Saturday, April 4, 2020

Medical History of British India_ब्रिटिश भारत का चिकित्सा इतिहास





अंग्रेज भारत में चेचक और टीकाकरण 
दुनिया में टीकों और टीकाकरण का इतिहास समाज में रोग की रोकथाम के पहले प्रयास से आरंभ होता है। चेचक (खसरे सहित दूसरे संक्रामक रोगों के समान) की प्राचीन काल से पहचान थी और ऐसा माना जाता है कि 3,000 साल पहले इसकी उत्पत्ति भारत या मिस्र में हुई थी। 

उपलब्ध प्रमाण इस बात का संकेत करते हैं कि करीब 1000 ईस्वी में चीन, भारत, तुर्की और शायद अफ्रीका में भी चेचक का टीका लगाया जाता था। टीकाकरण (इनोक्यूलेशन) की इस प्रक्रिया में एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में टीका लगाकर एकबारगी संक्रामक तत्व को पहुंचाया जाता था, जिससे बहुधा रोग का प्रकोप कम होता था और शेष जीवन वह व्यक्ति गंभीर बीमारी से बचा रहता था। भारत में चेचक के इलाज का यह तरीका बहुप्रचलित था। 

भारत में इस रोग की घटना के कुछ विवरण मिलते हैं। वैसे वर्ष 1545 में गोवा में चेचक महामारी होने की सूचना दर्ज है, जब चेचक के कारण करीब 8,000 बच्चों की मौत हो गई थी। इतिहासकारों और चिकित्सकों ने कहीं-कहीं चेचक का "भारतीय प्लेग" के रूप में भी संदर्भ दिया है, जिससे पता चलता है कि पहले से ही भारत में इस बीमारी के व्यापक प्रचलन के संकेत मिलते हैं। 

चरक और सुश्रुत के इस देश में 18 वीं शताब्दी में भी आयुर्वेद का पर्याप्त प्रभाव शेष था। चेचक का टीका लगाने की देसी प्रथा भारत के कई हिस्सों में व्यापक थी जबकि इंगलैंड में चेचक का टीका 1720 ईस्वी के बाद ही चला। शल्य चिकित्सा में भी भारतीय ग्रामीण वैद्य 18 वीं शती में इतने उन्नत बचे रहे थे कि इंग्लैंड की स्थिति की उनसे तुलना ही नहीं हो सकती। 

"भारत का स्वधर्म" पुस्तक में धर्मपाल बताते है कि जिस तरह अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से भारतीय वस्त्रोद्योग एवं कारीगरी को विनष्ट किया, उसी तरह टीका लगाने एवं चिकित्सा कौशलों का भी हनन किया। 1802 ईस्वी के आसपास से बंगाल प्रेसीडेंसी में भारतीय तरीके से चेचक का टीका लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया। इससे भयंकर महामारी फैली। भारत में परम्परा से इस रोग के निवारक उपाय भी अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक थे। पर साथ ही टीके की भी तकनीक विकसित थी। किन्तु अंग्रेजों ने उसका दमन किया और स्वयं की विकसित हो रही तकनीक के पक्ष में हवा बनाने के लिए उस काम को रोक दिया। अपनी टीका-तकनीक के पक्ष में हवा बनाने के लिए उस काम को रोक दिया। अपनी टीका-तकनीक भी सबको सुलभ नहीं करा पाए। फलतः उन्नीसवीं शती और बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में भारत में चेचक महामारी भयंकर रूप से बार-बार फैली। 

शल्य चिकित्सा में निपुणता भी भारतीय ग्रामीण वैद्यों में 18 वीं शती तक शेष थी। अंग्रेजों ने उनकी विधि को अवैज्ञानिक मानकर भारत में तो उसे दबाया, लेकिन ब्रिटेन में इसी भारतीय विधि के आधार पर यूरोपियन माने वाली शल्य-चिकित्सा को विकसित किया। ऐसा 1795 और 1815 के बीस बरसों में किया गया। 

उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों से पहले के भारत में बड़े पैमाने पर टीकाकरण किया जाता था (वैसे बाद में, वर्ष 1804 में बंगाल प्रेसीडेंसी में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसका सीमित प्रभाव ही रहा)। वर्ष 1767 में डॉक्टर जे जेड होवेल ने लंदन में रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों को भारत में टीकाकरण की प्रथा का विस्तृत विवरण दिया था। (भारत में विशेषरूप से अंग्रेजोें की बंगाल और बॉम्बे प्रेसीडेंसियों से टीकाकरण की प्रथा के विषय में जानकारी संकलित की गई थी)। वैसे, इस बात की सीमित जानकारी है कि भारत में उस अवधि के दौरान चेचक से पीड़ित कितने व्यक्तियों को पूरे साल में टीका लगाया गया था। 

भारत में इंगलैंड में विकसित चेचक के टीका, जिसे एडवर्ड जेनर ने बनाया, लगाने का तरीका चार साल बाद वर्ष 1802 में पहुंचा। भारत में चेचक के टीके (तरल दवा के रूप में) की पहली खुराक मई, 1802 में पहुंची। भारत में बम्बई (अब मुंबई) की तीन वर्षीया एना डस्टहॉल, 14 जून 1802 को चेचक का टीका लगवाने वाली पहली बच्ची थी। 

अंग्रेज भारत में टीकाकरण का इतिहास (1900-1947) 
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कुछ ऐसी सामाजिक-वैज्ञानिक-भू-राजनीतिक घटनाएं हुईं, जिन्होंने देश के टीकाकरण अभियान के प्रयासों को स्थायी रूप से प्रभावित किया। ये परिवर्तनशील घटनाएं निम्नलिखित हैं। 
(क) भारत में हैजे और प्लेग का प्रकोप (1896-1907) हुआ और पहले से ही सीमित संख्या में मौजूद टीका लगाने वाले व्यक्तियों की सेवाओं को इन महामारियों के नियंत्रण के लिए लगा दिया गया। 
(ख) प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के आरंभ होने के साथ ही संयोग से इन्फ्लुएंजा महामारी (इस बीमारी के कारण कथित रूप से करीब एक करोड़ सत्तर लाख भारतीय मारे गए) भी फैली। इस कारण भारत में अंग्रेज सरकार को मजबूरी में जन स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकता बनना पड़ा। 
(ग) यह एक नई वैज्ञानिक समझ बनी कि दीर्घकाल तक सुरक्षित स्वास्थ्य के लिए दो बार चेचक के टीके लगवाना पर्याप्त होगा। देशवासियों को यह बात समझाना एक बड़ी चुनौती थी कि वे दो बार असुविधाजनक और दर्दनाक प्रक्रिया से गुजरकर टीका लगवाए। 
(घ) सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि भारत सरकार अधिनियम, 1919, के तहत केंद्र सरकार ने सूबों को कई प्रशासनिक शक्तियां स्थानांतरित की। इस कारण स्थानीय स्तर पर निकायों को चेचक टीकाकरण सहित दूसरी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। भारत में जन स्वास्थ्य सेवा उपलब्धता के राज्य का विषय होने की बात इसी अधिनियम के कारण है। (14/04/2020)


मद्रास मेडिकल काॅलेज 
अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदुस्तान में अपने बीमार सैनिकों के इलाज के लिए 16 नवंबर 1664 में एक छोटे अस्पताल के रूप में पहला गवर्नमेंट जनरल हाॅस्पिटल (आम सरकारी अस्पताल) शुरू किया था। मद्रास स्थित कंपनी के एजेंट एडवर्ड विंटर के अथक प्रयासों के कारण यह पहला अंग्रेज अस्पताल बना। आरंभिक दिनों में यह अस्पताल फोर्ट सेंट जॉर्ज में था, जो कि बाद के 25 बरसों में औपचारिक रूप से एक चिकित्सा सुविधा केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। अंग्रेज़ों की मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गर्वनर एलिय येल ने इस अस्पताल के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए वर्ष 1690 में फोर्ट सेंट जॉर्ज में ही एक नए परिसर के लिए स्थान प्रदान किया। 

दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसिसी युद्व (1746 -63), जिसे कर्नाटक युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, के उपरांत इसे फोर्ट सेंट जॉर्ज से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। उसके बाद, अस्पताल को आज के स्थान पर स्थायी रूप से बसने में बीस बरस का समय लगा और वर्ष 1772 में यह अपने वर्तमान स्थान पर कायम हुआ। वर्ष 1772 से यह अस्पताल यूरोपीय, यूरेशियाई और हिंदुस्तानियों को एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से रोगियों के निदान और उपचार के प्रशिक्षण के साथ दवाएं बनाने की विधि की शिक्षा देने लगा था। इन प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के जिला मुख्यालय में विभिन्न औषधालयों में योग्य डॉक्टरों की सहायता के लिए तैनात किया जाता था। वर्ष 1820 तक इस अस्पताल की ख्याति ईस्ट इंडिया कंपनी के मॉडल अस्पताल के रूप में हो गई थी। वर्ष 1827 में डॉ. डी. मोर्टिमर को अस्पताल का अधीक्षक नियुक्त किया गया। 

डॉक्टर मोर्टिमर की ओर से संचालित एक निजी मेडिकल हॉल को ही एक मेडिकल स्कूल के रूप में नियमित कर दिया गया और 2 फरवरी 1835 को मद्रास के तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर सर फ्रेडिक एडम्स ने इसका उद्घाटन किया। गर्वनर ने इस मेडिकल स्कूल को कंपनी की ओर से सहायता देने संबंधित एक आदेश निकाला और मेडिकल स्कूल को जनरल हॉस्पिटल के साथ संलग्न कर दिया गया। 

वर्ष 1842 में मद्रास अस्पताल के दरवाजे भारतीयों के लिए भी खोल दिए गए। इसके बाद, अगले दो दशकों में यहां शिक्षक वर्ग की संख्या का विस्तार हुआ, मेडिकल पाठ्यक्रम की अवधि में बढ़ोत्तरी हुई और पाठ्यक्रम को व्यापक रूप दिया गया। फिर पांच साल की अवधि वाले वरिष्ठ पाठ्यक्रम शुरू किए गए और पहली बार संस्था में निजी लोगों को भी भर्ती किया गया। वर्ष 1850 की शुरुआत में स्कूल काउंसिल ने सरकार से कॉलेज का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया। अंग्रेज सरकार ने इस अनुरोध को स्वीकृति दे दी। इस तरह, 1 अक्तूबर 1850 को मद्रास मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आया। 

मद्रास मेडिकल कॉलेज से स्नातक छात्रों का पहला समूह वर्ष 1852 में पास होकर निकला। इन छात्रों को मद्रास मेडिकल काॅलेज के ग्रेजुएट का डिप्लोमा प्रदान किए गए। वर्ष 1857 में मेडिकल काॅलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गया। वर्ष 1857 में, मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बाद कॉलेज दवा (मेडिसिन) और सर्जरी की सभी विशिष्टताओं में प्रशिक्षण देने वाला उत्कृष्टता का एक केंद्र बन गया। 

आज भारत के चोटी के मेडिकल संस्थानों में से एक मद्रास मेडिकल काॅलेज में चिकित्सा विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर और सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई होती है। वर्ष 1988 से मद्रास मेडिकल कॉलेज के पाठ्यक्रमों को तमिलनाडु के डॉक्टर एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से संबद्ध कर दिया गया है। इस कॉलेज के साथ अस्पतालों सहित नौ संबद्ध संस्थान हैं, जिनमें से प्रत्येक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में उत्कृष्टता के लिए मान्यता प्राप्त है। (12/04/2020) 

