झारखण्ड-छत्तीसगढ़ के सीमान्त पर, अरण्य में अब भी आलिंगनबद्ध युगल की शैलाकृति है। उपर्युक्त दन्तकथा के आधार पर, लोकमान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के मिलन के महान आदिवासी वसन्तोत्सव पर्व ‘सरहुल’ की रात में इस कृष्णवर्ण शैलाकृति पर चिंया (इमली के बीज ) घिसकर पीने से मनचाहा जीवन-साथी मिलता है। मनोवांछित सन्तान की प्राप्ति होती है। अन्न, धन एवं पशु सुरक्षित रहते हैं। रोग, शोक, दुःख, ताप आदि दूर रहते हैं। ‘बुरी छायाएँ’ सिर के आकाश पर तैरने से परहेज रखती हैं।सन्ताल जाति की उत्पप्ति हाँस-हाँसिल नामक पक्षी-युगल के अण्डे से ‘हिहिड़ी–पिपिड़ी’ नामक किसी स्थान पर हुई। ‘खोज कामान’ में आकर सन्तालों को उनकी पहचान मिली।’ ‘हराराता’ के पहाड़ों में सन्तालों के आदिपुरूष ‘पिलचु हड़ाम’ तथा आदि नारी ‘पिलचु बूढ़ी ने वंशवृद्धि की। ‘सासाङ बेड़ा’ नामक स्थान पर पहुँचकर सन्ताल जाति का विभिन्न गोत्रों में विभाजन हुआ।
(-एक पौराणिक सन्ताली कथा)
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