Saturday, June 30, 2012

Heart-Emotion

किसी के भी मन में सीधे उतरने से आंखे सराबोर हो जाती है, आंसुओं से । और सब कुछ धुंधला जाता है । वैसे भी संवेदना तर्क का नहीं मन का विषय है ।

Friday, June 29, 2012

Why I write-Bhavani Prasad Mishra

मैं क्यों लिखता हूँ-भवानी प्रसाद मिश्र
मैं कोई पचास-पचास बरसों से
कविताएँ लिखता आ रहा हूँ
अब कोई पूछे मुझसे
कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा
कविताएँ लिखने से
जैसे अभी दो मिनट पहले
जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था
तब काग़ज़ काग़ज़ था
मैं मैं था
और कलम कलम
मगर जब लिखने बैठा
तो तीन नहीं रहे हम
एक हो गए

Thursday, June 28, 2012

Insight

Good deeds give you the insight to forsee the things beyond the horizon of life.

Tuesday, June 26, 2012

Vrindavan lal Verma-Dharmvir Bharti



हमने अपना महान् उपन्यासकार की स्मृति में क्या किया ? जंगलों में छिपा गढ़ कुंडार धीरे-धीरे खण्डहर होता जा रहा है। उन स्थानों की कभी खोज खबर ही नहीं ली गयी जिन पर उन्होंने उपन्यास लिखे। कितने सादे, कितने आडम्बरहीन, कितने सहज हुआ करते थे हमारे साहित्य के ये महान् लोग। उनकी स्मृति को शत्-शत् प्रणाम।
—धर्मवीर भारती

Mother's Love

माँ की ममता,बोल-अबोल
मोल नहीं
तोल नहीं
बिलकुल अनमोल

Heena

रंग लाती है हिना, हाथ पर पर धीरे-धीरे
खिलता है चमन में फूल, मौसम में बहार आने पर

Talent and mediocrity

नैसर्गिक प्रतिभा होती ही आत्महंता है, दूसरे हत्या में लग जाते हैं चरित्र की । प्रतिभा को कुंठित करके आत्म निर्वासन अथवा दागनुमा बनाकर अंधेरे की गहरी खाई में धकेलने की साजिश बरसों पुरानी है । आदमकद और बौने कद के व्यक्तियों में यही अंतर है ।

slavery and language

'यह बात गलत है कि पलासी की लडाई में थोडे से अंग्रेजों ने हिंदुस्तान जीता। उस दिन उनकी जीत अवश्य हुई थी, परंतु वह जीत हिंदुस्तान की पराजय नहीं थी। जिस दिन और जिस जगह निश्चित रूप से हमारी हार हुई, इसका उल्लेख स्कूल के इतिहास में नहीं मिलता। इतिहास की यह बहुत बडी घटना बाह्य क्षेत्र में घटित ही नहीं हुई। इसका मुख्य क्षेत्र हमारा मस्तिष्क और हृदय था।...हमारे इस आभ्यांतर की विजय, विजेता की भाषा द्वारा ही संभव थी।' (झूठ-सच) आज ऐसा लगता है कि इस किस्म की बौध्दिक पराजय, गुलामी या आत्मविसर्जन लज्जा का नहीं, गौरव का मामला है।
('अन्य भाषा से मोह': सियारामशरण गुप्त)

chausar-politics

सब सियासत का खेल है, जाने कब गुल खिला दे बुलाए तो आज बुला दे और भुलाए तो कभी ना बुलाए ।

Monday, June 25, 2012

Tar saptak

सर्जनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियाँ जितनी भिन्न होती हैं स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ ही उनकी रचना में प्रतिबिम्बित होती हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है जिनकी रचना प्रबल वैचारिक आग्रह लिये रहती है जब तक कि वह रचना है, निरा वैचारिक आग्रह नहीं है। कोरे वैचारिक आग्रह में अवश्य ऐसी एकरूपता हो सकती है कि उसमें व्यक्तियों को पहचानना कठिन हो जाये। जैसे शिल्पाश्रयी काव्य पर रीति हावी हो सकती है, वैसे ही मताग्रह पर भी रीति हावी हो सकती है। सप्तक के कवियों के साथ ऐसा नहीं हुआ, संपादक की दृष्टि में यह उनकी अलग-अलग सफलता (या कि स्वस्थता) का प्रमाण है। स्वयं कवियों की राय इससे भिन्न भी हो सकती है- वे जानें।
तार सप्तक : दूसरे संस्करण की भूमिका-अज्ञेय

Eyes

आखिर आंखे तो सबके पास है, बस कमी है तो निगाहों की...........

