Saturday, April 4, 2020

History of Communicable Diseases in Delhi_दिल्ली में संचारी रोगों का इतिहास

04042020, दैनिक जागरण 



आजादी की पहली लड़ाई (1857) में दिल्ली को जीतने के बाद अंग्रेजों के लिए शहर के सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार एक बड़ी चिंता का विषय बन गया था। स्वच्छता और सुरक्षा के नाम पर शहर के लगभग एक तिहाई हिस्से को ध्वस्त कर दिया गया। परोक्ष रूप से, नए विदेशी शासकों ने देसी शहर को एक रोगग्रस्त जीव के रूप में देखा, जिसके बुरे प्रभाव को रोकने और कम से कम करने की जरूरत थी। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में रहस्यमयी बीमारियों और मृत्यु की धारणा, सैनिकों के स्वास्थ्य की चिंता और सभ्य बनाने का राजनीतिक एजेंडे इन सभी बातों ने दिल्ली में स्वच्छता सुधार नीतियों को आकार देने में सहायक भूमिका निभाई।


तब दिल्ली में हैजा, मलेरिया और दिल्ली 'सोर' का जोर था, जिसके बारे में माना जाता था कि ये पूरी तरह से जल-जनित संक्रामक रोग हैं जो कि बहते पानी, कुएं के खारे पानी और तालाबों के रूके हुए पानी के माध्यम से फैलते हैं। इसी बात की पुष्टि करते हुए उर्दू के मशहूर शायर और दिल्लीवासी मिर्जा गालिब 1860-61 के अपने एक पत्र में लिखते हैं "कारी का कुंआ सूख गया है। लाल डिग्गी के सारे कुंओं का पानी अचानक पूरी तरह खारा हो गया है। अगर कुएं खत्म हो जाते हैं और ताजा पानी मोती के समान दुर्लभ हो जाता है तो यह शहर कर्बला की तरह एक उजाड़ में बदल जाएगा।" इससे यह साफ होता है कि यह केवल पानी की उपलब्धता ही नहीं बल्कि बचे हुए पानी की गुणवत्ता की बात थी।


1860 के दशक तक, खुले नालों और महामारियों से निपटने में दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के खिलाफ याचिकाएं दायर होने लगी थीं। यहां तक कि दिल्ली में सफाई के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक के संबंध में भी सफाईकर्मी अपना विरोध दर्ज करवाने लगे थे। एक महामारी की घटना के दौरान नगर पालिका अपने नियमों को पूरी तरह से लागू करने में विफल रही।


उल्लेखनीय है कि 1840 के दशक में भारत में तपेदिक के रोग का आगमन हो चुका था और इसके कारण प्लेग या हैजे की बीमारी से अधिक व्यक्तियों की मौत हुई थी। फिर भी इस बीमारी की रोकथाम के उपायों के लिए धन की व्यवस्था करने के काम में ढिलाई थी। इस बीमारी की मार से सरकार या अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होने के कारण इसके लिए पैसों का प्रबंध करने पर कतई ध्यान नहीं दिया गया।


इतना ही नहीं, वर्ष 1869 में दिल्ली में बड़े पैमाने पर फैली चेचक की बीमारी के दौरान म्युनिसिपल कमिश्नरों पुलिस शक्तियां न होने के कारण यमुना नदी के किनारे मृतकों के शवों को छोड़ने वालों को दंडित देने में अक्षम साबित हुए। उल्लेखनीय है कि अप्रैल 1871 में, उर्दू अखबार ने दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन की शहर में साफ नहरों, कचरे की नालियों और पीने के पानी उपलब्ध करवाने में विफल रहने के लिए आलोचना की थी। यही कारण था कि सरकारी चिकित्सा सुविधाओं को लेकर सामान्य नागरिक की सोच अच्छी नहीं थी। हकीमों और वैद्यों के निजी उपचार ही अधिक लोकप्रिय थे।


