Friday, November 13, 2020

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान






कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया है। 

आज कारों और बसों वाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की तुलना में साइकिल एक परिपूर्ण, सस्ती और प्रदूषण रहित विकल्प के रूप में सामने आई है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार, बहुधा एक शहर में पैदल चलने और साइकिल चलाने वालों की संख्या सर्वाधिक होती हैं। आबादी के इस वर्ग में निवेश करके मानव-जीवन का बचाव संभव है, जो कि पर्यावरण सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन में भी सहायक है। खराब जलवायु परिवर्तन के विरुद्व साइकिल व्यक्ति की रक्षा का एक प्रभावी प्रतीक बनकर उभरी है। 

भारत में साइकिल खासी लोकप्रिय रही है।इसी साइकिल की सुरक्षा के लिए गोदरेज ने नवंबर, 1962 में एक साइकिल लॉक (ताले) बनाकर अपनी धाक जमाई थी। यह अलग बात है कि आज दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है और साइकिल लाॅक जैसी चीजें बहुत सामान्य हो चुकी है।

भारतीय इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति-संघर्ष में साइकिल का गहरा संबंध था। तब साइकिल, देसी उद्योगों के उत्पादन में वृद्वि और भारतीयों के स्वभाव में स्वदेशी के उपयोग के भाव को जागृत करने वाली वस्तु थी। स्वतंत्रता पूर्व, भारत आयातित साइकिलों पर ही निर्भर था, लेकिन फिर भी साइकिल के स्वदेशी महत्वाकांक्षाओं से जुड़े होने के कारण उसकी लोकप्रियता और उपलब्धता में वृद्वि हुई थी। 

1950 के दशक में साइकिल उन पहली आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं में से एक थी, जिसका उपयोग ग्रामीण समाज के निचले स्तर तक हुआ था।  

अंग्रेज भारत में पहली साइकिल का आगमन वर्ष 1890 में हुआ। साइकिल का नियमित आयात वर्ष 1905 में आरंभ हुआ जो कि आधी सदी तक जारी रहा। आजादी के बाद, स्वदेशी साइकिल उद्योग को बढ़ावा देने के हिसाब से सरकार ने वर्ष 1953 में विदेशी साइकिलों के आयात पर रोक लगा दी। भारतीय समाज में परिवहन के एक सस्ते साधन के रूप में साइकिल की उपस्थिति के कारण साइकिल उद्योग से जुड़े विभिन्न कलपुर्जों का एक बड़ा देसी बाजार विकसित हुआ। बहुप्रचलित साइकिल लॉक (ताला) एक ऐसा ही महत्वपूर्ण सुरक्षा उपकरण था। दुनिया में साइकिल लॉक के आविष्कार की कोई निश्चित तिथि तो नहीं है। पर भारत में सबसे पहले गोदरेज कंपनी ने नवंबर, 1962 में साइकिल लाॅक बनाया था। पांच-पिन वाला यह गोलाकार बंद ताला चाबी लगाकर घुमाने पर ही खुलता था। बम्बई के लालबाग पारेल स्थित गोदरेज कार्यालय ने पूरे देश के अपने स्टॉकिस्टों-डीलरों को एक पत्र लिखकर साइकिल लाॅक के अपने नए उत्पाद के बारे में बताया था। तब एक साइकिल लाॅक की कीमत चार रुपए रखी गयी थी।


Friday, November 6, 2020

Mahatma Gandhi in Rajasthan_Ajmer_राजस्थान में महात्मा गांधी_अजमेर-मेरवाड़ा



अंग्रेज भारत में अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़कर उस समय का सारा राजपूताना देशी राजाओं के अधीन था। जबकि देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत मोहनदास कर्मचंद गांधी मानना था कि राजा-रजवाड़े तो अंग्रेजी हुकूमत के सहारे टिके हुए हैं, अतः अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त करने में ही सारी ताकत लगाई जाए। यही कारण था कि वह देशी राज्यों में गए ही नहीं। ऐसे में, गांधी अपने पूरे जीवन में गिनती के तीन बार राजस्थान और उसमें भी केवल अजमेर ही आए।  

भारत आने के पश्चात गांधी पहली बार वर्ष 1921 में अजमेर आएं। उनकी इस यात्रा के विवरण की पुष्टि गांधी के वलजी देसाई को दिनांक 2 नवंबर, 1921 को लिखे एक पत्र से मिलती है। गांधी अपने पत्र में देसाई को लिखते हैं, "कृपया प्रेस को 'यंग इंडिया' के प्रूफ केवल इस बार के लिए राजस्थान सेवा संघ, अजमेर के पते पर भेजने का अनुरोध करे। उन्हें यह सामग्री बुधवार शाम या गुरुवार सुबह जल्दी डाक में देनी चाहिए, जिससे प्रूफ की सामग्री सुबह की डाक से अजमेर पहुँच सकें।" अजमेर, 3 नवंबर, 1921 के डाक ठप्पे (पोस्टमार्क) वाला यह पत्र गांधी ने दिल्ली जाते समय लिखा था। इससे पता चलता है कि दिल्ली से ही 11 नवंबर, 1921 (बुधवार) को अजमेर आएं। गांधी सुबह पुरानी मंडी की संकरी गलियों में स्थित नेशनल स्कूल और फिर ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह गए। जहां उन्होंने दरगाह पर एक चादर पेश की।


कांग्रेस के 26-30 दिसंबर, 1920 को नागपुर अधिवेशन में सी. विजयाराघवाचारी की अध्यक्षता में गांधी के अहिंसा-असहयोग के माध्यम से पूर्ण स्वराज की प्राप्ति का प्रस्ताव स्वीकार हो गया था। इसकी गूंज देश भर में थी। फिर ऐसे में भला राजस्थान अछूता कैसे रहता! 

उल्लेखनीय है कि नागपुर अधिवेशन में ही गांधी ने कांग्रेस के विधान में कांग्रेस का ध्येय ब्रिटिश भारत से बढ़ाकर देशी राज्यों सहित समूचे भारत के लिए स्वराज्य तय कराया, रियासती जनता को कांग्रेस में प्रतिनिधित्व दिलवाया और अजमेर मेरवाड़ा, राजपूताना और मध्यभारत को अलग प्रान्तीय इकाई बनवाया। तब राजस्थान और मध्य भारत राजनीतिक दृष्टि से एक ही इकाई माने जाते थे, और अजमेर इसका केन्द्र था।

इससे पहले, विजय सिंह पथिक की अध्यक्षता में रामनारायण चौधरी और हरिभाई किंकर ने मिलकर वर्धा में वर्ष 1919 में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की थी। जिसका उद्देश्य राजस्थान की विभिन्न रियासतों में चलने वाले आन्दोलनों को गति देना था। वर्ष 1920 में राजस्थान सेवा संघ का कार्यालय अजमेर स्थानांतरित हो गया। अजमेर में राजस्थान सेवा संघ कार्यकर्ताओं ने असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था।

राजस्थान राज्य गांधी स्मारक निधि की गांधी शताब्दी में प्रकाशित (1969) "गांधीजी और राजस्थान" शीर्षक वाली पुस्तक के अनुसार, "वह कुल तीन बार अजमेर आएं। पहली बार सन् 1921 में आये जब मौलाना मोहम्मद अली भी साथ थे। गांधीजी के प्रयत्न से ख्वाजा साहब की दरगाह में खिलाफत वालों से समझौता हुआ। दरगाह में मौलाना मोहम्मद अली और गांधीजी के महत्वपूर्ण भाषण हुए और उस समय अजमेर में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का ऐसा वातावरण बना कि देखते ही बनता था। गांधीजी उस समय गौरीशंकर भार्गव के यहां ठहरे थे।"




8 दिसंबर, 1921 को 'यंग इंडिया' में गांधी ने "नैराश्य भाव नहीं" के शीर्षक वाली टिप्पणी में लिखा, "पंजाब में क्या होगा जहां लालाजी (लाजपत राॅय) को कैद किया जाना है और असम में जहां (तरुण राम) फुकन और (गोपीनाथ) बोरदोलोई को पहले ही दोषी ठहराया जा चुका है और इसी तरह अजमेर में भी, जहां खिलाफत और कांग्रेस कमेटी दोनों के अध्यक्ष मौलाना मुउइद्दीन को कैद कर लिया गया है? चिंतित जिज्ञासुओं का ऐसा ही सवाल था। मेरा जवाब था कि इन प्रमुखों के उत्पीड़न से आंदोलन को गति मिलेगी। इन व्यक्तियों को मिले कारावासों के परिणामस्वरूप, मुझे इन प्रांतों में अधिक संयम और दायित्व की भावना की अपेक्षा है। मुझे काती हुई खादी के अधिक उत्पादन, छात्रों और वकीलों में व्यापक जागरूकता की उम्मीद है। अगर हम अपने स्वशासन के लिए उपयुक्त है तो इन नेताओं की बहादुरी सर्वव्यापक प्रभाव होना चाहिए।"

दूसरी बार गांधी, वर्ष 1922 में दो दिनों के लिए अजमेर आएं। वे अहमदाबाद से 8 मार्च की शाम को रेलयात्रा करते हुए अगले दिन (9 मार्च) अजमेर पहुंचे। गांधी बम्बई के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता मियां मुहम्मद हाजी जन मुहम्मद छोटानी के निमंत्रण पर मुस्लिम उलेमाओं के सम्मेलन में भाग लेने आए थे। यहां उन्होंने खिलाफत को लेकर अपने विचार रखें। अनेक अनौपचारिक रिकॉर्डों के अनुसार, गांधी ने ऑल इंडिया खिलाफत कांफ्रेंस नामक उलेमा संस्था को संबोधित करने के लिए अजमेर का दौरा किया। इस तथ्य का उल्लेख वर्ष 1952 में प्रकाशित "मोइनुल अरवाह" में है।

बारडोली में कांग्रेस की कार्य समिति ने चौरी चौरा में जनता के पुलिस थाना जला दिये जाने और कुछ सिपाहियों के मार दिये जाने के कारण असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया था। गांधी पर गिरफ्तारी का वारंट निकल चुका था, उस समय वे अजमेर में ही मौजूद थे मगर यहां की सरकार उन्हें गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी लेने का साहस नहीं किया। वे गुजरात की सीमा में पहुंच कर पकड़े गये। उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद के पुलिस अधीक्षक ने 6 मार्च को ही गांधी के नाम गिरफ्तारी का वारंट जारी करके फाइल को असिस्टेंट मजिस्ट्रेट ब्राउन के पास भेज दिया था। गांधी के सूरत और अजमेर में होने की संभावना के कारण इन दोनों स्थानों के पुलिस अधीक्षकों को भी वारंट भेज दिए गए थे।

जबकि गांधी 9 मार्च की रात को अजमेर से वापिस अहमदाबाद लौटे। अगले ही दिन (10 मार्च) अहमदाबाद पहुंचते ही अंग्रेज सरकार ने गांधी को गिरफ्तार करके साबरमती जेल में कैद कर दिया। गांधी ने उसी दिन मगनलाल गांधी को भेजे एक पत्र में अपने गिरफ्तार होने की बात लिखी थी। ऐसे में, उनकी गिरफ्तारी की आशंका सच सिद्व हुई।

