महात्मा गांधी_जवाहरलाल नेहरू_फोटो साभार: एएफपी
प्रसिद्ध गांधी दृष्टि के लेखक धर्मपाल ने "भारत का स्वधर्म" पुस्तक में जवाहर लाल नेहरू के 'राज' के महात्मा गांधी के 'स्वराज' के बहिष्कार और फिर तिरस्कार की कहानी को विस्तार से बखान किया है। यह पुस्तक दिवंगत डाक्टर छगन मोहता की स्मृति व्याख्यान माला के प्रथम वक्ता के रूप में धर्मपाल के भाषणों का संकलन है। इस पुस्तक को बीकानेर के वाग्देवी प्रकाशन ने छापा है।
धर्मपाल अपनी "भारत का स्वधर्म" नामक पुस्तक में लिखते हैं, रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी सर्जनात्मक प्रतिभाओं ने एक विचित्र आत्मग्लानि, आत्मदैन्य और उसी के साथ योरपीय लक्ष्यों की पूर्ति में ही भारत का आत्म गौरव देखने का बौद्धिक परिवेश रचा, उसमें ही जवाहरलाल नेहरू जैसे पश्चिमीकृत व्यक्तित्वों का उभरना और प्रतिष्ठित होना संभव हुआ।
वे पुस्तक में आगे बताते हैं कि चेतना-विकासवाद की अपनी विशिष्ट अवधारणाओं के फलस्वरूप जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग पश्चिम के चिन्तकों में सर्वाधिक विकसित चेतना देखते थे और पश्चिम के चिन्तकों के अनुगत समाज को सर्वाधिक विकसित समाज। अतः पश्चिम के द्वारा रची गई आधुनिक शिक्षा की स्वभावतः जवाहरलाल नेहरू के लिए प्रामाणिक ज्ञान का एकमात्र माध्यम थी। इसीलिए वे मानते थे कि भारतीय ग्रामीणों में आधुनिक शिक्षा के पर्याप्त प्रसार के बिना ज्ञान और गुण हो ही कैसे सकते हैं। इसीलिए वे भयंकर अज्ञान और गुणहीनता की इस दशा से करोड़ों भारतीयों का उद्धगार करना तथा उन्हें अपने अनुरूप रूपान्तरित करना, अपने नेतृत्व में आधुनिक शिक्षित वर्ग द्वारा संचालित राज्य का प्रमुख कर्तव्य मानते थे।
धर्मपाल एक दूसरी पुस्तक "स्वदेशी और भारतीयता" के "जारी है गांधी पर नेहरू के हमले" शीर्षक वाले अध्याय में लिखते हैं कि एक 1945 में तो नेहरू ने साफ कहा कि गांधी के स्वदेशी राग को उन्होंने कभी विचार के लायक नहीं माना। कांग्रेस ने भी स्वदेशी की बातचीत 1937 में ही छोड़ दी थी। गांधी ने पश्चिमपरस्त लोगों और उनके नेता नेहरू को संतुलित करन के लिए कोशिशें कम नहीं कीं। गांधी सेवा संघ बनाया गया। संघ पश्चिमपरस्त तबके के खिलाफ दबाव बनाने का साधन था। 1938 में नेहरू जब विदेश जा रहे थे तो उन्होंने संघ के खिलाफ हमले का बिगुल बजाया कि संघ राजनीति कर रहा है।
धर्मपाल इस संबंध में अपने निचोड़ की बात कहते हैं कि सृजनात्मक बुद्धि के इस अभाव का परिणाम था कि भारतीय इतिहास, भारतीय शास्त्र, धर्मग्रन्थ एवं वेदों तक में वे सब बातें ढूंढ़ी-बताई जाने लगीं, जो हमें अंग्रेजों के अनुगत बनने के योग्य सिद्ध करें। इसमें विशेष बात यह थी कि स्वयं अंग्रेजों के बारे में हमें लगभग कुछ भी ज्ञात था। न उनका इतिहास, न उनकी समाज व्यवस्था, न उनके लक्ष्य। वे अपने बारे में जो भी यहां हमें बता देते, उसे ही हमारे प्रबुद्ध लोग ब्रहा सत्य मानने लगे।
जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी ने अपनी "मसि कागद" पुस्तक के "गांधी के आश्रम में बंधा पश्चिम का अश्वमेधी घोड़ा" शीर्षक वाले अध्याय में लिखा है कि चाहे जवाहरलाल नेहरू हो या विनोबा भावे आजादी के बाद भारत को किस रास्ते पर ले जाया जाए और आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी की लड़ाई किस तरह लड़ी जाए, इस अहम मुद्दे पर गांधी के साथ कोई नहीं था।
नेहरू से उन (गांधी) के मतभेद बहुत पहले से थे। नेहरू उन्हें नेता मानते थे, लेकिन साफ कहते थे कि आजादी के बाद गांधी की सनक के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी। गांधी की धार्मिकता, रहस्यवादिता, पश्चिम-विरोध और उनका देश-दुनिया का सपना नेहरू की राय में गलत था। नेहरू मानते थे कि जीत पश्चिम की होगी। गांधी के जाने के बाद उन्होंने पश्चिम को इस देश में जिताया। देश के सारे लोग जो पश्चिम से प्रभावित हैं, नेहरू की इस पापग्रन्थि से पीड़ित है।
पश्चिम के अश्वमेध का घोड़ा अब भी गांधी के आश्रम में बंधा है। उसे छोड़कर पश्चिम से युद्ध करने जो भी जाता है, विकास का भूत उसे जला देता है।
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