चित्र: शकुंतला_राजा रवि वर्मा |
हिन्दी साहित्य की उम्र दराज रुदालियाँ जब रोती हैं तो मजेदार है कि आंसू एक नहीं गिरता है।
जीवन कितना क्षणिक और तृष्णाएं-वासनाएं कितनी स्थायी!इस क्षणभंगुरता को नकारात्मकता और नैराश्य का भाव और अर्थहीन बना देता है.आखिर मृत्यु से बड़ी सीख क्या है?एक हम है कि विपरीत दिशा में नैया को खेने में ही जीवन निस्सार कर रहे हैं! 16082020
कभी जिन्दगी हीहमें अचानक छोड़ देती है,बिना अपना पता बताएं!देश कुशल बहुतेरे।जब दूसरे को पतित बताने वाले स्वयं ही कीच धंसे हैं तो फिर ऐसे में किसी के कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता!
जीवन के रेगिस्तान में पिता ही संतान का सबसे बड़ा ध्रुव तारा होता है जो दिशाहीन होकर भटकने नहीं देता।
जीवन के प्रति इच्छा यानि जीवेष्णा ही मुख्य है जो विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति को जिलाए रखती है। शेष मृत्यु के समक्ष तो इलाज और डाक्टर सब, अर्थहीन और निरूपाय हो जाते हैं। बाकी बातें हैं, बातों का क्या!
अपन तो कबाड़ी है, बचपन से कतरन और किताबों को जुटाने का भूत सवार रहा है। इन्हीं में से गिलहरी की तरह थोड़ा-थोड़ा कुतरकर पढ़ते जाते हैं। अगर कोई बात लगती है कि मित्रों से बरती जाएं तो बता देते हैं। आखिर कौन ज्ञान से भारी होकर जाना है, जितना जीवन सहज रहेगा तो शरीर से प्राण भी आसानी से छूटते है।लिखने का कम और पढ़ने का ज्यादा शौक है। बाकी किताबें जुटाना तो मानो मृगतृष्णा के समान है। जितनी एकत्र करो, कम लगती है। बाकी कुछ नहीं तो अंतिम समय में लकड़ी की जगह ही काम आ जाएंगी। वैसे अब तो सीएनजी से फूंकना भी आसान हो गया है। सही में, कोरोना ने सभी को जीवन की क्षणिकता और अपने सामथ्र्य की सीमा का भान करवा दिया है। (14/06/2020)
सच में हर परिस्थिति में जूझने की ताकत ही नए मार्ग प्रशस्त करती है. शेष विश्व तो सहज ही किसी लायक मानने को तैयार नहीं होता. हम अपना आकलन ऐसे करते है कि हम क्या कर सकते है जबकि दूसरा हमारा आकलन ऐसे करते हैं कि अभी तक हमने क्या किया है. सो, ऐसे में भविष्यमूलक और इतिहासमूलक दृष्टिकोणों का मूल अंतर को सही से समझने की जरुरत है. जो समझ जाते हैं, वे आगे बढ़ जाते हैं, बाकि बीच रास्ते में ही विचलित होकर भटककर अटके रह जाते हैं. वैसे भी वेदों (ऐतरेय ब्राह्मण) में कहा गया है कि चरैवेति-चरैवेति यानि लगातार चलते रहना ही धर्म है. ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की ऋचाओं पर आधारित वैदिक कर्मकांडों से संबंधित ग्रंथ है । उसमें एक कथा का उल्लेख है इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चन्द्र और उनके पुत्र रोहित से संबंधित । उस कथा में पांच श्लोकों का उल्लेख है, जिनके अंतिम चरण का अंत “चरैवेति” से होता है ।सो, नियमित रूप से अपने काम की निरंतरता ही इच्छित लक्ष्य तक पहुंचाती है. नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)
उसके मुंह अपनी तारीफ सुनना मुझे अच्छा लगता है कि मैं सुंदर हूँ आकर्षक हूँ या ऐसा ही बहुत कुछ। पर हकीकत यह है कि मुझे कुछ कहने-सुनने से ज्यादा यह बात पसंद है कि मेरी वजह से उसके लिए जिंदगी जीने लायक है, उसे मेरे होने-भर से बेहिसाब खुशी मिलती है। यह अजीब पर सच है कि उसको नहीं पता कि वह मेरे बिना क्या करेगी! मेरा वजूद ही, मेरी पहचान है, ताकत है। शायद इसी कारण, उसे लगता है कि हम कभी जुदा नहीं होंगे। उसे मुझ पर खुद से ज्यादा भरोसा है कि मेरे पास उसको देने के लिए सब कुछ है।
जिंदगी में, तारीफ हमेशा आपके होने की ही नहीं होती है। वैसे, होने और न होने में 'न' भर का ही फर्क होता है।
माटी के पुतले की बाहर गई सांस को अगर बाहर से भीतर की सांस का साथ न मिले तो सब ख़त्म। यह होता है सांसों का साथ, एक-दूसरे के सदा होने और साथ में चलने का भरोसा। यह जीवन है। (18/04/2020)