लखनऊ से आये मौलवी अब्दुल बारी ने अजमेर में आयोजित एक सभा में जीभ पर नियंत्रण खोकर ऐसा भाषण दिया जिससे जनता में यह संदेश गया कि चूंकि अहिंसक आंदोलन विफल रहा है अतः हिंसा का सहारा लिया जायेगा। उनका भाषण काफी उग्र था। इससे अजमेर की जनता में बेचैनी फैल गई। गांधीजी ने संदेह उत्पन्न करने वाला बयान देने के लिये मौलवी अब्दुल बारी की निंदा की। इस पर पहले से ही अप्रसन्न मुस्लिम नेता हसरत मोहानी ने मौलवी अब्दुल बारी का पक्ष लिया। गांधीजी के सामने ही (गौरीशंकर) भार्गव के निवास पर मौलवियों और उलेमाओं के बीच तीखी बहस हुई। हसरत मोहानी गांधीजी से इसलिए नाराज थे क्योंकि उसने एक बार कांग्रेस के समक्ष पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा था जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया था। महात्मा गांधी के समक्ष पहली बार अहिंसात्मक और हिंसात्मक आंदोलन पर खुलकर बहस हुई जिसमें एक तरफ मौलवी अब्दुल बारी तथा हसरत मोहानी थे जबकि दूसरी तरफ गांधीजी और बाकी के सारे उलेमा थे। इस बहस में गांधीजी जीत गये। इसके बाद गांधीजी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गये जहां गांधीजी का भारी स्वागत किया गया। 

गांधी ने 9 मार्च, 1922 को अजमेर में अब्दुल बारी से भेंट करने के बाद ही उन्हें जनता के नाम अपना संदेश जारी करने के लिए सौंपा दिया था। 10 मार्च को अहमदाबाद में गांधी की गिरफ्तारी के बाद अब्दुल बारी ने 15 मार्च को लखनऊ से जनता के नाम गांधी का संदेश समाचार पत्रों को जारी किया। इस संदेश में चार मुख्य बातें थीं। पहला, उनकी गिरफ्तारी पर कोई प्रदर्शन या हड़ताल नहीं होनी चाहिए। दूसरा, सार्वजनिक स्तर पर सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं किया जाएगा और अहिंसा का सख्ती से पालन होगा। तीसरा, अस्पृश्यता और नशे को दूर करने पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए और खद्दर के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। और चौथा, उनकी गिरफ्तारी के बाद, जनता को नेतृत्व के लिए हकीम अजमल खान की बात माननी चाहिए।




इस विषय में गुजराती ‘नवजीवन’ में 19 मार्च, 1922 को दिए एक साक्षात्कार में गांधी ने कहा, ‘‘अजमेर में एक बड़े काम पूरा किया गया। मौलाना अब्दुल बारी ने एक तगड़ा भाषण दिया, जिसने वहां जमा हजारों मुसलमानों में पूरी तरह से जोश भर दिया। जब मैं वहां गया तो कइयों का मानना था कि हम दोनों के बीच तकरार होगी और हिंदू-मुस्लिम एकता टूटेगी। मैंने उनसे कहा कि आप आज जो कुछ भी करोगे, वह केवल गुस्से में होगा। मौलाना ने मेरी बात को पूरी तरह से समझा और अब मुझे उनको लेकर बिल्कुल भी चिंता नहीं है। मौलाना हसरत मोहानी भी वहां थे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि वे हिंसा की जरा-सी भी तरफदारी न करके कांग्रेस के काम में बाधाएं नहीं पैदा करेंगे। सो, अब मैं चिंता से मुक्त हूं।’’ उल्लेखनीय है कि अब्दुल बारी (1838-1926) और हसरत मोहानी (1875-1951) खिलाफत आंदोलन में सक्रिय राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता थे।

फिर गांधी तीसरी और अंतिम बार, जुलाई 1934 में अजमेर आए। उस वर्ष वे पूरे देश में नौ महीने की हरिजन यात्रा पर निकले थे। गांधी, 3 जुलाई 1934 को भावनगर (काठियावाड़) से रेलगाड़ी से रवाना होकर अगली रात (4 जुलाई) को अजमेर पहुंचे। इस रेल यात्रा में उन्होंने मेहसाणा और पालनपुर स्टेशनों पर भी जनता को संबोधित किया। राजपूताना हरिजन सेवक संघ के निमंत्रण पर अजमेर यात्रा पर आए गांधी कचहरी रोड स्थित एक कोठी पर ठहरे। गांधी की इस यात्रा के प्रबन्धन के लिए एक स्वागत समिति बनी। इस समिति के अध्यक्ष दीवान बहादुर हरविलास शारदा, और रामनारायण चौधरी तथा कृष्णगोपाल गर्ग मंत्री थे।

अजमेर में 5 जुलाई 1934 की सुबह गांधी महिलाओं की एक सभा में गए। उन्होंने वहां पर उपस्थित स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा, "अस्पृश्यता प्रेम और दया की भावना के विपरीत है, इसलिए इस पाप का अन्त अवश्य होना चाहिए। एक ओर तो हम प्रेम भाव का दावा करें और दूसरी ओर अपने ही लाखों करोड़ों भाईयों को गन्दी से गन्दी जगह में रखें, उन्हें कुंओं से पानी न भरने दें, पशुओं के गन्दले हौजों से उन्हें पानी पीने के लिए मजबूर करें और अगर सार्वजनिक कुओं पर ये बेचारे अपना हक समझ कर पानी भरने जाएं तो उन पर आक्रमण कर बैठें। यह दोनों बातें भला एक साथ कैसे हो सकती है? इसी प्रकार जब सवर्णों के गन्दे बच्चे खासी अच्छी तादाद में स्कूल-मदरसों में जा सकते हैं, तब हरिजन बच्चों को, उनके सफाई से रहते हुए भी सार्वजनिक स्कूलों में अलग रखना कहां तक उचित है, कहां तक न्याय संगत है? दूसरों को अपने से नीच समझना एक प्रकार का अभिमान है जिसे तुलसीदास जी ने सब पापों का मूल कहा है पाप मूल का (अभिमान) और अभिमान तो नाशकारी ही है।"

गांधी राजपूताना के हरिजन सेवकों से भी मिले। हरिजन सेवकों ने बेगार प्रथा की शिकायत की। फिर गांधी ने राजस्थान चरखा संघ के कार्यकर्ताओं से भेंट की। इन कार्यकर्ताओं ने गांधी को खादी प्रचार के साथ-साथ हरिजन सेवा कार्य की जानकारी दी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1926 में अमरसर (जयपुर) के खादी केन्द्र में एक हरिजन पाठशाला स्थापित की गई थी। पाठशाला का यह प्रयोग इतना सफल रहा कि दूसरे वर्गों के बच्चों ने भी दाखिला लिया और उसमें बिना किसी भेदभाव के पढ़ने लगे। 

इस अवसर पर उस दिन गांधी ने हरिजन सेवकों को भी संबोधित किया। उन्होंने कहा, "मैं चाहता हूं कि पूरी सच्चाई और ईमानदारी से हमारे सेवक हरिजनों की सेवा करें। सेवा का फल मेवा ही है। स्वार्थ या किसी राजनीतिक उद्देश्य का तो इसमें लेश भी नहीं होना चाहिए। हमारा मुख्य लक्ष्य तो हिन्दू धर्म की शुद्वि है। इस आंदोलन में तो केवल उन्हीं को भाग लेना चाहिये जो सत्य और अहिंसा का सिद्वान्त स्वीकार कर चुके हों, और जिनका यह विश्वास हो कि हरिजन हिन्दू धर्म का अविच्छेद अंग हैं।"

तब गांधी अजमेर की हरिजन बस्तियों में भी गए। उन्होंने पहले दिल्ली दरवाजे की हरिजन बस्ती, तारागढ़ के ढाल में बसी मलूसर की हरिजन बस्ती सहित रैगरों के मुहल्ले को देखा। इस अवसर पर आनासागर की पाल पर एक सार्वजनिक सभा हुई। राजपूताना हरिजन सेवक संघ की ओर से गांधी को एक मानपत्र दिया गया। जिसमें राजपूताना के हरिजनों की तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक स्थिति का वर्णन था। 

उस दिन सभा-स्थल पर एक खेदजनक घटना के कारण विघ्न उत्पन्न हुआ। इसके मूल में सनातनी नेता बाबा लालनाथ के अपने जत्थे के साथ गांधी के हरिजन आंदोलन के प्रति अपना विरोध प्रकट करने के लिए अजमेर पहुंचना था।  

बाबा लालनाथ ने गांधी से मिलकर अजमेर की सभा में बोलने का अनुरोध किया। गांधी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उनसे सभा में गांधी के पहुंचने के बाद आने की बात कही। जबकि दुर्भाग्यवश बाबा लालनाथ अपने दल, जो काले झण्डे लिए हुआ था, के साथ गांधी के आने से पहले ही सभास्थल पर पहुंच गए। ऐसे में, वहां उपस्थित जनता से उनकी मुठभेड़ हुई। एक व्यक्ति ने बाबा लालनाथ के सिर पर लाठी मारी, जिससे खून बहने लगा। गांधी को इस घटना का पता चलने पर उन्होंने बाबा लालनाथ को बुलाकर मंच पर अपने पास बिठाया और उनकी चोट पर पट्टी बांधी। 

इस पर गांधी ने अपने भाषण में कहा, "काली झण्डी वालों को साथ लेकर पंडित लालनाथ को सभा में आने और हमारे आन्दोलन के विरूद्ध प्रदर्शन का पूरा अधिकार था। जिस किसी ने उन पर हमला किया है, उसने बहुत बड़ी अशिष्टता की है। काली झण्डियां सुधारकों का क्या बिगाड़ सकती थीं, किन्तु पंडित लालनाथ पर जो यह वार हुआ है उससे निश्चय ही हरिजन कार्य को क्षति पहुंची है। हिंसापूर्ण तरीकों से अस्पृश्यता का यह काला दाग कदापि नहीं मिट सकता। मैं तो राजनीतिक वातावरण में भी हिंसा को बर्दाशत नहीं कर सकता, फिर यह तो धर्म क्षेत्र है।"

गांधी ने इसके बाद लालनाथ को सभा को संबोधित करने का अनुरोध किया। वह दो ही मिनट बोले थे कि लोग "शेम शेम" की आवाज पुकारने लगे और उनका बोलना मुश्किल हो गया। 

ऐसा होने पर गांधी ने जनसमुदाय को डांटते हुए कहा, "यह तो आप लोगों की बहुत बड़ी अशिष्टता है। एक तो पहले ही उन पर वार करके अविनय का काम किया गया और अब उनकी बात सुनने से इन्कार करके आप यह दूसरी अशिष्टता कर रहे हैं। अगर आप पंडित लालनाथ की बात सुनने को तैयार नहीं, तो इसका यह मतलब हुआ कि आप मेरी भी बात सुनना नहीं चाहते। हरिजन सेवा एक धार्मिक प्रवृति है। इसमें असहिष्णुता का हिंसा के लिए स्थान नहीं है। 