Sunday, June 24, 2012

rashmi rathi-dinkar

दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है.
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

Butterfly/ तितली

इंद्रधनुष से पंखों वाली
उड़ती फिरती आती तितली
फूलों की पंखुडि़यों से मिल
दिन भर है बतियाती तितली
पुष्प के रस की ये शौकीन
बिन इसके न रह पाती तितली
फूलों में है इसका जीवन
उन पर ही मंडराती तितली
पौधों के पत्तों पर बैठी
छोटे अंडे दे जाती तितली
अंडों में से निकलते लार्वा को देख
बहुत इठलाती तितली
लार्वा जब पत्तों को खाकर
कैटरपिलर बन जाता है
तो वह एक अनोखा
रेशमी ककुन बनाता है
रेशमी धागे से पत्ते पर चिपककर
वह गहरी नींद सो जाता है
और कुछ दिनों में ही
एक सुंदर तितली बन जाता है
अब आपने ये जाना है कि दुनिया में कैसे आती तितली
अपने सुंदर रंगों से सबका मन बहलाती तितली
पंख है इसके इतने नाजुक
छूने पर कुम्हला जाती तितली

Saturday, June 23, 2012

ibrahim jauk

जाहिद शराब पीने से काफिर हुआ मैं क्यों, क्या डेढ चुल्लू पानी में ईमान बह गया।
अब तो घबरा के कहते हैं मर जायेंगे, मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे।
जब तक मिले न थे जुदाई का था मलाल, अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई।
अब्राहिम जोंक

Daag Dehlvi

आरजू है वफ़ा करे कोई जी न चाहे तो क्या करे कोई
मिर्जा खान उर्फ " दाग देहलवी " की पैदाइश दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के एक मौहल्ले मे हुई थी । दाग देहलवी की माँ छोटी बेगम बहुत खूबसूरत थीं, व लोहारू के नवाब शम्सुद्दीन की रखैल के तौर पर रहतीं थीं । देहलवी के वालिद शम्सुद्दीन को जब फांसी दी गई तब उनकी उम्र 6 साल की थी । फिर देहलवी की माँ ने किले के युवराज शहजादा फखरुद्दीन की पनहा ली और आप की परवरिश किले के शाही माहौल मे होने लगी । देहलवी ने उस्ताद जौंक से शायरी मे फैज़ पाया । देहलवी ने तक़रीबन दस साल की उमर से ही शायरी मे हाथ आजमाना शुरू कर दिया था । आपके दादा बादशाह बहादुर शाह ज़फर भी एक माने हुए शायर थे । दस जुलाई १८५६ को ज़हर के असर से आपके सौतेले पिता की भी मौत हो गई और फिर आप रामपुर चले गए जहाँ आप की खाला रहा करतीं थीं । १८८८ मे हैदराबाद के निज़ाम के बुलावे पर आप हैदराबाद चले गए फिर ताउम्र आप वहीँ रहे व १९०५ मे हैदराबाद मैं ही आपने इस दुनिया से रुखसती ली ।
ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया
[दाग देहलवी (25.05.1831-14.02.1905)]

