सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा में कथा आती है कि एक बार वे गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तो द्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृष्ण को अनन्य भक्त हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृष्णभक्ति के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें बाकायदा गोविन्द कुण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी।
रसखान ने प्रभु के श्रीचरणों की प्रार्थना गाई।
मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में भी किया।
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