मान लीजिए कि कोई मुझ पर ही घात हमला कर बैठे, तो क्या आप आपे से बाहर हो जायेगे और पागल की तरह हिंसा पर उतारू हो जायेंगे? ऐसा है तो मैंने व्यर्थ ही आपके आगे अपना जीवन बिताया। ऐसा करके तो आप विशाल आन्दोलन को ही खत्म कर देंगे। पर यदि आपने संयम से काम किया तो मेरे शरीर के अन्त के साथ साथ इस अस्पृश्यता का अन्त भी निश्चित है।" इस पर लोग चुप हो गये और उन्होंने लालनाथजी का भाषण शांति पूर्वक सुना।

अजमेर सभा में गांधी को मानपत्र सहित एक थैली भी भेंट की गई। पूरे दिन में गांधी को अजमेर में हरिजन कोष के लिए कुल 4942 रुपए प्राप्त हुए। इस प्रवास में गांधी अजमेर के पुराने कांग्रेसी नेता अर्जुनलाल जी सेठी और अजमेर में अपने पुराने मेजबान गौरीशंकर भार्गव के घर भी गए।

6 जुलाई 1934 की भोर को गांधी मोटर से अजमेर से ब्यावर के लिए निकल गये। वे ब्यावर में चम्पालाल रामेश्वर क्लब की इमारत में ठहरे। यहां गांधी ने ब्यावर में ब्राह्मण समाज में पहला विधवा विवाह करने वाले नवदम्पति को आर्शीवाद भी दिया। ब्यावर के मिशन ग्राउण्ड में गांधी ने एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। उल्लेखनीय बात यह थी कि गांधी से अत्याधिक प्रभावित शहर के जैन साधु चुन्नीलाल ने साधुओं की जैन परम्परा का त्याग कर सार्वजनिक सभा में हरिजन कोष के लिए धन संग्रह किया। वे अपने एक और साथी जैन लक्ष्मी ऋषि के साथ गांधी के रचनात्मक कार्यों में लग गये। ब्यावर की सभा में कुछ जैन साधुओं ने गांधी को मानपत्र दिया। इस मानपत्र में जैन धर्म में अस्पृश्यता के लिए स्थान नहीं होने और हरिजन सेवा के लिए तैयार होने की बात कही गई थी। 

गांधी को ब्यावर में हरिजन कोष के लिए 1152 रुपए मिले। यहां भी गांधी शहर की हरिजन बस्तियों में गए। फिर गांधी ब्यावर से रेल मार्ग से मारवाड़ जक्शन होते हुए कराची के लिए निकल गए। वे रेल यात्रा के दौरान भी जनता से मिलते गए। यहां तक कि उन्हें मारवाड़ जंक्शन, लूणी और गडरा रोड स्थानों से हरिजन कोष के लिए 992 रुपए प्राप्त हुए।

गांधी ने 10 जुलाई 1934 को कराची में अजमेर की हिंसक घटना के प्रायश्चित स्वरूप 7 अगस्त से 14 अगस्त 1934 तक वर्धा में अनशन की घोषणा की। गांधी ने कहा कि काफी हृदय मंथन करने के बाद वह इस निश्चय पर पहुंचे हैं और उनका यह व्रत उन सब लोगों को, जो इस आन्दोलन में हैं या आगे शामिल होंगे, यह चेतावनी है कि उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा, असत्य तथा हिंसा से अलग रह कर ही शुद्व हृदय से उसमें भाग लेना चाहिए।

वर्धा में उपवास की समाप्ति के बाद, गांधी ने 'हरिजन' (17 अगस्त 1934) में लिखा, "इस उपवास का उद्देश्य कहने के लिए तो अजमेर में हरिजन प्रवृति समर्थकों द्वारा स्वामी लालनाथ और उनके साथियों को जो चोट पहुंचाई गई थी, उसके लिए प्रायश्चित करना था, पर असल में उसका उद्देश्य इस आन्दोलन से सहानुभूति रखने वालों तथा  कार्यकर्ताओं से यह अनुरोध करना था कि वे अपने विरोधियों के साथ चौकस और शुद्ध व्यवहार करें। विरोधियों के प्रति अधिक से अधिक सौजन्य दिखाना आन्दोलन के हक में सबसे सुन्दर प्रचार कार्य होगा। कार्यकर्ताओं को इस सत्य का ज्ञान कराने के लिए यह उपवास किया गया था कि हम अपने विरोधियों को प्रेम के बल ही जीत सकते हैं, घृणा से कभी नहीं।"


Rajasthan Government magazine_Sujas_Gandhi Issue_सुजस_महात्मा गांधी एकाग्र_राजेश कुमार व्यास




राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की मासिक पत्रिका "सुजस" का सितंबर-अक्तूबर संयुक्तांक "महात्मा गांधी एकाग्र" है। पत्रिका के संपादक डाक्टर राजेश कुमार व्यास के कुशल संपादन में निकला यह अंक गांधी के जीवन और विचार को सांगोपांग समेटने के कारण गागर में सागर है। 


राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने गांधी विचार के साथ गांधी व्यवहार की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्वांत को जनहित में व्यावहारिक रूप में क्रियाशील बनाने की बात को रखा है। जबकि सूचना एवं जनसंपर्क आयुक्त महेन्द्र सोनी ने गांधीजी के 150 वें जन्म शताब्दी वर्ष पर उनके जीवन दर्शन पर केन्द्रित अंक निकालने की आवश्यकता जताई। 

इन औपचारिक अवदानों के अलावा कुल 92 रंगीन पृष्ठों की इस सरकारी पत्रिका में राजीव कटारा का 'गांधी की प्रासंगिकता', अरविन्द मोहन का 'सार्वजनिक धन को लेकर गांधी का अनुशासन', सच्चिदानंद जोशी का 'सम्प्रेषणीयता पर जीवन ही संदेश', आनंद प्रधान का 'संपादक-पत्रकार गांधी', मंगलेश डबराल का 'गांधी और काव्य,' दीपक मंजुल का पुस्तकों 'लेखक-अनुवादक गांधी', कमल किशोर गोयनका का 'हिन्द स्वराजः आधुनिक भारतीयता', अभिषेक कुमार मिश्र का 'मानवतायुक्त विकास की वैज्ञानिक दृष्टि', चंद्रकुमार का 'सत्याग्रही वैज्ञानिक', अजय जोशी का 'गांधी का आर्थिक चिन्तन', राजेन्द्र प्रसाद का 'महात्मा गांधी का कला चिन्तन', गजादान चारण का 'राजस्थानी लोक मानस में गांधी', सन्त समीर का 'हिंसा-अहिंसा और गांधी', देवर्षि कलानाथ शास्त्री का 'गांधी अभिनन्दन ग्रंथ', नलिन चौहान का 'राजस्थान में गांधी', राकेश कुमार का 'महात्मा गांधी का जीवन', देवेन्द्र सत्यार्थी का 'जय गांधी', इष्ट देव सांस्कृत्यायन का 'गांधी का ग्राम स्वराज', हरिशंकर शर्मा का 'गांधी संग्रहालय शीर्षक' से लेख संकलित हैं। 


'सुजस' पत्रिका के संपादक डाक्टर राजेश कुमार व्यास के अनुसार, "गांधीजी के जन्म से लेकर जीवन की प्रमुख घटनाओं के आलोक में उनकी सम्पूर्ण जीवनी यहां तिथिवार पाठकों के लिए दी गई है। महात्मा गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिंदास ने संबोधित किया था। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्वानंद ने 1915 में महात्मा की उपाधि दी थी, तीसरा मत ये है कि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि प्रदान की थी। उन्हें बापू के नाम से भी याद किया जाता है। गांधीजी को बापू संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे। सुभाषचंद्र बोस ने 6 जुलाई, 1944 को रंगून रेडियो से गांधीजी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के लिए उनका आर्शीवाद और शुभकामनाएं मांगी थीं"।


Thursday, November 5, 2020

Maker of Modern India_Sardar Patel_Rozgar Samachar_आधुनिक भारत के वास्तविक निर्माता_सरदार पटेल


 





स्वतंत्र भारत के पहले उपप्रधानमंत्री और केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने छह सौ से अधिक देसी रियासतों को एकसूत्र में बांधकर भारतीय एकता के भगीरथ कार्य को सिद्व करते किया। इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने वाली इस साहसगाथा की ध्यान में रखने की महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यह चमत्कार इतिहास की अवज्ञा करके, परम्परा के विरुद्व, अनेक विरोधी परिस्थितियों तथा शक्तियों का सामना करके और दो वर्ष की अल्प अवधि में सिद्व किया गया। यह एक ऐसा महान साहसिक कार्य है जिसका विश्व इतिहास में दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं होता।


उन्होंने 3 नवंबर 1948 को नागपुर विद्यापीठ में भारतीय संघ के एकीकरण पर कहा, आपको मालूम है कि हिन्दोस्तान में 562 रियासतेें थीं। इतनी रियासतें हिन्दुस्तान को एक तरह से अलग-अलग टुकड़े किए हुए थीं। उन सब की अलग-अलग राज्य-व्यवस्था थी। जब परदेसी सल्तनत हमको छोड़ कर चली गई, तो कौन उम्मीद करता था कि एक साल में इस सारी समस्या को हम ठीक कर लेेंगे। किसे ख्याल था कि इस सारी कार्रवाई में न किसी को नुकसान होगा, न कोई मार-पीट होगी। परमात्मा की कृपा से पूरी शान्ति से, अमन से और प्रेम से यह सब काम हो गया।

सरदार पटेल ने 4 नवंबर 1948 को नागपुर में स्टेट एडवाइजरी कौंसिल के उद्घाटन करते हुए कहा था, ‘‘मैं आपको बतलाना चाहता हूं कि मेरे दिल में रियासतों को एकत्रित करने की और उन्हें हिन्दुस्तान में मिलाने की कल्पना किस तरह उद्भूत हुई, उसका ख्याल मैं आपके सामने रखना चाहता हूं। जब मैंने हिन्दुस्तान सरकार के गृहमंत्री का पद स्वीकार किया, तब मुझे कोई ख्याल न था कि इन देशी रियासतों का काम मेरे पास आने वाला है। उनका क्या नक्शा बनेगा, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। हिन्दुस्तान में यह जो बड़ा भारी विप्लव हुआ है, जिससे देशी रियासतों की समस्या इतने थोड़े समय में हल हो गई है। यह सब क्योंकर हुआ, किस तरह से हुआ, इसे अभी कम लोग जानते हैं। उससे क्या लाभालाभ हुए, उन सब के मूल्य आंकने में अभी वक्त लगेगा। जो कुछ हुआ, उसे कम लोग जानते हैं।’’