Mir Taqi Mir

kaha main ne kitna hai gul ka sabaat kali ne yeh sun kar tabassum kiya Mir Taqi Mir was born at Agra in 1723. He spent his early childhood under the care and companionship of his father, whose constant emphasis on the importance of love and the value of continence and compassion in life went a long way in moulding the character of the poet, and this became the chief thematic strand of his poetry. Mir is one of the immortals among Urdu poets. He is a perfect artist of the ghazal, which makes its peculiar appeal through compression, suggestion, imagery and musicality. He builds his poetry on the foundations of his personal experience. His favourite theme is love - love unfulfilled - and his favourite manner is conversational. Mir lived at a time when Urdu poetry was yet at a formative stage - its language was getting reformed and purged of native crudities, and its texture was being enriched with borrowings from Persian imagery and idiom. Aided by his aesthetic instincts, Mir struck a fine balance between the old and the new, the indigenous and the imported elements. Knowing that Urdu is essentially an Indian language, he retained the best in native Hindi speech and leavened it with a sprinkling of Persian diction and phraseology, so as to create a poetic language at once simple, natural and elegant, acceptable alike to the elite and the common folk. Consequently he has developed a style which has been the envy of all succeeding poets... It is a commonplace of criticism that Mir is a poet of pathos and melancholy moods. His pathos, it should be remembered, is compounded of personal and public causes. His life was a long struggle against unfavourable circumstances... Mir was a prolific writier. His complete works, Kulliaat, consist of 6 dewans, containing 13,585 couplets comprising all kinds of poetic forms: ghazal, masnavi, qasida, rubai, mustezaad, satire, etc. ... He died in Lucknow on 20 September 1810.

Meer: Delhi

मीर तक़ी मीर

प्रसिद्ध शायर ‘मीर’ तक़ी ‘मीर’ को हुए दो सौ से ज़्यादा साल गुजर गये पर वे जैसे अपने समय में लोकप्रिय थे, वैसे ही आज भी हैं। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने दुःख की भावना को इतना प्रबल कर दिया कि बिलकुल सीधे-सादे शब्दों में कही उनकी बात हर ज़माने के लोगों को प्रभावित करने लगी।


पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग।
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।।


‘मीर’ ने तो शायद यह शेर कवि सुलभ आत्माभिमान की दृष्टि से कहा हो किन्तु यह बात पूर्णतः सच निकली है। ‘मीर’ के ज़माने को लगभग 200 वर्ष हो गये। ज़बान बदल गयी, अभिव्यक्ति का ढंग बदल गया, काव्य-रुचि बदल गयी किन्तु ‘मीर’ जैसे अपने ज़माने में लोकप्रिय थे वैसे ही आज भी हैं। कोई ज़माना ऐसा नहीं गुजरा जब कि उस्तादों ने ‘मीर’ का लोहा न माना हो। उनके प्रतिद्वंद्वी ‘सौदा’ ने भी, जो निन्दात्मक काव्य के बादशाह समझे जाते हैं और जिनकी कभी-कभी ‘मीर’ से शायराना चोटें चल जाती थीं, ‘मीर’ की खुले शब्दों में प्रशंसा की हैः-

सौदा’ तू इस ज़मीं से ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही लिख।
होना है तुझको ‘मीर’ से उत्साद की तरफ़।।


उर्दू भाषा की सबसे अधिक साज-संवार करने वाले उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लखनवी उस्ताद ‘नासिख़’ का मिसरा हैः-

आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।


‘ग़ालिब’ ने भी ‘नासिख’ का हवाला देकर उनके विचार की पुष्टि की हैः-

ग़ालिब’ अपना को अक़ीदा है ब-क़ौले-नासिख़’।
आप बे-बहरा है जो मोतक़दे-‘मीर’ नहीं।।


‘जौक़’ का शेर हैः-

न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।


उन्नीसवीं सदी के अंत में ‘अकबर’ इलाहाबादी ने लिखाः-

मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊं ‘अकबर’।
‘नासिख़ो’-जौक़ भी जब चल न सके ‘मीर’ के साथ।।


बीसवीं सदी के ईसुल-मुतग़ज़्ज़लीन (ग़ज़ल रचयिताओं के नायक) मौलाना ‘हसरत’ मोहानी लिखते हैं-

शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।


‘दाग़’ के शागिर्द नाखुदाए-सुकन जनाब ‘नूह’ नारवी का मिसरा है-
बड़ी मुश्किल से तक़लीदे-जनाबे ‘मीर’ होती है।
और ख़ुद ‘मीर’ कहते हैं-

मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।


दरअसल ‘मीर’ की स्थायी सफलता का रहस्य यही है कि उन्होंने अपनी दुख की संवेदना को इतना मुखर कर दिया था कि उनके सीधे-सादे शब्द भी हर ज़माने में बड़े-बड़े काव्य-मर्मज्ञों को प्रभावित करते रहे हैं। भाग्य ने उनके व्यक्तिगत जीवन और उनके समय की सामाजिक परिस्थतियों को स्थिरता और आराम-चैन से इतना अलग कर दिया था कि ‘मीर’ का हृदय एक टूटा हुआ खंडहर बन गया और उसमें से दर्दों-गम की ऐसी तानें निकली जिन्होंने ‘मीर’ को कविता के क्षेत्र में अमरत्व प्रदान कर दिया।

यह ध्यान देने की बात है कि ‘मीर’ के समकालीन और काव्य-क्षेत्र में उन्हीं की-सी हैसियत रखने वाले मिर्ज़ा ‘सौदा’ की काव्य-रचना अपनी चमक-दमक के लिए प्रसिद्ध थी। इनके पूर्ववर्ती उस्तादों के यहां भी सीधी-सादी प्रेम-भावनाओं का वर्णन है। उनके बाद के ज़माने में भी शोखी और चंचलता उर्दू-शायरी का दामन छोड़ती नहीं दिखाई देती। लेकिन ‘मीर’ ने अपना करुणा का रंग सबसे अलग निकाला और इस प्रभाव के साथ अपनी बात कही कि सदियों तक लोगों के दिलों में गड़ी रहेगी। अपने इस रंग के बारे में उनका आत्मविश्वास बहुत बढ़ा-चढ़ा था और वे गम्भीरता को छोड़कर चंचलता का सहारा लेना पसन्द न करते थे। इस मामले में खुद जाकर किसी पर आपत्ति नहीं की, लेकिन जिन चंचलता के पृष्ठ-पोषक कवियों ने इनसे प्रोत्साहन चाहा उन्हें फटकार ही मिली। लखनऊ में थे तो उनके मकान पर मुशायरा हुआ करता था। उसमें एक दिन ‘ज़ुर्रत’ ने, जो नयी उठान के चंचलता-प्रिय कवि थे, अपनी ग़ज़ल पढ़ी जिसकी तत्कालीन रुचि के मुताबिक़ खूब तारीफ़ हुई। ‘मीर’ चुपचाप बैठे रहे। ‘ज़र्रत’ को मुशायरे में मिली प्रशंसा काफ़ी न मालूम हुई तो ‘मीर’ साहब के पास आकर बैठ गये और अपनी ग़ज़ल के बारे में उनकी राय जाननी चाही। ‘मीर’ साहब ने टालमटोल करनी चाही, लेकिन शामत के मारे ‘ज़ुर्रत’ पीछे पड़े गये। ‘मीर’ साहब त्योरी चढ़ा कर बोले, ‘‘कैफ़ीयत इसकी यह है कि तुम शेर तो कहना नहीं जानते हो, अपनी चूमाचाटी कह लिया करो।’’

इसी तरह सआदत यार खां ‘रंगीं’ जो रेख़्ती (ज़नानी बोली की लगभग अश्लील कविता) के जन्मदाता कहे जाते हैं, शायरी के शौक़ में ‘मीर’ साहब के पास गये। ‘मीर’ साहब का बुढ़ापा था और ‘रंगीं’ चौदह-पंद्रह बरस के, उस पर अमीरज़ादे। निहायत शानो-शौकत से पहुँचे। ‘मीर’ साहब उनका रंगढंग देखकर ही समझ गये कि कितने पानी में है। ग़ज़ल सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘साहबज़ादे आप खुद अमीर हैं, अमीरज़ादे हैं। नेज़ाबाजी, तीर-अन्दाज़ी की कसरत कीजिए, शहसवारी की मश्क़ फ़रमाइए। शायरी दिलख़राशी और जिग-सोज़ी का काम है, आप इसके दर पे न हों। सआदत यार ख़ाँ इस पर भी न माने और ग़ज़ल की इस्लाह पर जोर दिया। अब ‘मीर’ साहब ने कह दिया, आपकी तबीयत इस फ़न के मुनासिब नहीं, यह आपको नहीं आने का। ख़ामख़ाह मेरे और अपने औक़ात ज़ाया करना क्या ज़रुरी हैं।

