लियोनार्डो-द-विंसी ने एक बार कहा था ‘जल प्रकृति का वाहक है।’
पृथ्वी की 3/4 सतह पर पानी होने के बावजूद केवल एक प्रतिशत पानी पीने योग्य है तथा इसका बड़ा हिस्सा पहले ही दूषित हो चुका है। इसके साथ ही, नदियां सूख रही हैं तथा भूजल का अधिक दोहन हो रहा है। जहां पानी है, वहीं जीवन है तथा जहां पानी नहीं है, वहां जीवन नहीं है।
भारत में जल लोगों में श्रद्धा जगाता है। इसे ‘वरुण’ नामक देवता का अवतार माना गया है, जिन्हें जल के सभी स्वरूपों के देवता के रूप में पूजा जाता है। भारत में दुनिया की सतरह प्रतिशत जनता रहती है परंतु, यहां विश्व का केवल चार प्रतिशत पानी उपलब्ध है।
देश के अधिकांश हिस्सों में नियमित रूप से पानी को लेकर हालात चिंता का विषय है। ऐसे में पानी का संरक्षण, संतुलित वितरण तथा प्रयुक्त जल का फिर से उपयोग पर अनिवार्य रूप से ध्यान दिये जाने की जरूरत है।
हमें इसके लिए जल की उपलब्धता में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने की दिशा में प्रयास करने होंगे। इतना ही नहीं, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच जल के बंटवारे में समानता लानी होगी। आज समय की मांग है कि जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाने की जरूरत है।
आज एक भारी चुनौती रूप ले चुकी जल सुरक्षा की समस्या के भविष्य में और बढ़ने के आसार है। ऐसे समय में जब हम घटते जल संसाधनों तथा जल की बढ़ती मांग से जूझ रहे हैं, जल संरक्षण से ही लाभ हो सकता है। आज ‘जल को बचाना ही जीवन बचाना है’ नामक कहावत पहले से कहीं अधिक सटीक बैठती है।
देश की राष्ट्रीय जल नीति 2012 में जल संसाधनों के उपयोग में सुधार की जरूरत को स्वीकार किया गया था। जबकि इससे पहले जल का उपयोग और उसके प्रबंधन पर ध्यान दिए बिना उपलब्ध जल की मात्रा बढ़ाने पर ध्यान दिया गया। इसलिए अब ‘जल संसाधन विकास’ से 'जल संसाधन प्रबंधन’ की दिशा में बदलाव किया जाना जरूरी हो गया है।
जलवायु परिवर्तन का खतरा वास्तविक और सामयिक है। जल प्रवाह में बदलाव, भूमिगत जल में कमी, बाढ़ और सूखे की घटनाओं के बढ़ने और समुद्र के किनारों पर खारेपानी के घुसने के कारण जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर भारी दुष्प्रभाव पड़ने की आशंका है। इस चुनौती का सामना जल प्रबंधन और संरक्षण से ही किया जा सकता है। 2011 में देश में राष्ट्रीय जल मिशन के तहत जल संरक्षण, जल की बर्बादी में कमी लाने और समतापूर्ण वितरण का काम शुरू किया गया था।
भारत में खेती में सबसे अधिक पानी का उपयोग होता है। तेजी से हुए शहरीकरण और शहरों में पानी की मांग ने पानी को गाँव से शहरी नागरिकों की ओर भेजने के लिए मजबूर कर दिया है, जिससे गाँव और शहर में होड़ पैदा हुई है। जल संसाधनों में बदलाव न होने के कारण भविष्य में पानी के उपयोग को लेकर गाँव और शहर में प्रतिस्पर्धा के बढ़ने की संभावना है। इस परिस्थिति के समाधान के लिए दोनों के बीच पानी के उचित बंटवारे की जरूरत है।
हमारे देश में कृषि के लिए जल की सबसे ज्यादा मांग है। सबको अन्न उपलब्ध करवाने के लिए खेती में उचित जल प्रबंधन आवश्यक है। हमें अपनी सिंचाई प्रणाली में जल के उचित प्रयोग को प्रोत्साहन, उपयोग किए गए पानी को संशोधित करके दोबारा उपयोग में लाने के प्रयासों को बढ़ाना होगा।
देश में घटते भूजल के स्तर को रोकने के लिए सही प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा। मौजूदा ग्रामीण विकास योजनाओं के साथ जोड़कर वर्षा जल संचयन को लोकप्रिय बनाना होगा। साथ ही मिट्टी में नमी बढ़ाना, नदी-तालाबों के किनारे पेडों की कटाई में कमी लाना और पानी की उत्पादकता में सुधार की दिशा में कोशिश करनी होगी।
उपयोग योग्य जल एक दुर्लभ वस्तु है। इसको देखते हुए पानी की कीमत इस तरह रखनी होगी कि समाज में पानी की बचत के लिए प्रोत्साहन और बर्बादी के लिए दंड की व्यवस्था की भावना हो।
आधुनिक विकास के हिसाब से पूरी दुनिया में सुरक्षित पीने के पानी की व्यवस्था एक गंभीर पहल बन चुकी है। मनुष्यों की काफी बड़ी जनसंख्या की, इस बुनियादी जरूरत तक पहुंच नहीं हो पाई है। सुरक्षित पेयजल तक गरीबों की पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए बाजार, प्रौद्योगिकी और सरकार को काफी प्रयास करने होंगे। देश में सुरक्षित पेयजल की सामूहिक खपत को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय संस्थानों की भी मदद लेनी होगी।
भारत में पानी को लेकर मौजूदा कानूनी ढांचा इस जटिल जल परिस्थिति से निबटने के लिए असमान तथा अपर्याप्त है। पानी को लेकर सरकारी नीतियों और नियमों को स्पष्ट और सारगर्भित बनाने की भी जरूरत है। तभी भारत में मुंह बाएँ खड़ा पानी का संकट को कम किया जा सकता है।
महात्मा गांधी का कहना था, ‘धरती मां के पास हमारी जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त है परंतु लालच के लिए नहीं।’ वह एक ऐसा हिंद स्वराज स्थापित करना चाहते थे जो ‘लालच से जरूरत की ओर’ के सिद्धांतों पर आधारित हो। आज प्रकृति पर विजय से हटकर प्रकृति से सहयोग पर आधारित सोच होने की जरूरत है।
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