जयपुर में संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन करते हुए सरदार पटेल ने देश की एकता कायम करने में परोक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राजाओं-राज परिवारों के विषय में कहा था, जिन सब महाराजाओं ने इस काम में साथ दिया और समय को पहचान कर तो त्याग किया, उसके लिए मैं उनको भी धन्यवाद देना चाहता हूं। मैंने जो यह रियासतों के सम्बन्ध में कुछ कार्य किया है, उसके लिए मेरी तारीफ की जाती है। मगर असल में तो इसके लिए हिन्दुस्तान के राजा-महाराजाओं की तारीफ की जानी चाहिए। यदि सच्चे दिल से उन लोगों ने साथ न दिया होता, तो आज हिन्दुस्तान का इतिहास जिस तरह बदल रहा है, वह इस तरह बदल नहीं सका होता। बेसमझ लोग उसकी कदर न करें, तो इसमें किसी का कुछ आता-जाता नहीं। मैं तो उसकी पूरी कदर करता हूँ और सारे हिन्दुस्तान में इस बात की कदर कराने की कोशिश करता हूं। क्योंकि ऐसा करना मैं अपना फर्ज समझता हूं। आज भी हिन्दुस्तान के राजा-महाराजाओं ने अपनी रियासत के लिए, अपने लोगों के लिए त्याग किया है। वे सदा से ऐसा करते आए हैं और करते रहेंगे।


सरदार पटेल रियासतों के एकीकरण के बाद देश के समक्ष आने वाली नई चुनौतियों को लेकर पूरी तरह सजग थे। उन्होंने इसी बात को रेखांकित करते हुए 15 जुलाई 1948 को पेप्सू के उद्घाटन भाषण में कहा था कि राजाओं के पास से राज्य ले लेना आसान है। क्योंकि जब तक हमारे ऊपर परदेसी हुकूमत थी, तक राजाओं के दिल में चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन तब वे भी आजाद नहीं थे। जैसे हम तब गुलाम थे, वे हम से भी दुगुनी गुलामी में फंसे हुए थे। अब हम सब आजाद हैं। यह आप समझ लें कि मैंने बहुत-से राजाओं के साथ प्रजा की तरफ से लड़ाई की। बहुत-से राजा मुझ पर कुछ नाखुश भी थे। लेकिन आज जितनी मेरी राजाओं के साथ मुहब्बत है, उतनी और किसी की नहीं होगी। क्योंकि स्वतन्त्र राजाओं के दिल में भी देश के लिए उतना ही प्रेम है, जितना हमारे दिलों में है। उससे कम नहीं है। उससे कम होता, तो स्वतन्त्र हिन्दुस्तान में किसी का राज्य नहीं चल सकता था। तो राजा लोग समझ गए और उन्होंने अपनी जगह समझ ली। बीच में एक मौका ऐसा आया था कि कई राजा अलग राजस्थान बनाने के लिए कोशिश कर रहे थे। जब पाकिस्तान बना तो उस समय यह हिन्दुस्तान के और टुकड़े करने की कोशिश भी हो रही थी। तब पटियाला महाराजा ने कहा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान के राजा हिन्दुस्तान के साथ रहेंगे। उसी समय से मेरी उन से मुहब्बत हुई। वह मुहब्बत कभी टूट नहीं सकतीं।

सरदार पटेल ने 3 अक्तूबर 1948 को दिल्ली के इम्पीरियल होटल में आयोजित एक कार्यक्रम में साफ शब्दों में कहा था कि आप यह भी समझ लें कि राजाओं ने भी अपना साथ हमें दिया। जैसे हम में सब भले नहीं हैं, बुरे भी हैं, वैसे उनमें भी भले और बुरे दोनों हैं। लेकिन जब देश आजाद हुआ, तो उनको भी ख्याल हुआ कि ये लोग मुल्क का कुछ भला करना चाहते हैं और इस में हमें साथ देना चाहिए। अब जिसके पास राज है उसको छोड़ देना, जिसके पास सत्ता है, उसे छोड़ देना, यह कितनी कठिन बात है। जो छोड़े, उसी को मालूम पड़ेगा। जिसके पास नहीं है, उसका यह कहना कि यह आसान बात है, बेमतलब है। कुछ लोग कहते हैं कि हमने राजाओं को इतना पर्स दिया, इतना रुपया दिया, इतना पेंशन दिया। लेकिन जो जानता है उसको मालूम है कि यह एक प्रकार का बहुत बड़ा विप्लव है, एक बड़ा रेवोल्यूशन (क्रांति) है। हमें उनकी कोई खुशामद नहीं करनी पड़ी और उन्होंने देश के हित के लिए स्वयं इतना बड़ा स्वार्थत्याग किया। यह भगवान की बड़ी कृपा है और हिन्दुस्तान के सदभाग्य और भविष्य के लिए अच्छा है।

बम्बई की चौपाटी में आयोजित एक जनसभा (30 अक्तूबर 1948) में सरदार पटेल ने स्वतंत्र भारत की स्थिति को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज हमने राजाओं के हाथ से सत्ता लेकर प्रजा के प्रतिनिधियों को दे तो दी है, पर वहां किस प्रकार काम चलता है और हमारी वहां क्या-क्या जिम्मेदारी है और कितनी हद तक जिम्मेदारी पूरी हो रही है, अगर यह सब हम सोचें, तो हमें धक्का लगेगा। इसलिए हमारे सामने अभी जो काम करने को बाकी है, वह बहुत बड़ा है। अभी तो हमने केवल शुरूआत भर की है। जो कुछ हमने किया है, वह भी बड़ी बात है, लेकिन इतनी बड़ी नहीं कि जो काम बाकी रहा है, उसे हम भूल जाएं। अभी तो हमारे पास सांस लेने का भी समय नहीं है, आराम का समय नहीं है। यह सोचने का भी समय नहीं है कि हमारी आयु कितनी है। अभी तो रात-दिन हमें काम करना है। तभी हिन्दुस्तान उठ सकता है, नहीं तो वह गिर जाएगा।

देश के दूसरे राष्ट्रपति डाक्टर सर्वापल्ली राधाकृष्णन ने सरदार पटेल की अविस्मरणीय भूमिका का सटीक आकलन करते हुए कहा था कि जब तक वर्तमान भारत जीवित है, उनका नाम वर्तमान भारत के ऐसे राष्ट्र निर्माता के रूप में सदा स्मरण किया जाता रहेगा, जिन्होंने सभी 600 भारतीय देसी राज्यों का एक मात्र संघ बनाया। उनका यह कार्य हमारे देश के एकीकरण की दिशा में अत्याधिक स्थायी कार्य था। इस विषय में हम कभी नहीं भूल सकते।


Wednesday, November 4, 2020

Ministry of Information Broadcasting advertisement of Government magazines_सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का पत्रिकाओं का विज्ञापन




भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की हिंदी में प्रकाशित होने वाली बाल भारती, कुरुक्षेत्र, प्रसारिका और आजकल पत्रिकाओं का साठ के दशक का एक विज्ञापन. 


स्त्रोत: जनवरी, १९५७, कुरुक्षेत्र

 

Sunday, November 1, 2020

A O Hume_Revenue Act_Hindi_Translation_ऐलन आक्टावीअन ह्यूम_राजस्व अधिनियम_हिंदी


 


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंग्रेज संस्थापक अध्यक्ष ऐलन आक्टावीअन ह्यूम ने राजस्व अधिनियम का हिंदी में अनुवाद किया था। 


आज के उत्तर प्रदेश और अंग्रेज भारत के संयुक्त प्रांत के इटावा जिला के तत्कालीन कलेक्टर ह्यूम हिन्दी भाषा के सर्वव्यापी महत्व को समझने वाला पहला अंग्रेज अधिकारी था, जिसने वर्ष 1859 में स्वयं पहल करते हुए राजस्व अधिनियम का हिन्दी मेें अनुवाद किया।

Real Maker of Modern India_Sardar Patel_आधुनिक भारत की एकता-अखण्डता के वास्तविक निर्माता


 


यह बात कम जानी है कि अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता से पूर्व ही सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश को एकरूप देने में रियासतों-रजवाड़ों के राजा-महाराजाओं का अथाह सहयोग प्राप्त किया। यही कारण है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान देशी राज्यों का अहिंसक ढंग से किया एकीकरण ही है। 


दो वर्ष से कुछ ही अधिक समय में पांच सौ अलग-अलग अटपटे देशीराज्यों के स्थान पर भारत में एक राजनीतिक प्रासाद खड़ा करने में सरदार ने जो भव्य सिद्वि प्राप्त की, उसके चिरस्थायी स्वरूप ने देश की एकता-अखण्डता के निर्माता की उदात्त उपाधि उन्हें दिलाई। 

यहां तक कि राजपूताने की रियासतों को आधुनिक राजस्थान के रूप में गठित करने में भी सरदार पटेल की निर्णायक भूमिका थी। आधुनिक राजस्थान-संघ की रचना कई चरणों में हुई। सबसे पहले वर्ष 1948 में मत्स्य-संघ बना, जिसमें अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली के चार राज्य शामिल हुए। फिर उदयपुर, कोटा, बूंदी, डूंगरपुर, झालावाड़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, किशनगढ़, शाहपुरा और टोंक की रियासतों का संघ बना। वर्ष 1949 में बीकानेर, जयपुर, जोधपुर और जैसलमेर के शासकों ने संघ में सम्मिलित होने का निर्णय किया। 

30 मार्च, 1949 को पटेल ने जयपुर में औचारिक रूप से संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन किया। इस अवसर उन्होंने कहा कि जयपुर महाराजा साहब (सवाई मानसिंह द्वितीय) को जो राजप्रमुख का मान दिया गया है, उसके लिए मैं उनको मुबारकबाद देना चाहता हूं। आज तक तो यह जयपुर के सेवक थे। क्योंकि असल में हमारे हिन्दुस्तान की संस्कृति के अनुसार राजा राज्य का प्रधान तो जरूर है, लेकिन उससे भी ज्यादा वह प्रजा का सेवक हैं। तो आज तक यह जयपुर की प्रजा के सेवक थे, आज से यह सम्पूर्ण राजस्थान की प्रजा के सेवक बनते हैं। हमारे महा-राजप्रमुख (महाराणा उदयपुर) आज हाजिर नहीं हैं क्योंकि उनकी (महाराणा भूपाल सिंह) शारीरिक दशा हम जानते हैं। पर उनको हम कभी भूल नहीं सकते। राजपूताना का एकीकरण करने के लिए जितना कार्य और जितनी कोशिश राणा प्रताप ने की, उतनी और किसी ने नहीं की। उनका संकल्प परिपूर्ण करने का सौभाग्य आज हम लोगोें को प्राप्त हुआ है, इसलिए आज हमारे अभिमान का दिवस है। 

पटेल ने सुनहरे इतिहास को रेखांकित करते हुए कहा कि आप के राजपूताना का एक-एक पत्थर वीरता के इतिहास से भरा हुआ है, बलिदान के सुनहले कारनामों से भरा हुआ है। आप के राजपूताना की पुरानी कीर्ति आज भी हमारे दिल को अभिमान, हर्ष और उत्साह से भर देती है। आज से उसी राजस्थान को नई दुनिया के योग्य नया इतिहास बनाने का अवसर प्राप्त होता है, यह कितने सौभाग्य की बात है।


Saturday, October 31, 2020

Maker of Indian Administrative System in India_प्रशासनिक व्यवस्था के प्रणेता सरदार पटेल


