पश्चिम की स्वीकार्यता को लेकर परेशान भारतीय मेधा-प्रतिभा !
याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी ने लड़ी थी। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है।
मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था।
भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में इसे कहूं तो,
यह कि तेरी भर न हो तो कहऔर सादे ढंग से बहते बने तो बहजिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिखऔर इसके बाद भी/हमसे बड़ा तू दिख।
(कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के हो-हल्ले पर)
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