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदुस्तान में अपने बीमार सैनिकों के इलाज के लिए 16 नवंबर 1664 में एक छोटे अस्पताल के रूप में पहला गवर्नमेंट जनरल हाॅस्पिटल (आम सरकारी अस्पताल) शुरू किया था। मद्रास में कंपनी के एजेंट एडवर्ड विंटर के अथक प्रयासों के कारण यह पहला अंग्रेज अस्पताल बना।

यह अस्पताल आरंभिक दिनों में फोर्ट सेंट जॉर्ज में था और उसके बाद 25 बरसों की अवधि में यह औपचारिक रूप से एक चिकित्सा सुविधा केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गवर्नर एलिय येल ने इस अस्पताल के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए वर्ष 1690 में किले में ही एक नए परिसर के लिए स्थान प्रदान किया। 

दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसिसी युद्ध के उपरांत इस अस्पताल को किले से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। इस अस्पताल को उस किले से आज के स्थान तक स्थायी रूप से पहुंचने में बीस बरस का समय लगा और वर्ष 1772 में यह अपने वर्तमान पते पर कायम हुआ। उसी साल (वर्ष 1772) से यह अस्पताल यूरोपीय, यूरेशियाई और हिंदुस्तानी मूल के व्यक्तियों को अंग्रेजी (एलोपैथिक) तरीकों से रोगियों के निदान और उपचार के प्रशिक्षण के साथ दवाएं बनाने की विधि की शिक्षा देने लगा था। इन प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के जिला मुख्यालय में विभिन्न औषधालयों में योग्य डॉक्टरों की सहायता के लिए तैनात किया जाता था। वर्ष 1820 तक इस अस्पताल की ख्याति ईस्ट इंडिया कंपनी के मॉडल अस्पताल के रूप में हो गई थी। वर्ष 1827 में डॉ डी. मोर्टिमर को अस्पताल का अधीक्षक (मेडिकल सुपरिटेंडेंट) नियुक्त किया गया।

डॉक्टर मोर्टिमर की ओर से संचालित एक निजी मेडिकल हॉल को ही एक मेडिकल स्कूल के रूप में नियमित कर दिया गया और 2 फरवरी 1835 को मद्रास के तत्कालीन गवर्नर सर फ्रेडिक एडम्स ने इसका उद्घाटन किया। गर्वनर ने इस मेडिकल स्कूल को कंपनी की ओर से सहायता प्राप्त करने संबंधित एक आदेश निकाला और इसे जनरल अस्पताल के साथ संलग्न कर दिया गया। 

वर्ष 1842 में मद्रास अस्पताल के दरवाजे भारतीयों के लिए भी खोल दिए गए। इसके बाद, अगले दो दशकों में यहां शिक्षक वर्ग की संख्या का विस्तार हुआ, मेडिकल पाठ्यक्रम की अवधि में बढ़ोत्तरी हुई और पाठ्यक्रम को व्यापक रूप दिया गया। फिर पांच साल की अवधि वाले वरिष्ठ पाठ्यक्रम शुरू किए गए और पहली बार संस्था में निजी लोगों को भी भर्ती किया गया। वर्ष 1850 की शुरुआत में स्कूल काउंसिल ने सरकार से कॉलेज का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया। अंग्रेज सरकार ने इस अनुरोध को स्वीकृति दे दी। इस तरह, 1 अक्तूबर 1850 को मद्रास मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आया। 