 


सरदार वल्लभभाई पटेल की अगस्त 1947 में स्वतंत्र हुए भारतीय संघ के एकीकरण में निभाई भूमिका तो सर्वज्ञात है। परंतु यह बात शायद कम लोग है जानते है कि सरदार पटेल ही अंग्रेजी राज की 'स्टील फ्रेम' कही जाने वाली इंडियन सिविल सर्विस की निरंतरता को कायम रखने वाले निर्णायक व्यक्ति थे। उल्लेखनीय है कि आधुनिक भारत ने अंग्रेजों की औपनिवेशिक विरासत के रूप में नगर उन्मुख विकास, केंद्रीकृत योजना और राज के 'स्टील फ्रेम' यानि सिविल सेवा के स्वरूप को को बनाए रखा।


अनुभव के आधार पर पटेल ने दो स्तरों पर काम करने का निर्णय लिया। पहला, इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) के भारतीय सदस्यों का विश्वास जीतना और दूसरा, आईसीएस के उत्तराधिकारी के रूप में नई सेवा के निर्माण का आदेश देना-भारतीय प्रशासनिक सेवा। दोनों के दो भिन्न उपयोग थे, आईसीएस का काम था-उत्तराधिकारियों (कांग्रेस) की ओर सत्ता का हस्तांतरण लागू करना और भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का काम था-स्वतंत्रता के बाद, प्रशासनिक एकता के जरिए इतने विशाल देश को जोड़ कर रखना।

सरदार पटेल ने अंतरिम सरकार के अपने पूर्ववर्ती अनुभवों को स्मरण रखते हुए 10 अक्तूबर 1949 को भारतीय संविधान सभा की बहस में कहा, 'मैं इस सभा के रिकार्ड के लिए यह कहना चाहता हूं कि यदि गत दो या तीन वर्षों में सिविल सेवाओं के अधिकारियों ने देशभक्ति की भावना से और निष्ठा से काम नहीं किया होता तो यह संघ समाप्त हो गया होता। आप सभी प्रान्तों के प्रीमियरों से पूछिए। क्या कोई भी प्रीमियर सिविल सेवा अधिकारियों के बिना काम करने को तैयार है? वह तत्काल त्यागपत्र दे देगा। उसका गुजारा नहीं है। हमारे पास सिविल सेवा के बचे हुए कुछ ही अधिकारी थे। हमने उन थोड़े से व्यक्तियों के साथ बहुत कठिन से कार्य किया है।'

उल्लेखनीय है कि सरदार पटेल ने प्रशासन की स्थिरता, उसे पुनः सबल बनाने का कार्य तथा सिविल सेवाओं के मनोबल को ऊंचा रखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम उठाएं। सरदार पटेल बिना देरी किए शीघ्रता से देश के केंद्रीय प्रशासनिक ढांचे को मजबूत बनाने के काम में जुट गए। 21 अप्रैल 1947 को दिल्ली के मेटकाफ हाउस में, जब देश में सत्ता का हस्तांतरण तकरीबन चार महीने दूर था और अभी इस विषय पर कोई निर्णय नहीं हुआ था, उस समय सरदार पटेल ने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल के पहले परिवीक्षार्थियों के समूह को संबोधित किया। सरदार पटेल ने अपने संबोधन में कहा, ‘आप भारतीय सेवा के अग्रणी हैं और इस सेवा का भविष्य आपके कार्यों, आपके चरित्र और क्षमताओं सहित आपकी सेवा भावना के आधार से रखी नींव और स्थापित परंपराओं पर निर्भर करेगा।’

दिल्ली की यमुना नदी के किनारे बने इस स्कूल में प्रशिक्षण लेने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा के चौबीस और भारतीय विदेश सेवा के नौ परिवीक्षकों को पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा, 'शायद आप पिछली सिविल सेवा, जिसे इंडियन सिविल सर्विस के नाम से जाना जाता है, को लेकर भारत में प्रचलित एक कहावत से परिचित हैं जो न तो भारतीय है, न ही सिविल है और उसमें सेवा की भावना का भी अभाव है। सही मायने में, यह भारतीय नहीं है क्योंकि भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी अधिकतर अंग्रेजीदां हैं, उनका प्रशिक्षण विदेशी जमीन पर हुआ था और उन्हें विदेशी आकाओं की चाकरी करनी थी। इस कारण प्रभावी रूप से यह पूरी सेवा, भारतीय न होने, न ही नागरिकों के प्रति शिष्ट होने और न ही सेवा भावना से ओतप्रोत होने के लिए जानी जाती थी। फिर भी इसकी पहचान भारतीय सिविल सेवा के रूप में होती थी। अब यह बात बदलने जा रही है।'

भारतीय प्रशासनिक सेवा में भर्ती के लिए पहली प्रतियोगी परीक्षा जुलाई 1947 में आयोजित हुई। इससे पूर्व इंडियन सिविल सर्विस के लिए चयनित लेकिन वास्तव में उस सेवा में नियुक्त नहीं किए गए व्यक्तियों को भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में सम्मिलित कर दिया गया।

यह सरदार पटेल की पहल का ही परिणाम था कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने 1 अक्तूबर, 1947 को प्रशासनिक तंत्र का भारतीय नामकरण करते हुए अंग्रेजों की इंडियन सिविल सर्विस और इंडियन पुलिस को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के रूप में नामित करने की सार्वजनिक घोषणा की। 

दूरदर्शी पटेल को स्पष्ट था कि एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधे रखने और किसी भी प्रकार के विखंडन को थामने के लिए एक शक्तिशाली अखिल भारतीय सिविल सेवा का होना महत्वपूर्ण है। उन्होंने इसी बात को तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को 27 अप्रैल 1948 को भेजे पत्र में रेखांकित करते हुए लिखा, 'मेरे लिए इस बात पर जोर देना शायद ही जरूरी हो कि कार्यक्षम, अनुशासनबद्व तथा संतुष्ट अधिकारी, जिन्हें अपने परिश्रमपूर्ण और प्रामाणिक कार्य के फलस्वरूप उन्नति का आश्वासन प्राप्त है-लोकतांत्रिक शासन-पद्धति में स्थिर शासन के लिए निरंकुश शासन की अपेक्षा अधिक अनिवार्य है।'

जब तक वर्तमान भारत और उसकी प्रशासनिक व्यवस्था जीवित है, सरदार पटेल का नाम वर्तमान भारत के ऐसे राष्ट्र निर्माता के रूप में सदा स्मरण किया जाता रहेगा, जिन्होंने सभी देशी रियासतों का एक भारतीय संघ और उसके राजकाज को कायम रखने के लिए भारतीय सिविल सेवा की व्यवस्था को बनाया। उनके ये कार्य हमारे देश के एकीकरण और उसके तंत्र को अक्षुण्ण रखने की दिशा में स्थायी योगदान थे। इस विषय में उनके कार्यों को हम कभी विस्मरण नहीं कर सकते। जब तक भारत जीवित है, वर्तमान भारत के निर्माता के रूप में उनका नाम सदा स्मरणीय रहेगा।


Formation of Nagpur All India Radio Advisory Committee_01111950_AIR_आल इंडिया रेडियो_नागपुर केन्द्र_सलाहकार समिति


 


आज का दिन_1 नवंबर 1950


केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने आज के दिन ही वर्ष 1950 में आल इंडिया रेडियो के नागपुर केन्द्र की सलाहकार समिति का गठन किया था। इस समिति में कर्मवीर के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी, जबलपुर की बेहरबाग की श्रीमती उषा देवी मित्रा, नागपुर स्थित नागपुर विश्ववि़द्यालय के उपकुलपति श्री कुंजीलाल दुबे, जबलपुर के राबर्टसन काॅलेज के प्रोफेसर श्री रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', अमरावती के अमरावती म्युनिस्पिल बोर्ड के अध्यक्ष, श्री वीर वामनराव जोशी, नागपुर के धंतोली से निकलने वाले समाचार पत्र ‘भवितव्य’ के संपादक श्री पी. वाई. देशपांडे, अमरावती के सांसद डॉक्टर पंजाबराव देशमुख और नागपुर के ‘तरूण भारत’ के संपादक श्री गजानन दिगंबर माडगूळकर सम्मिलित किए गए थे। 


Thursday, October 15, 2020

Check on chinese propoganda_1962_1962_लगाई थी, चीन के दुष्प्रचार पर लगाम




भारत सरकार ने आज के दिन 58 वर्ष पूर्व चीन से संबंधित आठ पुस्तकेंएक पर्चा और एक मानचित्र को गैर कानूनी घोषित कर दिया था।

15 अक्तूबर 1962 को ऐसा निर्णय इसलिए लिया गया क्योंकि ये सभी "भारत की क्षेत्रीय अखंडता और सीमाओं को संदिग्ध बनाते हुए देश की रक्षा और सुरक्षा के हितों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण होने की संभावना उत्पन्न" करते थे।


इन प्रकाशनों में 'सिंपल ज्योग्राफी ऑफ़ चाइना', 'ग्लिमसेंज ऑफ़ चाइना', 'चीन-भारत सीमा प्रश्न के दस्तावेज', 'वेन सर्फस् स्टूड अप इन तिब्बत', 'विदर इंडिया-चाइन रिलेशन्स?', 'चित्रों में चीन के मुख्य पर्यटन नगर', 'चीन की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पहली पंचवर्षीय योजना', 'अपसर्ज आफ चाइना', 'विक्टरी फार द फाइव प्रिंसिपल्सऔर शिकागो की कंपनी ए. जे. नैस्ट्रोम के प्रकाशित मानचित्र शामिल थे। तब आपराधिक कानून अधिनियम, 1961 के तहत जारी आदेश के विषय में सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को इन प्रकाशनों के बारे में सूचित किया गया। भारत सरकार ने इन प्रकाशनों की समस्त प्रतियों सहित इनके पुर्नमुद्रितअनुदित और चुनींदा अंशों के दस्तावेजों को भी जब्त कर लिया।


चीन के पेकिंग विदेशी भाषा प्रेस से प्रकाशित 'सिंपल ज्योग्राफी ऑफ़ चाइनापुस्तक में मुद्रित मानचित्रों में पूर्वी लद्दाख के बड़े हिस्से (अक्साई चिन)पंजाब और उत्तर प्रदेश के भागों सहित समूचे नेफा (आज का अरूणाचल प्रदेश) को चीन के हिस्से के रूप में प्रदर्शित किया गया था। वर्ष 1958 में छपी 'ग्लिम्पसेज ऑफ चाइनामेंजम्मू-कश्मीरहिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के हिस्सों सहित समूचे नेफा को चीन का भाग दिखाया गया था। जबकि वर्ष 1960 में प्रकाशित 'चीन-भारत सीमा के सवाल पर दस्तावेजमें भी इन इलाकों को गलत तरीके से चीन का भाग चित्रित किया गया था। अना लुइस स्ट्राग की लिखी 'वेन सर्फस् स्टूड अप इन तिब्बतपुस्तक में पूर्वी लद्दाख के विशाल भाग सहित पूरे नेफा को चीन का हिस्सा बताया गया था। मैकमोहन लाइन को भारत की वैध अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में संदिग्ध बताने की नीयत से आंकड़ों के साथ हेराफेरी की गई थी। जबकि कोलंबो से छपी 'विदर इंडिया-चाइन रिलेशन्स?' पुस्तक में जम्मू-कश्मीर के चीन अधिकृत भाग को परंपरागत रूप से चीन का हिस्सा और मैकमोहन लाइन को अवैध बताया गया था। 


