यह एक इतिहास सम्मत तथ्य है कि राजधानी के रूप में दिल्ली के स्थान को यमुना के आकर्षक स्वरूप और पेयजल के लिए मीठे पानी की उपलब्धता के कारण चुना गया था। इतना ही नहीं, यमुना ने एक शहर के रूप में राजधानी के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लगभग सभी ऐतिहासिक विवरणों में दिल्ली के एक प्रमुख संसाधन के रूप में यमुना की सुंदरता का उल्लेख है।
दिल्ली में जमीन का ढलान और यमुना नदी के बहाव दोनों ही उत्तर से दक्षिण की ओर हैं। उत्तर भारत की प्राचीनतम नदियों में से एक यमुना अधिकांश उत्तर प्रदेश के साथ दिल्ली की पूर्वी सीमा रेखा के रूप में बहती है। यमुना नदी दिल्ली में पल्ला गांव से प्रवेश करती है और ओखला के पास जैतपुर में दिल्ली छोड़ देती है। दिल्ली में आने से पहले ही यमुना नदी से दो नहरें निकालने के कारण दिल्ली के मैदानी भाग में यह एक पतली धारा के रूप में बहती दिखती है, जिसे सिवाय बारिश के मौसम को छोड़कर सभी जगह से पार किया जा सकता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से प्रकाशित पुस्तक "रिवर ऑफ़ लव इन द ऐज ऑफ़ पाल्यूशन, द यमुना रिवर ऑफ़ नाॅदर्न इंडिया" (प्रदूषण के समय में प्रेम की सलिला, उत्तर भारत की यमुना नदी) में डेविड एल हैबरमैन ने दिल्ली के पारिस्थितिकी तंत्र और धार्मिक आस्था से उपजे द्वंद को रेखांकित किया है। यह एक रूप में, सदियों से एक देवी के रूप में पूजनीय, भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमिका के रूप में प्रसिद्ध और अपने अनन्य भक्तों का एक क्षमाशील माँ के रूप में पोषण करने वाली यमुना नदी की उपेक्षा की कथा है। इसमें औद्योगिक और मानव जनित कचरे के साथ आर्थिक और जनसांख्यिकीय विकास तथा मानवीय लापरवाही का योगदान जगजाहिर है। दूसरे शब्दों में, यमुना की यह दुर्दशा भारत सहित दुनिया के दूसरे देशों में जल स्त्रोतों के साथ किए गए धतकरम से जुदा नहीं है। वह भी तब जब हिंदू विचार और व्यवहार में नदी उपासना-भक्ति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। समझने वाली बात यह है कि हैबरमैन ने इस समूचे विमर्श में स्थानीय समाज की धार्मिकता की बात को गौण नहीं होने दिया है।
हिन्दू पौराणिक आख्यानों के अनुसार, यमुना को “यम की बहन” यानि “मृत्यु के देवता की बहन” माना जाता है। हैबरमैन ने “रिवर ऑफ डेथ” शीर्षक वाले अध्याय में नाटकीय रूप से इस पौराणिक और व्युत्पत्ति संबंधी कड़ी को सुलझाने का प्रयत्न किया है। पुस्तक में हैबरमैन ने जिस विस्तृत रूप से नदी के प्रदूषण और उसकी जलधारा के शोषण की आधुनिक कथा को प्रस्तुत किया है, वह पाठकों के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से विचलित कर देने वाला प्रसंग है।
लेखक, जब उन्होंने पहली बार यमुना नदी को देखा था, ने पाठकों के समक्ष तुलनात्मक रूप से आज की स्थिति और 1980 के दशक के आरंभ वाले समय में यमुना नदी के साथ अपनी मधुर स्मृतियों का विवरण दिया है। तब विशाल कछुए, पानी में उछलती मछलियां और कई जलपक्षी सभी पनप रहे थे और तब तैराकी तन-मन को आनंद देने वाली बात थी न कि जल प्रदूषण के कारण अकल्पनीय रूप से जान-जोखिम काम। दिल्ली और ब्रज, कृष्ण भक्ति और तीर्थयात्रा का सबसे पवित्र क्षेत्र, से सबसे अधिक कचरा सीधे जलधारा में आकर गिरता है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए हैबरमैन लिखते हैं, यह विडम्बना की बात है कि नदी का सर्वाधिक प्रदूषित भाग वह क्षेत्र है, जहां पर यमुना को लेकर धर्मशास्त्र और पूजा-अर्चना की सर्वव्यापकता का विकास हुआ है।