मन भी अजीब है।न जाने, अनजाने के पीछे ही क्यों भागता है।जानने वाला जो जानकर भी अपना नहीं होता, उसे याद रखता है।न जानने वाला जो अपना हो जाता है, उसे भूल जाता है। पता नहीं, यह आदमी की सोच है या कोशिश।जिन्दगी में सब कुछ अपने हिसाब से होता नहीं है।फिर भी हम है कि हिसाब ही रखते हैं, जिंदगी को भूल जाते हैं।जब अनचाहे या मजबूरी में याद करते हैं, बीते हुए पल तो आंखे भारी हो आती हैं और वक्त पहाड़ सा हो जाता है।वह जिंदगी जो कभी लगती नहीं थी कि गिनने की जरूरत होती है, लम्हों को।वहां लम्हे भी ऐसे कटते हैं, मानो हैंडब्रेक लगाकर गाड़ी चला रहे हो पूरी गति से।आखिर जिंदगी की गति कहां सम होती है और कहां विषम, इतना कौन लेखा जोखा रखता है। (18/04/2020)
सदा के लिए महानगर-शहर में रच-बसने के बाद भी पता गांव बस याद भर का ठिकाना होता है। चाहे संबंध के नाम पर चाहे सुविधा के नाम पर कोई भी लौटता नहीं। इस कभी न लौटने की क्षतिपूर्ति पढ़े-लिखे किस्सा-कहानी, संस्मरण-रिपोतार्ज लिखकर पूरी कर लेते हैं। कुछ साहित्यिक प्रेमचन्द का नाम भी लेते हैं तो कुछ निर्मला का भी। मानो हुए तो नेहरू पर गांधी का नाम पुछल्ले की तरह अपने साथ लगाएं रखा ताकि अपने बाद वाले भी शहर में अकड़ के साथ रहे सकें, गांव को एक बेचारी याद बनाकर।
जिन्दगी में किसी को कभी न लौटकर आने वाले व्यक्ति को दी जाने वाली विदाई सदैव मौन होती है। यह देह-मन पर एक अमिट छाप की तरह रह जाती है, जो चिता पर ही मिटती है।
मां जैसा कोई नहीं। जीवन की प्रथम गुरु वही होती है।
अब तो सारे टीवी चैनल और अखबार पूरी तमन्यता से बाबा का विज्ञापन चला रहे हैं। कई जगह तो प्राइम टाइम को बाबा की कंपनी के उत्पाद प्रायोजित कर रहे हैं। ऐसे में, सब माया के भक्त बनकर लाइन में कीर्तनिए बने हुए हैं। ऐसे में कोई अंगुली नहीं उठा सकता!
मैं स्वयं की सीखने में लगा हूं। बस नियमित पढ़ने के साथ लिखने का भी एक सिलसिला बनाना जरूरी है। एक बार सध गया तो फिर लेखन की सवारी पूरी दुनिया की सैर तो करवा ही देती है। सबसे महत्वपूर्ण स्वयं से मिला देती है। बाकी पढ़ने वाले लिखना तो जानते ही है, बस अपने से लिखने के आलस से निकलना भर होता है।
हरेक की जिन्दगी में एक ऐसा पल आता है। जब सब तरफ से उम्मीदों की खिड़कियां और मदद के दरवाजे बन्द हो जाते हैं। हम जिन्हें सहारा और स्थायी समझे थे, सबसे पहले वे ही साथ छोड़कर निकल जाते हैं। जीवन बाहर से ही समाप्त नहीं होता, भीतर भी एक शून्य पैदा हो जाता है। मानो एकाएक अपने होने की व्यर्थता का बोध होता है। फिर लगता है कि इस धरती पर किसलिए हैं, इस संत्रास और पीड़ा के लिए! कितना कुछ होता है मन में। फिर भी मुंह के बोल नहीं फूटते, अबोल का ही मौन पसरा होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार समझकर भी नहीं समझना चाहता। दुनिया मानती है कि आप हो क्या। इस होने न होने के द्वन्द में संबंध, संबोधन और सहजता सब तिरोहित हो जाते हैं। ऐसे में प्रकृति के पांच तत्व अपने मूल स्वरूप का ज्ञान करवा देते हैं! मानो कोई पहली बार धरती, हवा, पानी, आग, आसमान के अस्तित्व को जाना-समझा हो।
अरे बन्धु, ऐसा कुछ नहीं है। भगवान किसी-किसी की कुंडली बस साधना की बना देता है जबकि कुछ जीवन भर साधने में लगे रहते हैं। सो, अपन तो अपनी धार को ही सान पर चढाए रखते हैं पता नहीं कब, कहां, किसके काम आ जाएं। अपने मन के अनुरूप कार्य ईश्वर कम को ही प्रदान करता है। इसी को वरदान मानकर आनन्द से है।(रोहित, श्रान्ताय नाना श्रीः अस्ति इति शुश्रुम,नृषद्वरः जनः पापः, इन्द्रः इत् चरतः सखा, चर एव इति ।)अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) । (20/04/2020)
जीवन कितना क्षणिक और तृष्णाएं-वासनाएं कितनी स्थायी!
इस क्षणभंगुरता को नकारात्मकता और नैराश्य का भाव और अर्थहीन बना देता है.
आखिर मृत्यु से बड़ी सीख क्या है?
एक हम है कि विपरीत दिशा में नैया को खेने में ही जीवन निस्सार कर रहे हैं! 16082020
1 comment:
सार्थक चिंतन।
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