शेख इमाम बख़्श ‘नासिख़’ के साथ भी यही क़िस्सा हुआ था, उन्हें भी ‘मीर’ ने शागिर्द बनाने से इन्कार कर दिया था।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि ‘मीर’ शायरी को सिर्फ़ मन-बहलाव की चीज़ नहीं समझते थे, बल्कि उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग मानते थे और दूसरों से भी ऐसी ही आशा करते थे।

Thursday, June 21, 2012

मीर तकी मीर

इश्क ही इश्क है जहां देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क
इश्क माशूक इश्क आशिक है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क
कौन मकसद को इश्क बिन पहुंचा
आरजू इश्क वा मुद्दआ है इश्क
दर्द ही खुद है खुद दवा है इश्क
शेख क्या जाने तू कि क्या है इश्क
तू ना होवे तो नज्म-ए-कुल उठ जाए
सच्चे हैं शायरां खुदा है इश्क
मीर तकी मीर (1723-1810) का जन्म आगरा के करीब एक गांव में हुआ था। बाद में वे दिल्ली चले आए। अफगान हमलावर अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली में जो कोहराम मचाया था, मीर उसके चश्मदीद गवाह थे।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘जिक्र-ए-मीर’ में इसका वर्णन भी किया है। उनके जीवन के अंतिम वर्ष लखनऊ में गुजरे, जहां मुफलिसी में उनकी मौत हुई। मीर ने प्रेम पर बहुत खूबसूरत शायरी लिखी है।

Sunday, June 17, 2012

चीनी चाय पीते हुए


चाय पीते हुए
मैं अपने पिता के बारे में सोच रहा हूँ।

आपने कभी
चाय पीते हुए
पिता के बारे में सोचा है?

अच्छी बात नहीं है
पिताओं के बारे में सोचना।

अपनी कलई खुल जाती है।

हम कुछ दूसरे हो सकते थे।
पर सोच की कठिनाई यह है कि दिखा देता है
कि हम कुछ दूसरे हुए होते
तो पिता के अधिक निकट हुए होते
अधिक उन जैसे हुए होते।

कितनी दूर जाना होता है पिता से
पिता जैसा होने के लिए!
पिता भी
सवेरे चाय पीते थे
क्या वह भी
पिता के बारे में सोचते थे-
निकट या दूर?

Saturday, June 16, 2012

raisina to malabar hills

कविता में ही सच लिखने को बचा है बाकी सब झूठ ही जी रहे है, रायसीना हिल से लेकर मालाबार हिल तक..............

Thursday, June 14, 2012

Life:Poem

जीवन

भम्र बना रहे,
तो ही बेहतर ।
जीवन का,
जीने का
साथ जीने वालों का ।
नहीं तो
भूत की चिंता,
भविष्य का प्रश्न,
वर्तमान को भी नहीं जीने देता ।
शायद इसलिए
जीवन में हमारे,
बहुत से शब्द
सिर्फ
शब्द बनकर रह जाते ।
कुछ का मतलब,
समझ पाते ।
कुछ बिन समझे ही ,
अपनाते ।

Sunday, June 10, 2012

Poem: last carriage of the train

After she'd leave,
i'd beam
in the dark.

My eye grew a cataract
a veil.
and all i saw was her
and all i did not see
was her.

... but
this time when she left
no one could see her.
not even me.

and now
each time i see
the tail lights flicker
on last carriage of the last train
till it is far and gone

i think if her.
( मित्र अरविंद जोशी का मेरी कविता "रेल का आखिरी डिब्बा" का अंग्रेजी अनुवाद )
(English translation by friend Arvind Joshi of my hindi poem)

Saturday, June 9, 2012

last carriage of the train

 रेल का आखिरी डिब्बा

उसके जाने के बाद
चेहरा फिर भी चमक जाता था
अंधेरे में मेरे ।

न जाने आंखों को,
कौन सा मोतियाबिंद था
हर तरफ वहीं दिखती थी ।
बिना देखे,
मन को ।

पर
इस बार जो गुम हुआ,
दुनिया के मेले में
मुझे तो क्या
किसी को भी नहीं दिखा
भीड़ के रेले में ।

अब
जब भी कभी,
स्टेशन से गुजरती रेल के आखिरी डिब्बे की लाल बत्ती
दूर ओझल होने तक टिमटिमाती है
तो मुझे अनायास
फिर
उसकी याद आती है ।

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...