उल्लेखनीय है कि वर्ष 1914 के शिमला समझौते के तहत तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव-मुख्य वार्ताकार हेनरी मैकमोहन के अंग्रेज भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र और तिब्बत के मध्य तय सीमांकन रेखा ही मैकमोहन रेखा मानी जाती है। इसकी कानूनी वैधता को लेकर चीन को गलत आपत्ति जताता रहा है।  

'चित्रों में चीन के मुख्य पर्यटन नगरऔर 'चीन की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पहली पंचवर्षीय योजनाशीर्षक वाली पुस्तकों में भी जम्मू-कश्मीर सहित समूचे नेफा को चीन का भाग प्रदर्शित किया गया था। हेवलेट जानसन की 'अपसर्ज आफ चाइना' (1961) के दो मानचित्रों में नेफा और चीन का हिस्सा और जम्मू-कश्मीर को भारत का भाग न बताने के कारण प्रतिबंधित किया गया। 'विक्टरी फार द फाइव प्रिंसिपल्सशीर्षक वाले पर्चे में भी ऐसे ही गलत ढंग से नेफा और जम्मू-कश्मीर को और वर्ल्ड वाॅल मैप में समूचे नेफा को चीन का भाग प्रदर्शित किया गया था।


Wednesday, October 14, 2020

Mohandas Karamchand Gandhi_Thoughts_English


If the importance of Indian languages is not recognized in the field of education, the national spirit will not be awakened. And is there a greater humiliation for the country than that? 

-Mahatma Gandhi, page 656, Volume 96, CWMG, 17 July 1947


Are all the Bal Mandirs which are coming up these days worthy of the name? This is a question to be considered by all who are interested in children’s education. The country needs good facilities for children’s education as much as it needs food, cloth and houses to meet its physical needs, for its future depends on the children. 

-Mahatma Gandhi, Message to Kindergarten School, July 7, 1947, MGCW, page 2, Volume 96

Sunday, October 11, 2020

Mahatma Gandhi_thoughts


शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के महत्व को स्वीकार किए बिना राष्ट्रीय भावना जागृत नहीं होगी। क्या देश के लिए इससे बड़ा अपमान है?
-महात्मा गांधी, खंड 96, संपूर्ण गांधी वांड्मय, 17 जुलाई 1947


गाँधी_वेश्या_देवदासी प्रथा
1921 में बारीसाल (जो अब बंग्लादेश में है) में रात के दस बजे करीब एक सौ वेश्याओं के साथ दुभाषिये के जरिये बातचीत करके जो अनुभव गाँधी ने प्राप्त किये उसे 11 सितम्बर 1921 के नवजीवन (गुजराती पत्र) में इस प्रकार रखा था-ये बहनें जानबूझ कर इस पाप में नहीं पडी। पुरूषों ने उन्हें इसमें गिराया है। जिनको इस बात पर दर्द होता है उन्हें चाहिए कि वे प्रायश्चित के रूप में इन पतित बहनों को हाथ बढा कर सहारा दें। जब-जब इन बहनों का चित्र मेरी आँखों के सामने आता है तब-तब मुझे ख्याल होता है कि अगर ये मेरी बहनें या बेटियाँ होतीं तो ! और होतीं तो क्यों वे हैं ही, उनको उठाना मेरा काम है। प्रत्येक पुरूष का काम है।.....स्वराज्य का अर्थ है पतितों का उद्धार।
यही नहीं दक्षिण भारत में प्रचलित देवदासी प्रथा का विरोध करते हुए गाँधी ने 16 अप्रैल 1925 के यंग इंडिया में लिखा-दक्षिण यात्रा में मुझे जितने अभिनंदन-पत्र मिले उन सब में अत्यन्त हृदयस्पर्शी वह था जो देवदासियों की ओर से दिया गया था। देवदासियों को वेश्या शब्द का सौम्य पर्याय ही समझिए।.... यह अत्यन्त लज्जा, परिताप और ग्लानि की बात है कि पुरूषों की विषय-तृप्ति के लिए कितनी ही बहनों को अपना सतीत्व बेच देना पडता है। पुरूष ने विधि-विधान के इस विधाता ने अबला कही जानेवाली जाति को बरबस जो पतन की राह पर चलाया है, उसके लिए उसे भीषण दंड का भागी होना पडेगा।.... मैं हर युवक से वह विवाहित हो या अविवाहित, जो कुछ मैंने लिखा है, उसके तात्पर्य पर विचार करने का अनुरोध करता हूँ। इस सामाजिक रोग, नैतिक कोढ के संबंध में मैंने जो कुछ सुना है, वह सब मैं नहीं लिख सकता। विषय बडा नाजुक है, पर इसी कारण इस बात की ज्यादा आवष्यकता है कि सभी विचारशील लोग इसकी ओर ध्यान दें।


Mahatma Gandhi_Third Class Indian Railway_Delhi_Booking Ticket Office_दिल्ली_तीसरे दर्जे का रेल आरक्षण कार्यालय_महात्मा गांधी


 


शाही राजधानी यानी दिल्ली का एक तीसरे दर्जे का रेल आरक्षण कार्यालय एक ब्लैक-होल है, जो कि नष्ट होने लायक ही है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में प्लेग एक महामारी बन गया है? ऐसे स्थान पर कोई दूसरी बात हो ही नहीं सकती है, जहां आने पर यात्री हमेशा कुछ गंदगी छोड़ जाते हैं और अपने साथ उससे अधिक गंदगी समेटकर ले जाते हैं।


-महात्मा गांधी, थर्ड क्लास इंडियन रेलवे पुस्तक में 

Thursday, October 1, 2020

Name change from ICS to IAS_01101947_स्व के तंत्र की घोषणा का दिन_1 अक्तूबर1947


 


वर्ष 1947 में देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने आज ही के दिन प्रशासनिक तंत्र के नाम का भारतीयकरण किया था। 

1 अक्तूबर, 1947 को नई दिल्ली से एक प्रेस नोट जारी करके गृह मंत्रालय ने अंग्रेजों की इंडियन सिविल सर्विस और इंडियन पुलिस को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के रूप में नामित करने की सार्वजनिक घोषणा की थी। 

इससे पूर्व, आइसीएस और आइपी के स्थान पर परिवर्तन करके अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा और अखिल भारतीय पुलिस सेवा का गठन किया था।

तब महजबी आधार पर राष्ट्र-विभाजन ने राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया था। वर्ष 1946 में प्रांत-प्रमुखों की बैठक में पारित प्रस्ताव ही एक प्रकार से भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के लिए घोषणापत्र बन गया।

भारतीय प्रशासनिक सेवा में भर्ती के लिए पहली प्रतियोगी परीक्षा जुलाई 1947 में आयोजित हुई। इससे पूर्व इंडियन सिविल सर्विस के लिए चयनित लेकिन वास्तव में उस सेवा में नियुक्त नहीं किए गए व्यक्तियों को भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में सम्मिलित कर दिया गया। वर्ष 1948 के मध्य तक, द्वितीय विश्व युद्व में उनकी सेवाओं के के आधार पर चुने गए अधिकारियों को भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त किया गया।

नव-स्वतंत्र देश के इस महत्वपूर्ण तंत्र के रूपातंरण की प्रक्रिया केन्द्रीय गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में हुई। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने 18 जनवरी 1948 को बम्बई में हुई एक सभा में इससे संबंधित अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि कितने ही सालों से अंग्रेजों ने हमारी हुकूमत चलाने के लिए एक तन्त्र बनाया था, जिसको 'लोहे की चौखटी' यानी 'स्टील फ्रेम' कहते हैं। यह वज्र का बना हुआ एक फ्रेम था, जिसको सिविल सर्विस कहते हैं। यह कोई पन्द्रह सौ आदमियों की एक सर्विस थी। यह पन्द्रह सौ अफसर सारे हिन्दुस्तान का राज्य चलाते थे। बहुत साल से और बड़ी मजबूती से यह राज्य चला रहे थे। जब यह फैसला हुआ, तब हमारे पास पन्द्रह सौ अफसर थे। उसमें 25 फीसदी अंग्रेज थे। वे सभी तो भागकर चले गए। तो वह जो फ्रेम था, आधा तो टूट गया। अब जो बाकी रहा, उसमें से जितने मुसलमान थे, वह सब भी चले गए। उनमें से चन्द लोग यहां रहे, बाकी सब चले गए। नतीजा यह हुआ कि आज हमारे पास पुरानी सर्विस के लोगों का सिर्फ चौथा हिस्सा बच रहा है, और इसी 25 फीसदी सर्विस से हम हिन्दुस्तान का सारा कारोबार चला रहे हैं। नई सर्विस तो हमारे पास कोई है नहीं। वह तो हमें बनानी पड़ेगी। इस तरह से तो लोग मिलते नहीं, और जिसके पास अनुभव नहीं है, जिसने कभी काम नहीं किया, वैसे आदमियों को ले लेने से तो काम चलता नहीं है। इस पर भी पिछले चार पांच महीनों में हमने इतना काम कर लिया।

Saturday, September 26, 2020

Najwa Zebian_Pain_नजवा जेबिनयन_दुख की कामना


 



उनके लिए कभी दुख की कामना न करो। तुम ऐसी परपीड़ा की इच्छा रखने वाले नहीं हो। अगर उन्होंने तुम्हें दुख दिया है तो अवश्य उनके भीतर दुख का वास होगा। उनके लिए दुख से मुक्ति की प्रार्थना करो। उन्हें इसकी ही सर्वाधिक आवश्यकता है।


-नजवा जेबिनयन, लेबनानी लेखिका

Thursday, September 24, 2020

Coward and Lazy persons are risky_Sardar Patel_Mahatma Gandhi_letter_कायर और ढीले आदमी_सरदार वल्लभभाई पटेल_महात्मा गांधी


 


कायर और ढीले आदमी समझदार हों तो भी मुझे उनसे प्रेम नहीं होता, क्योंकि वे मंझधार में नाव डूबानेवाले होते हैं।

-सरदार वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी को 29 अक्तूबर 1933 को लिखे एक पत्र में



हम गुलाम इसलिए बने थे कि हम आपस में एक दूसरे के साथ लड़े, खतरे के समय हम लोगों ने एक दूसरे का साथ नहीं दिया था। हम छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर बैठ गए और अपने-अपने संकुचित क्षेत्रों में, अपने स्वार्थों में पड़ गए। अपने संकुचित क्षेत्र में भले ही हमने कुछ सेवा भी की हो, लेकिन उससे हमको नुकसान ही हुआ और जब समय आया तो हम एक साथ खड़े न रह सके। 

-सरदार पटेल, जयपुर में संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन के समय

Monday, September 21, 2020

Sardar Patel_Maniben Patel_Letters_सरदार वल्लभभाई पटेल_मणिबेन पटेल_पत्र


 


शारीरिक रोग की तुलना में मानसिक कष्ट कहीं अधिक विनाशकारी है। शारीरिक पीड़ा के लिए औषधि है, लेकिन मानसिक रोग के लिए कोई औषधि नहीं है। इसके लिए, कोई कुछ नहीं कर सकता। ईश्वर की इच्छा अनुसार ही घटनाएं होती हैं। यहां तक कि उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। 

-सरदार वल्लभभाई पटेल अहमदनगर किले के कारागार से अपनी बेटी मणिबेन को 16 मार्च, 1944 को लिखे एक पत्र में


Mental agony is much more disastrous than a physical ailment. For physical pain there is medicine, but there is no remedy for the mental ailment. So nobody can do anything about it. Whatever God wishes happens. Even a leaf won’t move without his wish.

