Thursday, October 16, 2014

Delhi and Cinema (दिल्ली और सिनेमा का अटूट रिश्ता)


दिल्ली से सिनेमा का संबंध मूक फिल्मों के दौर जितना पुराना है। सन् 1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही यहाँ अनेक सिनेमाघर खुलें जो कि दिल्ली में बढ़ती अंग्रेजों की आबादी के लिए हाॅलीवुड की फिल्में दिखाते थे।

उसके बाद भारतीय फिल्मों की षुरूआत के साथ यहां फिल्मी दर्शकों का एक बाजार तैयार था। ऐसे में, दिल्ली उत्तर भारत में इन फिल्मों का एक बड़े वितरण केंद्र के रूप में उभरी।
सन् 1925 के करीब बाॅम्बे टाकीज के संस्थापक हिमांशु राॅय ने अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित "लाइट आॅफ एशिया" नामक फिल्म के निर्माण का अपना अभिनव प्रयास शुरू किया।
हिमांशु राॅय ने इस फिल्म के लिए आवश्यक वित्तीय साधन जुटाने के लिए दो साल कड़ी मेहनत की और इस दौरान अंग्रेज सरकार, भारतीय राजे रजवाड़ों से लेकर मंदिर के ट्रस्टों तक को संपर्क किया पर उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अंत में, दिल्ली के स्थानीय वकीलों, जजों और अन्य पेशेवरों ने राॅय की फिल्म परियोजना के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से एक बैकिंग काॅरपोरेशन की स्थापना की।
देश में फिल्मों के प्रादुर्भाव के साथ ही नवोदित युवा कलाकार प्रसिद्ध दिल्ली घराने के उस्तादों (शिक्षकों) से संगीत और नृत्य सीखने के लिहाज से दिल्ली आने लगे। तीस के दशक के आरंभ में मल्लिका पुखराज नृत्य सीखने दिल्ली आई। उल्लेखनीय है कि उस दौर की हिंदी फिल्मों में संवाद के स्तर पर उर्दू का ही बोलबाला था और गीत हर फिल्म का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे।
लंबे समय तक फिल्मी दुनिया में ऐतिहासिक फिल्मों का दबदबा होने के कारण "मुगल भारत" एक पसंदीदा विषय था और दिल्ली में शानदार मुगलिया इमारतों और स्मारकों के कारण फिल्म निर्माता दिल्ली में फिल्म के दृश्यों के फिल्मांकन के लिए आकर्षित रहते थे। हाल यह था कि दिल्ली के ऐतिहासिक मुख्य बाजार "चांदनी चौक" और "नई दिल्ली" के नाम ही फिल्मों का निर्माण हुआ। इसी तरह, ऐतिहासिक शहर दिल्ली से जुड़ी अन्य फिल्में भी बनीं, जिनमें 'हुमायूं', 'शाहजहां', 'बाबर', 'रजिया सुल्तान', 'मिर्जा गालिब' और '1857' प्रमुख हैं।
इतना ही नहीं, दिल्ली ने फिल्मी दुनिया को युवा प्रतिभावान कलाकार भी दिए। इनमें सर्वप्रमुख, शमशाद बेगम की बेटी नसीम बानो थी। सन् 1920 से लेकर 30 के दशक तक दिल्ली के मनोरंजन जगत में गायिका नसीम बानो का एकछत्र साम्राज्य था। ऐतिहासिक फिल्मों के सर्वकालिक निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की क्लासिक फिल्म 'पुकार' में नूरजहां की यादगार भूमिका निभाने के साथ ही निहायत खूबसूरत और दिलकश नसीम बानो एक चमकता सितारा बन गई। इसी तरह से, 1940 के दशक के सितारा अभिनेता मोतीलाल भी दिल्ली के रहने वाले थे, जिन्होंने फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुंलदियों को छुआ। सदाबहार पार्श्व गायक मुकेश भी दिल्ली के ही बाशिंदे थे, जिनके गाए सदाबहार गीत आज भी आम जनता की जुबान पर हैें।
हिंदी फिल्म दुनिया, संगीत के क्षेत्र में भी दिल्ली की ऋणी है। कव्वाली के जन्मदाता अमीर खुसरो की कर्मभूमि भी दिल्ली ही थी। दिल्ली संगीत घराने की देन ठुमरी, दादरा और गजल भी हिंदी फिल्मों का अटूट हिस्सा बनी।

दिल्ली के दरबारियों के यहां आयोजित होने वाले मुजरा कार्यक्रमों के सजीव किस्सो ने अनेक फिल्म निर्माताओं को प्रसिद्ध गायकों और नृतकों के जीवन पर आधारित फिल्मों के निर्माण के लिए प्रेरित किया। इसी का नतीजा था कि फिल्मों में लोकप्रिय मुजरा दृश्यों को समाहित किया गया, जिसमें नृतकियां अपने शानदार लिबास, मधुर गायन और सम्मोहक नृत्य से देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती थी।

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