दिल्ली में वर्ष 1873 तक लोथियन ब्रिज और कश्मीरी गेट के बीच का क्षेत्र अंग्रेज सैनिक छावनी का हिस्सा था। दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन ने एक से अधिक बार सैन्य प्रशासन को इस क्षेत्र में फैली गंदगी को लेकर याद दिलाया था। भारतीय नागरिकों का कहना था कि इसी गंदगी के कारण शहर में दोबारा हैजा फैला है जबकि वर्ष 1857 से पहले परकोटे वाले शहर में यह बीमारी कभी नहीं हुई थी। सरकार सेना के जवानों को स्वास्थ्य की दृष्टि से तो सुरक्षित रखना चाहती थी लेकिन सैनिक छावनियों के करीब रहने वाली असैनिक भारतीय आबादी को निरोग रखने के लिए पैसे खर्च नहीं करना चाहती थी। ऐसे में मजबूरी में अंग्रेजों के सैन्य-नागरिक प्रशासन को आम भारतीय जनसाधारण के स्वास्थ्य पर ध्यान देना पड़ा।


करेला और नीम चढ़ा। वर्ष 1919 में भी, लाॅर्ड चेम्सफोर्ड के जमाने में दिल्ली में इन्फ्लुएंजा की महामारी फैली, जिसमें करीब साठ हजार लोग मृत्यु को प्राप्त हुए। असलियत यह थी कि अंग्रेजी राज के प्रशासन में शहरियों की आबादी के स्वास्थ्य को लेकर सही आंकड़ों का अभाव था, जिस कारण वह अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा था। दिल्ली सूबे की सालाना सफाई रिपोर्टों में स्वास्थ्य के मोर्चे पर गिरावट की बात तो दर्ज की गई थी पर उस गिरावट के सही कारणों का उल्लेख नहीं था। वर्ष 1927 में, दिल्ली के चिकित्सा स्वास्थ्य अधिकारी डॉक्टर के. एस. सेठना ने तपेदिक की बीमारी का लेकर कार्रवाई शुरू की। तपेदिक के तेजी से फैलाव के कारण ऐसा करना जरूरी था क्योंकि यह रोग सीधे तौर पर अधिक आबादी और सघन शहरी बसावट से जुड़ा था।


सेठना का कहना था कि अन्य श्वसन रोगों में श्रेणीबद्ध (वर्ष 1926 में 3,237 मौतें) अनेक मौतों को तपेदिक से हुई मौतें मानना चाहिए जबकि वास्तव में यक्ष्मा (480 मौतें) के रूप में दर्ज मामले उस बीमारी के कारण हुए ही नहीं थे। 1920 के दशक के मध्य में 34 से 40 प्रतिशत मौतों को "सांस की बीमारियों" से होना गिना गया था और सेठना ने इन अधिकांश मौतों के लिए तपेदिक को जिम्मेदार ठहराया।


वर्ष 1928 में यह दावा किया गया कि धीरे-धीरे बुखारों को मलेरिया, प्लेग, हैजा और तपेदिक के रूप में बांट दिया गया है। फिर भी वर्ष 1935 तक हुई कुल मौतों के 50 फीसदी का असली कारण का पता नहीं लग पाया था। जैसे, 10,483 लोगों की मौत को अन्य बुखारों, 1,593 की मौतों को "सांस के दूसरे कारणों" और 1,398 "मौतों को अन्य कारणों" के शीर्षक में सूचीबद्ध किया गया। इतना ही नहीं, असली रोग तक पहुंचने की विफलता के साथ मृतकों की गलत पहचान और जनसंख्या में वृद्वि से भी आंकड़ों को लेकर भी नई समस्याएं पैदा हो गई। ऐसे में, अंग्रेज सरकार के लिए दिल्ली में रोग की सही पहचान और उसके उपयुक्त निदान को लेकर सही निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं था।


दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में मलेरिया से सम्बन्धित कार्य वर्ष 1936 में आरम्भ हो गया जबकि काफी लागत लगाकर गंदे पानी की निकासी की सुविधापूर्वक व्यवस्था के लिए इंजीनियरी प्रायोजनाएं चलाई गई। दूसरे विश्व युद्व के बाद दिल्ली की असैनिक आबादी से भी डीडीटी के प्रयोग का परीक्षण कराया गया तथा बाद में यह राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम में शामिल की गई। वर्ष 1958 तक मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम निदेशक, मलेरिया संस्थान अब संचारी रोगों का राष्ट्रीय संस्थान के तकनीकी नियंत्रण में था जब कि दिल्ली नगर निगम की स्थापना हुई और यह कार्यक्रम निकाय को सौंपा गया।


दिल्ली में सबसे पहले, क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम वर्ष 1933 में आरम्भ किया गया जबकि रामकृष्ण आश्रम मिशन ने पहाड़गंज में एक क्षय रोग निदानशाला स्थापित की। उसके बाद निदानशाला जामा मस्जिद ले जाई गई। 68 बिस्तरों वाल सिल्वर जुबली अस्पताल वर्ष 1935 और श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग पर म्युनिसिपल टीबी क्लीनिक वर्ष 1938 में स्थापित किए गए। भारतीय क्षय रोग संघ ने नई दिल्ली क्षय केन्द्र वर्ष 1940 में प्रारम्भ किया। जबकि भारत में राष्ट्रीय क्षय रोग कार्यक्रम वर्ष 1950 में आरंभ हुआ, जिसके तहत क्षय रोग के छिपे हुए मामलों का पता लगाना और स्थानिक उपचार की व्यवस्था करना, लोगों से सम्पर्क के कारण होने वाले क्षय रोग की रोकथाम, जनता को क्षयरोग से बचाना और बीसीजी के टीके की व्यवस्था शामिल है।


केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो और भारतीय मलेरिया सर्वेक्षण

वर्ष 1909 में केंद्रीय समिति के तहत कसौली में एक केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो की स्थापना की गई थी। वर्ष 1916 में भारत के लिए एक मलेरिया संगठन की संकल्पना की गई और उसी वर्ष शिमला में हुई इंपीरियल मलेरिया कान्फ्रेन्स के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया। एक केंद्रीय मलेरिया समिति सहित भारत के आठ सूबों में एक-एक प्रांतीय मलेरिया समिति गठित की गई। वर्ष 1925 में कसौली में केंद्रीय मलेरिया संगठन की स्थापना की स्वीकृति प्राप्त की गई और जो कि भारतीय मलेरिया सर्वेक्षण के नाम से जाना गया।भारत का मलेरिया सर्वेक्षण की शुरूआत कसौली स्थित सेन्ट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट के भवन से हुई थी। लेकिन यह बाकी सब लिहाज से स्वतंत्र संगठन था। इसके प्रशासन और वित्तपोषण का दायित्व आईआरएफए पर था। आईआरएफए को विशेष सरकारी अनुदान प्राप्त था पर वह इंग्लैंड के मेडिकल रिसर्च काउंसिल की तरह काफी हद तक एक स्वतंत्र निकाय था। सिंटन को इस संगठन के पहले निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया और समस्त जांच-पड़तालों और अनुसंधानों को नए संगठन के तहत कर दिया गया। सिंटन वर्ष 1936 में संगठन के निदेशक पद से सेवानिवृत्ति हुए। उनके बाद लेफ्टिनेंट कर्नल गोर्डन कॉवेल ने संगठन की कमान संभाली। वर्ष में 1937 में भारत सरकार ने सर्वेक्षण के सार्वजनिक स्वास्थ्य और सलाह देने के कार्य को अपने हाथ में लेने का निर्णय किया। इसके साथ ही, संगठन का नाम और मुख्यालय के स्थान में परिवर्तन किया गया।


