वर्ष 1890 में विलियम क्रुक उसी पूर्ववर्ती मिशनरी औपनिवेशिक भाव का प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें शीतला और अन्यान्य रोगों की देवियों को शैतान और दानव के रूप में चित्रित किया जाता था। स्पष्ट है कि ऐसे देवी-देवताओं को भारतीय विज्ञान और भारतीय समाज की समरसता के प्रतीक के रूप में देखने और व्याख्यायित करने से मिशनरियों का मतांतरण का उद्देश्य पूरा नहीं होता था और इसलिए वे उसे हीन, देहाती, कमतर, शैतानी आदि संबोधनों द्वारा भिन्न दिखलाने का प्रयास किया करते थे।
अर्नाल्ड ने यह दर्ज किया है कि शीतला माता के पुजारी ब्राहाण नहीं, बल्कि मालाकार नामक एक गैर ब्राह्मण जाति के लोग हुआ करते थे, जिसे आज की परिभाषा में निम्न जाति में गिना जाता है। दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, बंगाल आदि इलाकों में शीतला माता के मंदिर आज भी पाए जाते हैं। ये मंदिर वस्तुतः चेचक के टीकाकरण के केन्द्र थे। अर्नाल्ड लिखते हैं, जहां तक शीतला के साथ पुजारी के जुड़े होेने की बात है, उसके पुजारी न तो ब्राह्मण होते थे और न ही स्त्रियां, बल्कि नीची, परन्तु स्वच्छ शुद्र जाति के लोग होते थे। मल्ल, उत्तरी भारत की एक बागवानी और खेती करने वाली जाति, जिन्हें बंगाल में मल्ल या मालाकार के नाम से जाना जाता है और जो सामान्यतः माली या माला बनाने वाले या वेरियोलेटर होते थे, ही शीतला माता की पूजा से जुड़े होते थे।
अर्नाल्ड ने विभिन्न उद्धरणों के हवाले से लिखा है कि ढाका, बंगाल से लेकर छत्तीसगढ़ तक में शीतला माता की पूजा का विवरण दर्ज किया गया है। सामान्यतः यह पूजा चैत के महीने में ही होती है, क्योंकि चेचक भी सामान्यतः चैत्र में ही होती है, परंतु कुछ स्थानों पर सावन के महीने में भी शीतला की पूजा की जाती रही है। संभवतः उन क्षेत्रों में सावन में भी चेचक होने की आशंका रहती रही होगी।
-रवि शंकर, भारत में यूरोपीय यात्री, (प्रभात प्रकाशन)
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