बंबई में भारतीय नौसेना में विद्रोह के रूप में सामने आया। इस तरह, आज़ाद हिंद फौज ने हारकर भी अंग्रेजी उपनिवेशवाद के कफन में अंतिम कील गाड़ने में सफल रही।

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