यहां से स्नातक छात्रों का पहला समूह वर्ष 1852 में निकला। उन्हें मद्रास मेडिकल काॅलेज के ग्रेजुएट का डिप्लोमा प्रदान किया गया। वर्ष 1857 में मेडिकल काॅलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गया। मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बाद, कॉलेज दवा (मेडिसिन) और सर्जरी की सभी विशिष्टताओं में प्रशिक्षण देने वाला उत्कृष्टता का एक केंद्र बन गया। 
आज भारत के चोटी के मेडिकल संस्थानों में से एक मद्रास मेडिकल काॅलेज में चिकित्सा विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर और सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई होती है। वर्ष 1988 से मद्रास मेडिकल कॉलेज के पाठ्यक्रमों को तमिलनाडु के डॉक्टर एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से संबद्ध कर दिया गया है। इस कॉलेज के साथ अस्पतालों सहित नौ संबद्ध संस्थान हैं, जिनमें से प्रत्येक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में उत्कृष्टता के लिए मान्यता प्राप्त है। (12/04/2020)

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्ष 1664 में भारत में पहला अस्पताल आज की चेन्नई में मद्रास जनरल अस्पताल के नाम से खोला था। वर्ष 1796 में कलकत्ता में प्रेसीडेंसी जनरल अस्पताल बना। वर्ष 1800 से वर्ष 1820 की अवधि के भीतर मद्रास में चार अस्पताल बनाए गए। स्वास्थ्य क्षेत्र में पेशेवरों की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के उद्देश्य से फरवरी 1835 में एक आदेश से कलकत्ता मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया। यह पूरे एशिया में पश्चिमी चिकित्सा पद्वति की शिक्षा देने वाला पहला संस्थान था। वर्ष 1852 में कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज अस्पताल बना। जबकि वर्ष 1860 में पंजाब सूबे की राजधानी लाहौर में लाहौर मेडिकल स्कूल (जिसका नाम बाद में किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज रख दिया गया) शुरू हुआ। इसके बाद पूरे भारत में अस्पतालों का एक जाल बिछाया गया। वर्ष 1854 में, अंग्रेज भारत सरकार ने छोटे अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए दवाओं और मेडिकल उपकरणों की आपूर्ति करने पर अपनी सहमति दी। इसके लिए कलकत्ता, मद्रास, बम्बई, मियां मीर और रंगून में सरकारी स्टोर डिपो स्थापित किए गए। वर्ष 1918 में अंग्रेज भारत की राजधानी दिल्ली में लेडी रीडिंग हेल्थ स्कूल खोला गया। वर्ष 1930 में कलकत्ता में अखिल भारतीय स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान की स्थापना हुई। वर्ष 1939 में कलकत्ता के पास सिंगुर में पहला ग्रामीण स्वास्थ्य प्रशिक्षण केंद्र बना। (11/04/2020)

ऐसा माना जाता है कि 16 वीं शताब्दी में, पुर्तगाली सौदागरों के साथ भारत में पहली बार पश्चिमी चिकित्सा पद्धति का आगमन हुआ। वर्ष 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले जहाजी बेड़ों के साथ पहुंचे चिकित्सा अधिकारी भी अपने साथ पश्चिमी चिकित्सा पद्वति की औषधियां लेकर आए। ईस्ट इंडिया कंपनी के आरंभिक दौर में, चिकित्सा विभाग के साथ आए सर्जनों का काम कंपनी के सैनिकों और कर्मचारियों को चिकित्सा प्रदान करना था। वर्ष 1775 में गठित कंपनी के अस्पताल बोर्ड में सर्जन जनरल और फिजिशियन जनरल शामिल थे। हर प्रेसीडेंसी में ब्रिटिश भारतीय सेना के मुख्य कमांडर अनिवार्य रूप इन अस्पताल बोर्डों का गठन करता था।उल्लेखनीय है कि तब हिंदुस्तान में कलकत्ता, मद्रास और बंबई तीन स्थानों पर अंग्रेजों की प्रेसीडेंसियां थी। 1785 में बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसियों में मेडिकल विभाग स्थापित किए गए। ये विभाग अंग्रेज सैनिकों और नागरिकों दोनों की देखभाल करते थे। वर्ष 1857 में हिंदुस्तान की पहली आजादी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भंग कर दी गई और भारत सीधे ब्रितानिया हुकूमत-ताज के अधीन हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान में अपनी सेना की सेहत को ध्यान में रखते हुए जन स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। इसी के तहत चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए भारतीय चिकित्सा सेवा (इंडियन मेडिकल सर्विस), केंद्रीय और प्रांतीय चिकित्सा सेवाएं और अधीनस्थ चिकित्सा सेवाएं जैसी अनेक संगठित सेवाएं चिकित्सा सेवाएं शुरू की गईं। भारत सरकार में एक जन स्वास्थ्य आयुक्त (पब्लिक हेल्थ कमिशनर) और एक सांख्यिकीय अधिकारी भी नियुक्त किए गए।

