सुनना चाहेंगे इस दिए का इतिहास? तो पहले रोमक इतिहासकार प्लिनी का रुदन सुनिए। भारतवर्ष में सिमिट कर भरती हुई स्वर्ण-राशि को देखकर बेचारा रो पड़ा था कि भारत में रोमक विलासियों के कारण सारा स्वर्ण खिंचा जा रहा है, कोई रोक-थाम नहीं।
उस दिन भी भारत में श्रेष्ठी थे और थे श्रेष्ठिचत्वर, श्रष्ठि-सार्थवाह और बड़े-बड़े जलपोत, बड़ी-बड़ी नौकाएँ और उनको आलोकित करते थे बड़े-बड़े दीपस्तंभ।
स्कंदगुप्त का सिक्का 146 ग्रेन का था, कब? जबकि भारतवर्ष की समस्त शक्ति एक बर्बर बाढ़ को रोकने में और सोखने में लगी हुई थी। 146 ग्रेन का अर्थ कुछ होता है…
आज के दिए को टिमटिमाने का बल अगर मिला है तो उस जल-विहारिणी महालक्ष्मी के आलोक की स्मृति से ही, और भारत की महालक्ष्मी का स्रोत अक्षय है, इसमें भी संदेह नहीं।
बख्तियार खिलजी का लोभ, गजनी की तृष्णा, नदिरशाह की बुभुक्षा और अंग्रेज पंसारियों की महामाया के उदर भरकर भी उसका स्रोत सूखा नहीं, यद्यपि उसमें अब बाहर से कुछ आता नहीं, खर्च-खर्च भर रह गया है।
हाँ, सूखा नहीं, पर अंतर्लीन आवश्य हो गया है और उसे ऊपर लाने के लिए कागदी आवाहन से काम न चलेगा। कागदी आवाहन से कागदों के पुलिंदे आते हैं, सोने की महालक्ष्मी नहीं।
आज जो दिया अपना समस्त स्नेह संचित करके यथा-तथा भारतीय कृषक के तन के वस्त्र को बाती बनाकर टिमटिमा रहा है, वह इसी आशा से कि अब भी महालक्ष्मी रीझ जायँ, मान जायँ।उसका आवाहन कागदी नहीं, कागद से उसकी देखा-देखी भी नहीं,जान-पहचान नहीं, भाईचारा नहीं; उसका आवाहन अपने समस्त हृदय से है, प्राण से है और अंतरात्मा से है।
इस मिट्टी के दिए की टिमटिमाहट में वह शीतल ज्वाला है, जो धरती के अंधकार को पीकर रहेगी और बिजली के लट्टुओं पर कीट-पतंग जान दें या न दें, यह शीतल ज्वाला समस्त कीट-पतंगों की आहुति ले के रहेगी।
चलिए, केवल शहर के अंदेशे से दुबले न बनिए, तनिक देहात की भी सुधि लीजिए।
दिया टिमटिमा रहा है: विद्यानिवास मिश्र
Source:http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=4765&pageno=1
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