-Sardar Vallabhbhai Patel to his daughter Maniben in a letter dated March 16, 1944, from Ahmednagar Fort prison

Sunday, September 20, 2020

Contribution of funds to rebuild Somnath Temple_Sardar Patel_सोमनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण के लिए धन देने की अपील_सरदार वल्लभभाई पटेल


 



मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि यह कार्य धन के अभाव में प्रभावित नहीं होगा लेकिन सौराष्ट्र की जनता को उनकी क्षमता के अनुरूप अपना अंशदान देना चाहिए। 


-सरदार पटेल की गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण के लिए धन देने की अपील 

(स्त्रोतः 25 जनवरी 1949, हिंदुस्तान टाइम्स, पेज 28, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार वल्लभभाई पटेल, मुख्य संपादकः पी एन चोपड़ा)

Let me assure you did the work would not suffer for want of money but the people of Saurashtra must contribute your mite.

-Sardar Patel Sardar Patel‘s appeal for funds to rebuild Somnath temple 25 January 1949, Hindustan Times
(Source: Collected Work of Sardar Vallabhbhai Patel, Chief Editor: PN Chopra, page 28)


Thursday, September 17, 2020

Hyderabad Police Action_Operation Polo_September 17_1948_हैदराबाद का सैनिक अभियान पोलो_17 सितंबर 1948

 

Rajasthan Patrika, 17/09/2020






वर्ष 1971 में पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी के ढाका में भारतीय लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण की घटना आधुनिक भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर है।


आज से 72 बरस पहले, 17 सितंबर 1948 को भी हैदराबाद में आत्मसमर्पण की एक ऐसी ही घटना हुई थी। जहां हैदराबाद रियासत के सैनिक कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अहमद एल एडरूज ने भारतीय थल सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जयंतो नाथ चौधरी के सामने सिकंदराबाद में अपने हथियार डाले थे। इस तरह, हैदराबाद का भारतीय संघ में एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।


इस सैन्य कार्रवाई का आधार हैदराबाद में उत्पन्न नकारात्मक परिस्थितियां थीं, जिसके मूल में निजाम मीर उस्मान अली खान की स्वतंत्र शासक बनने की इच्छा थी। इसी कारण निजाम 15 अगस्त, 1947 के बाद से हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय को येन-प्रकारेण टालता रहा। जबकि दूसरी तरफ, उसने पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र से संपर्क करके एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के रूप में हैदराबाद की स्थापना के प्रयास किए। वह भी तब जब हैदराबाद राज्य की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू थी।


भारतीय सेना के हैदराबाद पुलिस एक्शन का कूट नाम आपरेशन पोलो था। यह नाम उस समय देश में सर्वाधिक पोलो मैदान, हैदराबाद-सिकन्दराबाद में होने के कारण रखा गया था। इस सैन्य अभियान 13 सितंबर सुबह चार बजे से लेकर 17 सितंबर 1948 को शाम पांच बजे तक करीब साढ़े चार दिनों तक चला। भारतीय सेना की इस कार्रवाई में 42 सैनिक शहीद हुए और 97 घायल हुए। जबकि निजाम की सेना के 490 सैनिक मारे गए, 122 घायल हुए, वही 2727 रजाकार मारे गए, 102 घायल हुए और 3364 को धर पकड़ा गया।


तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने हैदराबाद में सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता पर संविधान सभा में कहा था कि "हैदराबाद में ऐसी ताकतें काम कर रही हैं जिन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि हैदराबाद और भारतीय संघ के बीच कोई समझौता न होने दिया जाय। रजाकारों द्वारा चलाये जाने वाले हिंसा के इस उत्तेजक आन्दोलन में राज्य के भीतर 71 गांवों पर हमले किये गये हैं, 140 आक्रमण हमारे भूभाग पर किये गये हैं, 325 आदमी मारे गये हैं, 12 रेलगाड़ियों पर हमले हुए हैं तथा डेढ़ करोड़ की सम्पति लूटी गई है। हम ऐसे अत्याचारों और नृशंस कृत्यों को बिना किसी रोकटोक के जारी नहीं रहने दे सकते।"


उल्लेखनीय है कि हैदराबाद में वर्ष 1926 में बना मजलिस-इ-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन एक धर्मान्ध मुस्लिम संगठन था। इसके नेता कासिम रिजवी रजाकारों का सैन्य दल बनाकर निजाम के समर्थन में मुसलमानों को एक करने और हिन्दुओं के धार्मिक उत्पीड़न में सक्रिय था।


Sunday, September 6, 2020

Happiness_Self_प्रसन्नता_स्व


 


प्रसन्नता कोई सुदूर की वस्तु नहीं है। वह न तो प्रसिद्धि में निहित है और न ही लोकप्रियता में। जब आप जीवन को प्रतिबद्धता के साथ बिताते हैं, तब आपका मन विशाल ब्रह्मांड के समान प्रसन्नता से भरने लगता है। यह स्वयं के प्रति ईमानदार होने और जहां है, वहीं से जीवन जीने सरीखा है। 

-दाइसाकू इकेदा 

Thursday, September 3, 2020

Nasirabad_Ajmer_Rajasthan_1857_नसीराबाद से बजा था बिगुल, राजस्थान में 1857 की पहली जंगे आजादी का_Sujas_August_2020


 




देश में वर्ष 1857 को हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम का राजस्थान में शंखनाद नसीराबाद से हुआ। तब राजपूताना का बहुत कम भाग अंग्रेजों के सीधे प्रशासन में था। उस समय राजपूताने का अंग्रेजी प्रशासन उत्तर पश्चिम प्रदेश के लेफ्टिनेन्ट गर्वनर के अधीन था और यहां शान्ति कायम रखने का दायित्व राजस्थान के एजीसी का था। इनमें तीन महत्पपूर्ण सैनिक चैकियां थीं-अजमेर, नसीराबाद और नीमच।



जब 1857 में राजपूताने में क्रांति शुरू हुई तब राजस्थान का एजेन्ट टू गवर्नर जनरल (एजीजी) जार्ज सेंट पैट्रिक लारेन्स था। उसके अधीन कई पोलिटिकल एजेन्ट थे जो बड़ी बड़ी रियासतों में नियुक्त थे। यहां छह सैनिक छावनियां थीं नसीराबाद, अजमेर, देवली, खैरवाड़ा, ऐरनपुरा और नीमच। इन सभी छह छावनियों में अंग्रेजी पलटनें थीं। परन्तु इनमें से अधिकांश सैनिक भारतीय थे। 


अजमेर से 16 मील की दूरी पर नसीराबाद छावनी में दो रेजीमेंट, बंगाल नेटिव इन्फेंट्री 15 एवं 30 तथा फर्स्ट बॉम्बे केवेलरी और पैदल तोपखाना बैटरी तैनात थी। नसीराबाद से केवल 60 मील दूर देवली छावनी में कोटा दस्ता तैनात था, जिसमें इंडियन केवेलरी की एक रेजीमेन्ट और इन्फेंट्री थी। भारतीय सैनिकों, घुड़सवार और पैदल सैनिकों की एक रेजीमेन्ट नीमच में थी जो नसीराबाद से 120 मील दूर था। अजमेर से सौ मील दूर एरिनपुरा में जोधपुर रियासत के अनियमित सैनिकों की पूरी पलटन तैनात थी जिसकी व्यवस्था जोधपुर रियासत के हाथों में थी। मेवाड़ में उदयपुर से पचास मील दूर खैरवाड़ा में अंग्रेज अधिकारियों के नियंत्रण में भील पलटन थी। मेरों (रावतों की मेरवाड़ा बटालियन) की एक अन्य पलटन ब्यावर में तैनात थी। जयपुर पोलिटिकल एजेन्ट के रक्षक भारतीय सैनिक ही थे। परन्तु जब इस संग्राम का आरम्भ हुआ तो राजस्थान में अंग्रेज सैनिक अधिक नहीं थे इसलिए एक प्रकार से अंग्रेजों की स्थिति बड़ी भयावह अवश्य थी।


जब 19 मई, 1857 में मेरठ में होने वाली क्रांति की सूचना राजस्थान पहुंची उस समय एजीजी जनरल लारेन्स आबू में था। उसने तुरन्त ही सम्बन्धित अधिकारियों को सूचित किया और बतलाया कि उन्हें क्या सावधानी रखनी चाहिए। अजमेर की सुरक्षा के लिए उसने 21 मई, 1857 को दीसा से एक ब्रिगेड नसीराबाद मंगवाई। यह स्थान सबसे निकट था और यहीं पर यूरोपीय सैनिक थे। उसने सभी राजपूताना के शासकों के नाम एक घोषणा पत्र जारी किया कि सारे शासक अपने राज्य की सीमा के अन्दर शांति बनाये रखें। उनके राज्य से होकर जो कोई विद्रोही लोग निकलें उनको पकड़े। इस घोषणा पत्र से सर्वोच्चता के प्रति निष्ठावान रहने तथा सैनिक सहायता के लिए उद्यत रहने के लिए सूचित भी किया गया था।


सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक "1857 का स्वतंत्रता संग्राम" में लिखा है कि 1857 में राजपूताना के राजा अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान बने रहे। फिर भी राजपूताना को अपने हिस्से की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। विद्रोह हो जाने पर अंग्रेजों की मुख्य चिंता अजमेर की सुरक्षा को लेकर थी। 


ऐसे में, अजमेर तो बच गया लेकिन कुछ दूर नसीराबाद में अंग्रेजी राज के विरुद्व विद्रोह हुआ। यहां बंगाल सिपाहियों की दो रेजीमेन्ट और फर्स्ट बॉम्बे कैवलरी रेजीमेंट तैनात थी। मई 1857 में जब हड्डी मिले आटे की कहानियां नसीराबाद भी पहुंची तो भारतीय सिपाहियों में रोष भर गया। इसके अलावा यह अफवाह भी थी कि दीसा से एक यूरोपीय फौज देसी सिपाहियों को निहत्था करने आ रही है। इस समाचार ने अंग्रेज सत्ता विरोधी भावना को और अधिक भड़का दिया। नसीराबाद की स्थिति बद से बदतर होने लगी।