वर्ष 1869 में, ब्रिटिश भारत की तीन प्रेसीडेंसियों में चिकित्सा विभागों का भारतीय चिकित्सा सेवा में विलय कर दिया गया। भारतीय चिकित्सा सेवा में भर्ती के लिए लंदन में एक प्रतियोगी परीक्षा होती थी। भारतीय चिकित्सा सेवा के यूरोपीय अधिकारी ही तीनों प्रेसीडेंसियों में सैनिक और नागरिक चिकित्सा कार्यों को संचालित करते थे। इन यूरोपीय अधिकारियों को अपने चिकित्सा कार्य में सहायता के लिए प्रशिक्षित सहायकों और कर्मचारी वर्ग जैसे अत्तार, औषधि देने वाला और मरहम-पट्टी की जरूरत थी। यूरोपीय डॉक्टरों को नियुक्त करने से व्यय भी अधिक था। इस कारण अंग्रेज सरकार को हिंदुस्तान में ही कर्मचारियों को भर्ती के लिए भारत में चिकित्सा शिक्षा का एक तंत्र स्थापित करने की दिशा में सोचना पड़ा।

वर्ष 1822 में भारतीयों को चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए कलकत्ता में नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन की स्थापना की गई। यहां पर 20 भारतीय युवा छात्रों को भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाया गया। इन छात्रों की सुविधा के लिए शरीर रचना विज्ञान (एनाटॉमी), चिकित्सा (मेडिसिन) और सर्जरी जैसे विषयों की यूरोपीय पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। वैसे चिकित्सा परीक्षण के लिए मानव शरीर की चीरफाड़ तो नहीं होती थी पर विभिन्न अस्पतालों और औषधालयों में नैदानिक अनुभव (मरीजों की जांच-पड़ताल का काम) अनिवार्य था। नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन का पहला अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) एक प्राच्यविद जॉन टायलर था। यहां पर छात्रों को पश्चिमी और भारतीय दोनों प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में समानांतर रूप से पढ़ाया जाता था। वर्ष 1826 में यूनानी चिकित्सा पद्धति पर कलकत्ता के मदरसे में और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति पर संस्कृत कॉलेज में पढ़ाई हुई। यहां से सफलतापूर्वक पढ़कर निकले देशी स्नातकों को सरकारी नौकरियों में रखा गया।

वर्ष 1826 में ही भारतीयों को पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की औषधि के विषय में शिक्षित करने और अभ्यास का अवसर प्रदान करने के लिए दक्षिण बंबई में एक भारतीय मेडिकल स्कूल शुरू किया गया। सर्जन जॉन मैक्लेनन इसके पहले अधीक्षक थे पर यह स्कूल छह साल तक ही चला।
1830 के दशक में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग (एंग्लिस्ट) को भारतीय भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग (वर्नाकुलरवादी) और प्राच्यविदों की ओर से शुरू की गई अनेक सांस्कृतिक और शैक्षिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने में सफल हो गए। हिंदुस्तान में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग की सफलता के युगांतकारी परिणाम हुए। (07 /04/2020)