पुस्तक के अनुसार, हमेशा से हालात इतने बुरे नहीं थे। दिल्ली के लंबे समय से रहने वाले अनेक निवासियों के मन में एक नदी, जो कि अब पहले के समान नहीं है, की सुखद स्मृतियां हैं। मैं (हैबरमैन) अपने दिल्ली प्रवास में जिस होटल में अधिकतर ठहरता था, उसके साठ बरस के मालिक मोहन शर्मा ने एक सुबह मुझे नदी से जु़ड़े अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने आंखों में खुशी और चेहरे पर मुस्कान के साथ मुझे 1950 के दशक की शुरुआत में दिल्ली की यमुना में तैरने की बात कही। उन्होंने बताया कि वे अपने भाइयों के साथ नदी तक साइकिल चलाकर आते थे और पानी में तैरते थे तथा उसके बाद रेतीले तट पर कुश्ती और खेल खेलते थे। इतना ही नहीं, पानी साफ और आसमान नीला होता था।
हैबरमैन के साथ काम करने वाली दिल्ली की एक संपादक कृष्णा दत्त ने पुस्तक में नदी को लेकर अपनी जवानी के दिनों को याद किया। 1940 और 1950 के दशक में वह एक जवान लड़की के रूप में, अपने अपने परिवार के साथ पिकनिक के लिए यमुना के किनारे पर जाती थी। कृष्णा ने उन्हें (हैबरमैन) अपनी धर्म-कर्म करने वाली अपनीे मां और नदी की बात बताई। उनकी मां एक अत्यंत धार्मिक महिला थी, जो कि अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप, त्यौहारों के पवित्र दिनों में यमुना में स्नान करती थी। कृष्णा ने नदी के किनारे रहने वाली गहन शांति और मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हुए बताया कि तब दिल्ली में रहने वाले अनेक परिवार अपने सदस्यों के साथ मनोरंजन के लिहाज से नदी में तैराकी का आनंद लेते हुए अपना समय बिताते थे।
पुस्तक में एक ऐसी ही एक कहानी, दिल्ली में यमुना के जल की स्थिति में सुधार की दिशा में कार्यरत एक गैर-सरकारी संगठन पानी मोर्चा के संस्थापक कमांडर सुरेश्वर सिन्हा की है। वे 1940 के दशक के अंत से लेकर 1960 के दशक के आरंभ तक दिल्ली में एक युवा नौसेना अधिकारी के रूप में तैनात थे। वे राष्ट्रीय नौसेना तैराक दल (नेशनल नेवल सेलिंग टीम) के सदस्य थे, और उन्हें तब कि दक्षिणी दिल्ली में ओखला स्थित यमुना में तैराकी की मधुर स्मृतियों का पूरा तरह स्मरण है। वे उन दिनों नदी की सुंदरता को याद करते हैं जब वे यमुना में होने वाली नौकादौड़ स्पर्धाओं, जिनमें बड़ी संख्या में रंग-बिरंगी नौकाएं शामिल होती थी, में भाग लेते थे।
बकौल सिन्हा, मैं आपको बता नहीं सकता कि 1970 के दशक तक भी नदी कितनी साफ और सुंदर हुआ करती थी। अनेक दिल्लीवासी पिकनिक मनाने के लिए आते थे और नदी के किनारों पर पूरा दिन बिताते थे। सिन्हा ने हैबरमैन को बताया कि एक मौके पर वे नाव सहित नदी में डूब गए थे। इस कारण उनके पेट में अनायास काफी पानी चला गया था, जिसे उन्होंने बाहर किनारे आकर निकाला। उन्होंने नदी में डूबने और पेट में पानी जाने की घटना को एक सुखद अनुभव करार दिया। आज यह विश्वास करना कठिन है कि नदी और समाज में अपनत्व का ऐसा भी एक समय था।
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दैनिक जागरण, ११/०४/२०२०
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