Sunday, January 20, 2013
Meer-Shayari
मेरी शायरी खास लोगों की पसन्द की जरूर हैं, लेकिन ‘मुझे गुफ्तगू अवाम से है।
-मीर तक़ी मीर
हम 'मीर' तेरा मरना क्या चाहते थे लेकिन
रहता है हुए बिन कब जो कुछ कि हुआ चाहे।
अहदे- जबानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूदं
यानी रात बहुत जागे थे, सुबह हुई आराम किया।
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है।
करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूं करोगे तो क्या करोगे
जो यह अलस है दर्दमंदो कहां तलक तुम दवा करोगे।
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है।
कहता था किसू से कुछ तकता था किसू का मुंह
कल 'मीर' खड़ा था यां सच है कि दिवाना था।
आंखें पथराई, छाती पत्थर है
वह ही जाने जो इंतजार करे।
गुल को महबूब हम क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया
अब कोफ़्त से हिजरां की जहां दिल पे रखा हाथ
जो दर्दो-अलम था सो कहे तू कि यहीं था।
आतिशे-इश्क़ ने रावन को जलाकर मारा
गर्चे लंका सा था उस देव का घर पानी में
सुभे-चमन का जल्बा हिन्दी बुतों में देखा
संदल भरी जबीं है होटों की लालिय़ाँ
हँसकर व्यंग करना उनके लिए कठिन है झुँझालकर गाली देना सरल (सौदा के बाद सबसे ज्यादा गालियाँ मीर का काव्य में मिलेंगी। इसीलिए किसी ने कहा था कि मीर का उच्चकोटि का काव्य बहुत उच्चकोटि का है और निम्नकोटि का बहुत ही निम्नकोटि का ।) मीर के यहाँ प्रेंम संसार की सृष्टि का कारण होने के बावजूद जान-लेवा है।
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