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ स्कॉटलैंड की आधिकारिक वेबसाइट ब्रिटिश भारत का चिकित्सा इतिहास के बारे में विस्तार से बताती है कि कैसे भारत में 19 वीं सदी के मध्य में वैज्ञानिक या अस्पताल चिकित्सा के उदय के साथ प्राचीन यूनानी चिकित्सा का त्रिदोषन (रक्त, कफ और पित्त के आधार पर इलाज की पारंपरिक पद्धति) प्रारूप समाप्त हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोपीय और भारतीय दवाएं पूरी तरह से मानव शरीर की भिन्न तरीके से पड़ताल पर आधारित हो गईं। पश्चिमी चिकित्सा पद्धति ने श्रेष्ठता की स्थिति को प्राप्त कर लिया और अंग्रेजों ने चिकित्सा के गैर-यूरोपीय तरीकों के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। वे रोग होने के कारण के बारे में अपनी वैज्ञानिक समझ को लेकर घमंड का शिकार हो गए। वर्ष 1835 में अंग्रेज़ सरकार के अंग्रेजी भाषा को हिंदुस्तान की शिक्षा के माध्यम की आधिकारिक भाषा बनने के निर्णय के बाद देश में पश्चिमी और भारतीय चिकित्सा पद्धति के बीच का अंतर और अधिक बढ़ गया।

अंग्रेज सरकार, रूस के विरुद्ध क्रीमिया युद्ध (1853-56) लड़ने के बाद अपनी सेना के स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित हो गई। वहीँ दूसरी तरफ, वर्ष 1857 में भारत की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेज सैनिकों की संख्या में काफी कमी आई थी। इसका नतीजा, अंग्रेज और भारतीयों सैनिकों दोनों की गहन चिकित्सा जांच और छावनी क्षेत्र में साफ-सफाई की निगरानी के रूप में सामने आया। वर्ष 1863 के रॉयल सेनेटरी कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद यह बात महसूस की गई कि बुखार, पेचिश-दस्त, हैजा और जिगर संबंधित चार प्रमुख रोगों के कारण सैनिकों की मौत हो रही थी। (05/04/2020)

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी, विशेष रूप से वर्ष 1813 में व्हाइटलॉ आइंसली की पुस्तक "मटेरिया मेडिका ऑफ़ हिन्दुस्तान एंड आर्टिसन्स एंड अग्रिकल्चरिस्ट" के प्रकाशन के बाद, के आरंभ में अंग्रेजों ने भारत में एक व्यापक दवा नीति अपनाई। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक "कोलोनाइजेशन एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन साइकाइट्री" के अनुसार, यह बात कही जा सकती है कि उदाहरण के लिए, कलकत्ता और बम्बई में, पश्चिमी चिकित्सा शिक्षा का भारतीय आबादी, जिसमें भद्रलोक और स्थानीय धनी लोग इसके मुख्य लाभार्थियों थे, पर महत्वपूर्ण पर सीमित प्रभाव था।

तब के अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में वैद्यों और हकीमों को सेवा में रखा गया था, जहां वे स्थानीय आबादी भारतीयों के ईलाज के लिए देसी दवाइयां देते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने के निर्णय के बाद वर्ष 1835 में "नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन" (एनएमआइ) को बंद कर दिया गया। इनमें पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को देसी चिकित्सा पद्धति पढ़ाने वाले दूसरे संस्थानों में स्थानांतरित कर दिया गया। यह इस बात से संकेत है कि चिकित्सा की पारंपरिक पद्वतियों को "आदिम और काल बाह्य" कहकर पूरी तरह खारिज नहीं किया गया। सेज प्रकाशन से प्रकाशित लेखक अनिल कुमार की पुस्तक में "मेडिसिन एंड द राजः ब्रिटिश मेडिकल पॉलिसी इन इंडिया (1835-1911)" में इस बात का हवाला मिलता है। (04/04/2020)

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