भारत के मलेरिया संस्थान के नए नाम के साथ उसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। वर्ष 1947 में आजादी के समय राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) के शुरू होने से पूर्व देश की 22 प्रतिशत आबादी मलेरिया से पीड़ित थी। देश में मलेरिया उन्मूलन के उद्देेश्य के साथ वर्ष 1958 में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यकम शुरू किया गया।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) वर्तमान समय में देश की शीर्ष एवं प्रमुख चिकित्सा शोध संस्था है जो देश में जैवचिकित्सा संबंधी अनुसंधान करने की मुख्य जिम्मेदारी भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के कंधों पर है। नई दिल्ली के अंसारी रोड पर स्थित आईसीएमआर के नाम से प्रसिद्ध यह संस्था जैव चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान की योजना बनाने से लेकर क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार है। यह योजना, सूत्रीकरण, समन्वय, क्रियान्वयन तथा प्रोत्साहन को बढ़ावा देने की मुख्य दायित्व है।


यह विश्व के सबसे पुराने चिकित्सा शोध निकायों में से एक है। वर्ष 1911 में, अंग्रेजी भारत सरकार ने देश में चिकित्सा संबंधी अनुसंधान को प्रायोजित और समन्वित करने के विशिष्ट उद्देश्य के साथ इंडियन रिसर्च फंड एसोसिशन (आईआरएफफ) की स्थापना का ऐतिहासिक निर्णय लिया था। देश की आजादी के बाद वर्ष 1949 में आईआरएफए, के कार्यों और गतिविधियों में उचित विस्तार करके इसे नया नाम "भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद" दिया गया।


आईआरएफफ का प्राथमिक उद्देश्य संचारी रोगों की रोकथाम के लिए चिकित्सा अनुसंधान, उससे संबंधित ज्ञान का प्रसार और प्रायोगिक कार्यों को प्रोत्साहन देने तथा ऐसे कार्यों के प्रचार का वाहक बनने के साथ दूसरे क्षेत्रों में भी हो रही अनुसंधान गतिविधियों का वित्तपोषण करना और सहायता देना था। इस पूरे काम की जिम्मेदारी आईआरएफफ के संचालक मंडल को दी गई थी। जिसमें अंग्रेज वायसराय की कार्यकारी परिषद में शिक्षा और स्वास्थ्य तथा भूमि विभागों के सदस्य की अध्यक्षता में शेष सभी सदस्य सरकारी अफसर थे। तब आईआरएफफ के सदस्यों में इंडियन मेडिकल सर्विस के महानिदेशक, भारत सरकार के स्वच्छता आयुक्त, कसौली के सीआरआइ के निदेशक, वर्ष 1909 में बने केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो के विशेष कार्याधिकारी, इंडियन मेडिकल सर्विस (स्वच्छता), के सहायक महानिदेशक और मानद परामर्शदाता सदस्य के रूप में चुने गए रोनाल्ड रॉस थे।


एसोसिएशन के संचालक मंडल की पहली बैठक 15 नवंबर 1911 को मुंबई के परेल स्थित प्लेग प्रयोगशाला में हरकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में हुई थी। जबकि दूसरी बैठक में एसोसिएशन की आम सभा में चिकित्सा अनुसंधान के प्रसार की दृष्टि से इंडियन मेडिकल रिचर्स का एक जर्नल शुरू करने का निर्णय हुआ। इसका नाम "इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च" रखा गया और उसमें पहले से प्रकाशित हो रहे "पाल्यूडिज्म" नामक प्रकाशन तथा वैज्ञानिक संस्मरणों के रूप में छपे अधिकतर मोनोग्राफों को भी समाहित कर लिया गया। यह जर्नल एसोसिएशन का आधिकारिक प्रकाशन है, जो कि जुलाई 1913 से नियमित प्रकाशित हो रहा है।


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