दर्द की भाषा लिपि की अपेक्षा नहीं रखती, सीधे दिल पर चोट करती है ।
धर्मवीर भारती
दीख नहीं पड़ते हैं पेड़
मगर डालों से
ध्वनियों के
अनगिनत झरने झर झर
तेज और मंद
हर झकोरे के संग
हवा चलती है
और ठहर जाती है।
सन्नाटा !
गूंगे के अबोले वाक्य सा -
जाग्रत है यह मेरा मन
पर निरर्थक है !
ट्रेन ने सीटी दी …
दूर कहीं लोग जीवित हैं
चलते हैं
यात्राऐं करते हैं
मंजिल है उनकी ।
याद पड़ता है कभी -
बहुत सुबह पौ फटने के पहले
मैने भी एक यात्रा की थी !
कच्ची पगडंडी पर
दोनो ओर सरपत की झाड़ों में
इसी तरह,
तेज हवा चलती थी,
और ठहर जाती थी।
सीटी फिर बोली -
सुनो मेरे मन
“हारो मत”
दूर कहीं लोग जीवित हैं
यात्राऐं करते हैं,
मंजिल है उनकी !
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