भारतीय सैनिकों में यह अफवाह फैल गई, विशेषकर अंग्रेजी पलटनों में और तोपखाना टुकड़ी में, कि कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई है, जिनको बन्दूकों में रखने से पहले मुंह से काटना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि नसीराबाद में 10 मई 1857 में हुए मेरठ विप्लव का प्रभाव 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के माध्यम से आया था। इस इन्फैंट्री की एक टुकड़ी 1 मई 1857 में अजमेर के शस्त्रागार की रक्षा कर रही थी जो मेरठ से ही प्रशिक्षित होकर आई थी।


एजीजी. के अजमेर में स्थित 15वीं बंगाल इन्फैन्ट्री को अविश्वास के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष उत्पन्न हो गया। वहीं, अंग्रेजों ने फर्स्ट बम्बई लांसर्स के सैनिकों से नसीराबाद में गश्त लगवाने के साथ बारुद भरी तोपें तैयार करवाने के कारण सैनिकों में असंतोष पनपा। इन सब तथ्यों ने पहले से एकत्र बारूद के ढेरी में आग सुलगाने का काम किया।


इसका परिणाम 28 मई को नसीराबाद की दो पैदल टुकड़ियों के रेजीमेन्टों के अंग्रेजों के विरुद्व हथियार उठाने के रूप में सामने आया। उल्लेखनीय है किवर्ष 1818 में अंग्रेजों ने मराठा सरदार दौलतराव सिन्धिया से एक सन्धि करके अजमेर प्राप्त किया था। उसके बाद ही नसीराबाद में एक अंग्रेज सैनिक छावनी बनाई गई थी। 


यहां आजादी का परचम लहराने की पहल 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने की। इन सैनिकों ने नसीराबाद के अंग्रेज बंगलों तथा सार्वजनिक भवनों को लूट लिया और उनमें आग लगा दी। यहां तक कि फर्स्ट बॉम्बे कैवलरी दल ने भी अपने अंग्रेज अधिकारियों से सहयोग नहीं किया और भारतीय सैनिकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया। जबकि इस दल के सिपाहियों ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों की उस समय सुरक्षा व्यवस्था की जब वे ब्यावर की ओर जा रहे थे। दो अंग्रेज अधिकारी मारे गये और तीन घायल हो गये।


अंग्रेज लेखक इल्तुदूस थामस प्रिचार्ड ने पुस्तक "म्यूटिनीज इन राजपूताना" (1860) में लिखा है कि नसीराबाद के सिपाहियों ने जब विद्रोह किया तब बम्बई की घुड़सवार सवार-सेना ने उनसे युद्व करने से इंकार कर दिया। उसके हिसाब से दोनों में पहले से कोई समझौता हो चुका था। बंबई की सेना में अवध के सिपाही भी थे लेकिन वे उसका एक हिस्सा ही थे। उसमें गैर-हिन्दुस्तानी भी थे और उन्होंने हिन्दुस्तानियों की सहायता की।


इस प्रकार, नसीराबाद स्वतन्त्रता सेनानियों के हाथ में चला गया। दूसरे दिन आजादी के सिपाहियों ने नसीराबाद छावनी को लूट दिल्ली का मार्ग लिया।


इतिहासकार सुंदरलाल अपनी प्रसिद्व पुस्तक "भारत में अंगरेजी राज" (द्वितीय खंड) में लिखते है कि देसी सिपाहियों के नेता दिल्ली सम्राट के नाम पर नगर के शासन का प्रबंध करके खजाना, हथियार और कई हजार सिपाहियों को साथ लेकर दिल्ली की ओर चल दिए।


इन आजादी के दीवाने सैनिकों का पीछा मारवाड़ के एक हजार प्यादी सेना ने किया जिसका नेतृत्व अजमेर का असिसटेन्ट कमिशनर लेफ्टिनेन्ट वाल्टर और मारवाड़ का असिस्टेंट जनरल तथा लेफ्टिनेन्ट हीथकोट और एन्साईन बुड कर रहे थे। लेकिन पीछा करने वाली सेना को कोई सफलता नहीं मिली। प्रिचार्ड के अनुसार, विद्रोही सिपाहियों से लड़ने के लिए जब जोधपुर और जयपुर दरबारों के दस्ते आये (अंग्रेजों के नेतृत्व में राजस्थान में रहने वाली देशी पलटनों से ये भिन्न थे), तब उन्होंने लड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने इस बात को छिपाया नहीं कि उनकी सहानुभूति विद्रोहियों के साथ है क्योंकि उन्हें ऐसा विश्वास हो गया था कि ब्रिटिश लोग उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे थे।


जिस असाधारण तेजी से आज़ादी की सिपाही दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे इसका एक कारण नसीराबाद की विद्रोह पूर्ण घटना भी थी। डब्ल्यू. कार्नेल, जो उस समय अजमेर में सुरक्षा का सैन्य अधिकारी था जब अजमेर पर आक्रमक कार्रवाई की गयी थी, अंदर-बाहर के खतरों के बावजूद दिन रात जागते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा था। उस समय वह काफी हताश भी था। उसने जोधपुर के महाराजा द्वारा भेजी गई विशाल सेना को भी अजमेर में रहने की अनुमति नहीं दी। उस समय अजमेर-मेरवाड़ा का कमिशनर कर्नल सी. जे. डिक्सन था। 




जबकि दूसरी तरफ, अजमेर की स्थिति का लाभ न उठाकर आज़ादी के सिपाहियों की सेना तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ती ही चली गयी। जबकि अंग्रेज अजमेर की हर कीमत पर रक्षा करने को तत्पर थे क्योंकि वह राजपूताने के केन्द्र में स्थित था तथा सामरिक दृष्टि से भी उसकी स्थिति काफी महत्वपूर्ण थी। यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में चला जाता तो अंग्रेज हितों को भारी आघात लग सकता था क्योंकि अजमेर में भारी शस्त्रागार, खजाना और अपार सम्पदा मौजूद थी। यही कारण है कि स्वयं जार्ज लारेंस किले की मरम्मत करवाने तथा छह माह की रसद इक्ट्ठा करने में प्रयत्नशील रहा। इस प्रकार के प्रबन्ध से अजमेर क्रांति की लपटों से बचाया जा सका।

प्रसिद्ध हिंदी लेखक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक "सन् सत्तावन की राज्य क्रांति" में लिखा है कि राजस्थान की जनता का हदय अंग्रेजों से लड़ने वाली देश की शेष जनता के साथ था। अपने सामन्तों और अंग्रेज शासकों के संयुक्त मोर्चे के कारण वह अपनी भावनाओं को भले सक्रिय रूप से बड़े पैमाने पर प्रकट न कर सकी हो किन्तु उसकी भावनाओं के बारे में सन्देह नहीं हो सकता। 

वहीँ प्रिचार्ड ने राजस्थान के सामन्त-शासकों के बारे में लिखा है कि वे अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग रहे अर्थात् अपनी जनता के प्रति विश्वासघात करके अंग्रेजों का साथ देते रहे। लेकिन उसने स्वीकार किया है कि अनेक सामन्त अपने सिपाहियों और प्रजा पर नियन्त्रण न रख सके। इन्होंने अपनी सेनाएं अंग्रेजों की सेवा के लिए भेजीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर उन्होंने विद्रोहियों से लड़ना अस्वीकार कर दिया।

"राजस्थान में स्वतन्त्रता संग्राम" पुस्तक में बी एल पानगड़िया लिखते है कि विद्रोही अगर दिल्ली की बजाय अजमेर जाकर वहां के शस्त्रागार पर अधिकार कर लेते और प्रशासन हाथ में ले लेते तो राजपूताने की रियासतों में विद्रोह को भारी बल मिलता और उस पर नियन्त्रण पाना अंग्रेजी सल्ननत के लिए आसान न होता। पर देश के भाग्य में तो अभी गुलामी ही बदी थी।



अंग्रेज जासूसों की जुबानी, नसीराबाद सेना की कहानी

जासूसों के खुतूत-और दिल्ली हार गई नामक पुस्तक में अंग्रेजों के भेदियों के विवरण महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं। पुस्तक में नसीराबाद की भारतीय टुकड़ी के बारे में 27 अगस्त 1857 को गौरीशंकर की टिप्पणी है, ’’सूचना मिली है कि जनरल बख्त खां का डिवीजन और नसीराबाद की सेना भी नजफगढ़ प्रस्थान करने वाली है। नांगली के निवासी ने इस युद्व में विद्रोहियों की अधिक सहायता की और उनमें कुछ ने विद्रोही सिपाहियों के साथ युद्व में भाग लिया।‘‘ फिर 16-17 जून 1857 की प्रविष्टि से पता चलता है कि नसीराबाद की फौज एक लाइट फील्ड बैट्री के साथ 19 तारीख को दिल्ली पहुंचने वाली है। जबकि 27 जून 1857 के इंदराज बताता है कि आज सुबह नसीराबाद की सेना ने मिर्जा मुगल से निवेदन किया है कि शहर में उपस्थित सभी सेना को चाहिए कि वे शहर से बाहर निकल कर अंग्रेजी कैंप पर आक्रमण कर दें अन्यथा वे स्वयं वह शहर में आकर डेरा लगा लेगी। विद्रोही रेजीमेंटों में अब कुछ ही पुराने सिपाही रह गए हैं, परंतु सेना के अफसर अभी तक उनका वेतन वसूल कर रहे हैं। नसीराबाद की सेना अपने वेतन की मांग कर रही है।


28 जून 1857 को जासूस अमीचंद की खबर है कि नसीराबाद की सेना अभी तक (दिल्ली के) अजमेरी दरवाजे के बाहर बैठी हुई है, झज्जर के पैदल सेना के एक सौ सिपाही आज विद्रोहियों से आ मिले हैं। जबकि 5 जुलाई 1857 की प्रविष्टि बताती है कि एक सूचना ये भी है कि अंग्रेजों की सहायता के लिए फिरोजपुर से ग्यारह लाख रुपए का खजाना पहुंचने वाला है। अतः रोहिलखंड और नसीराबाद की विद्रोही सेना ने ये सुनकर अलीपुर कूच करने का फैसला किया है ताकि वहां पहुंचकर फिरोजपुर से आने वाले रकम को लूट लें और अंबाला जाने वाले बीमार अंग्रेजों को मार डालें। 20 वीं न्यू इंफैंट्री को नवाब अबदुल्लाह के बिग्रेड से निकालकर नसीराबाद ब्रिगेड में शामिल कर दिया गया है। रोहिलखंड और नसीराबाद की सेनाओं ने कमांडर-इन-चीफ के परामर्श पर कार्य करते हुए आपस में समझौता कर लिया है। इनका संकल्प है कि महु और नीमच सेना के आ जाने के बाद अंग्रेज मोर्चों पर एक जानतोड़ आक्रमण किया जाए। रोहिलखंड और नसीराबाद की सेनाएं अजमेरी दरवाजे और दिल्ली के बीच डेरा डाले हैं। न्यू इंफैंट्री की 60 वीं रेजीमेंट पुराने किले में हैं और 20 वीं न्यू इंफैंट्री लाहौरी दरवाजे के निकट ठहरी है।




First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

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